कविता-कानन
आहुति
पुराना सब आहुत होता है
नवीन के स्वागत में
जीर्ण होती वय की आँखों में
भय नहीं होता अपनी आहुति का।
आशा से सजा होता है
हर स्वप्न, उम्मीद से अधिक
विश्वास अपने पर।
कि उठती इच्छाएँ
छोटे-छोटे दंभ,
सलोने ख्वाब
दबी आकांक्षाएँ
सब आहुत होती हैं
किसी उज्ज्वल भविष्य पर।
यही सार है जीवन का
पुराना सब आहुत होता है
नवीन के लिए
और एक दिन
उसी नवीन के हाथों
हो जाती है
पुराने की पूर्णाहुति।
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आज़ादी
पेड़ों को नहीं मिलती आज़ादी
अपनी जड़ों से।
झीलों को नहीं मिलती आज़ादी
अपने वलय से।
आज़ाद आसमान में परिंदे
नहीं हैं आज़ाद, अपनी कोटर के मोह से।
नदियाँ आज़ाद नहीं हैं
निरंतर बहते रहने से।
समुद्र ठांठे मारने से
आज़ाद नहीं हो पाया कभी
लहरें तेज़, कभी धीमी ही सही,
पर उठती-गिरती रही हैं निरंतर।
दिन आज़ाद नहीं कि
इक सुबह सुस्ता लें और उगे
किसी रोज़ रात में।
पृथ्वी आज़ाद नहीं एक पल भी
कि झुकी धूरी पर कुछ रूक कर चले।
हो नहीं सकता, सूरज आग न बरसाए
और डूब जाए शीलत सागर में।
फिर हमें क्यों आज़ादी चाहिए
अपने मनुष्य होने के दायित्वों से
अपनी जड़ों से!
– रूपेंद्र राज तिवारी