कविता-कानन
इंस्पेक्टर मातादीन के राज में
(हरिशंकर परसाई को समर्पित )
जिस दसवें व्यक्ति को फाँसी हुई
वह निर्दोष था
उसका नाम उस नौवें व्यक्ति से मिलता था
जिस पर मुक़दमा चला था
निर्दोष तो वह नौवाँ व्यक्ति भी था
जिसे आठवें की शिनाख़्त पर
पकड़ा गया था
उसे सातवें ने फँसाया था
जो ख़ुद छठे की गवाही की वजह से
मुसीबत में आया था
छठा भी क्या करता
उसके ऊपर उस पाँचवें का दबाव था
जो ख़ुद चौथे का मित्र था
चौथा भी निर्दोष था
तीसरा उसका रिश्तेदार था
जिसकी बात वह टाल नहीं पाया था
दूसरा तीसरे का बॉस था
लिहाज़ा वह भी उसे ‘ना’ नहीं कह सका था
निर्दोष तो दूसरा भी था
वह उस हत्या का चश्मदीद गवाह था
किंतु उसे पहले ने धमकाया था
पहला व्यक्ति ही असल हत्यारा था
किंतु पहले के विरुद्ध
न कोई गवाह था , न सबूत
इसलिए वह कांड करने के बाद भी
मदमस्त साँड़-सा
खुला घूम रहा था
स्वतंत्र भारत में …
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किसान का हल
उसे देखकर
मेरा दिल पसीज जाता है
कई घंटे
मिट्टी और कंकड़-पत्थर से
जूझने के बाद
इस समय वह हाँफता हुआ
ज़मीन पर वैसे ही पस्त पड़ा है
जैसे दिन भर की कड़ी मेहनत के बाद
शाम को निढाल हो कर पसर जाते हैं
कामगार और मज़दूर
मैं उसे
प्यार से देखता हूँ
और अचानक वह निस्तेज लोहा
मुझे लगने लगता है
किसी खिले हुए सुंदर फूल-सा
मुलायम और मासूम
उसके भीतर से झाँकने लगती हैं
पके हुए फ़सलों की बालियाँ
और उसके प्रति मेरा स्नेह
और भी बढ़ जाता है
मेहनत की धूल-मिट्टी से सनी हुई
उसकी धारदार देह
मुझे जीवन देती है
लेकिन उसकी पीड़ा
मुझे दोफाड़ कर देती है
उसे देखकर ही मैंने जाना
कभी-कभी ऐसा भी होता है
लोहा भी रोता है
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मेरा सपना
एक दिन मैं
जैव-खाद में बदल जाऊँ
और मुझे खेतों में
हरी फ़सल उगाने के लिए
डालें किसान
एक दिन मैं
सूखी लकड़ी बन जाऊँ
और मुझे ईंधन के लिए
काट कर ले जाएँ
लकड़हारों के मेहनती हाथ
एक दिन मैं
भूखे पेट और
बहती नाक वाले
बच्चों के लिए
चूल्हे की आग
तवे की रोटी
मुँह का कौर
बन जाऊँ
– सुशांत सुप्रिय