विमर्श
आदमी को भूख ज़िन्दा रखती है
– नीलम पांडेय नील
न जाने क्यों लगता है कि इस दुनिया के तमाम भूखे लोग लिखते हैं, कविताएँ या कविताओं की ही भाषा बोलते हैं। जो जितना भूखा, उसकी भूख में उतनी ही जिज्ञासाएँ और उतने ही प्रश्न छिपे होते हैं। अक्सर कविताएँ भी छुपी होती हैं। ताज्जुब यह भी है कि उस भूखे के पास अपने ही उत्तर भी होते हैं, जो कभी-कभी आसमान से तारे तोड़ लाने जैसे होते हैं और तो और उसकी भूख में दुखों को याद करने के लिए पहाड़े होते हैं, बारहखड़ी, इमला होती है और कई बार बड़े-बड़े निबंध भी होते हैं; बस उनको पढ़ने, सुनने और समझने वाला शायद कोई होता है।
लिखने वाले को भाषा की भूख भी है, वह जितना लिखने का भूखा है, उतना ही अपने देश—प्रदेश और स्थानीय भाषा के क़रीब होता चला जाता है, जिनकी भूख इनसे जुदा है, वे किसी भी भाषा से काम चला लेने का दावा कर रहे हैं, उनको रचनाकार होने की नहीं, रचनाकार को खरीदने की भूख है। और किसी-किसी की भूख में आग, पानी के साथ राख भी दबी होती है, जो अवसरों की शह पर विध्वंश भी करती है। कालांतर में कुछ परम्परागत लोग नौले, गदेरे के ‘मसाणों’ (भूत—प्रेतों) के साथ भी बीड़ी पी-पी कर ही पनप गए थे और उन्होंने स्थानीय इतिहास में भूतों के संग लड़ाई लड़कर उनकी ही गद्दी छिन ली, तब से वे सब भूत शनै:-शनै: भागने की राह पर आ गए। आज आदमी की इसी भूख से डरे हुऐ ये भूत कहीं भी नहीं दिखते हैं, शायद सब आत्महत्या कर चुके हैं। असल में जब तक भूत थे, तो वे रात के चौकीदार भी थे। कुछ चोर, डकैत, आदमी से भले ही न डरें पर इन भूतों और आत्माओं से ज़रूर डरते थे, लेकिन अब उन्होंने ही ख़ुद उनकी जगह ले ली है।
इन्हीं कमबख्त भूतों के कुछ किस्से तो ऐसे भी हैं कि कोई किसी का नुकसान करता था तो वही भूत उस पर चिपट जाता था और उसको सच उगवाने पर मजबूर कर देता था पर आज भूतों का अस्तित्व लगभग खत्म हो चुका है। यानी कि वे भूत छोटी से छोटी भूख ने पैदा किये थे पर विकास के साथ भूख बड़ी होती जा रही है लेकिन भूतों का क़द छोटा ही रह गया। अब अच्छे और बुरे भूत अपना अस्तित्व खो चुके हैं और मनुष्य तकनीकी रूप से गुलाम हो गया है या फिर वह तकनीकी का आक़ा हो गया है। भूत जैसी बात निःसंदेह मेरा अंधविश्वास हो सकता है पर तकनीकी में विलुप्त होता आदमी हम सबका अंधविकास होने लगा है। तकनीक मानव से कहती है, ‘जो हुक्म मेरे आका, बता क्या करना है’ और आदमी बताता चला जा रहा है कि कैसे और किस तरह से ख़ुद से दूर होकर चला जा सकता है कि लौटने के सभी रास्ते बंद हो जाएँ।
भूख जैसे चीड़ के जंगलों में मुसाफिर द्वारा छोड़ी हुई चिंगारी में लीसे—सी पनपी आग है, जो महीनों दावानल बनकर उसी का गुरूर ख़त्म करती है पर शान्त होने पर जंगल को निपटा चुकी होती है। कुछ की भूख में छुपे संवाद होते हैं कभी-कभी वे भी नही जानते कि आखिर ये बातें वे इतने समय तक पचा कैसे पाये हैं। कुछ लोग भुख को ‘च्यूड़ो’ (चिवड़ा) की तरह चबा भी लेते हैं, यही चबायी हुई भूख उसे बादशाह बनाती है। भले ही आज दुनिया का हर आदमी, भूखे लोगों से त्रस्त है फिर भी भूख के बंदोबस्त में ही तो व्यस्त भी है। लिखने वाले को भी, लिखने की भूख नही छोड़ती है। हर काल, हर युग में भूख ने आदमी को ज़िन्दा रखा है। भूख है तो प्रेम है, घृणा है, गद्दी है, तानाशाही है। इसी भूख ने मडूवे या रागी जैसे काले, नाटे बीज तक को पहचान दिलाकर गेहूं की जात के समकक्ष ला खड़ा किया। जगह-जगह महफिलों और मंचों पर मंडूवा ही उछाला जाएगा तो गेहूं की क्या औक़ात जो कह सके कि भैय्या एक बार मेरी गुणवत्ता भी देख लो आखिर काम तो रोज़ मुझसे ही चलता है न। मंडूवा तो रोज़—रोज़ खा नहीं सकते हो आप। पर पहचान तो पहचान ही है येन केन प्रकारेण मिल तो रही है फिर माध्यम चाहे कुछ भी हो।
भूख के इतर मडूवा और सिसौण लोक झाड़ बन ख़ुद पर इतरा रहे हैं, जबकि कभी वे भूख और भूखे के असली साथी थे, आज अमीर होकर भूख से उपर उठने की चाह में चाहतों का गला दबा रहे हैं। चाय और भूख नेताओं का भी प्रिय विषय है। कुछ लोग कहते हैं, उन्होंने भूख को काबू किया, भूख दबायी और भूख पर राज किया और अब वे भूख से ऊपर उठ गये हैं, उन्हे भी भूख से उपर उठने की भूख ने ही बर्बाद किया है। यानी कि असल मायने में भूख आदमी को ज़िन्दा रखती है। भूख दिखाने की भूख भी विकास की दौड़ में शामिल है। विकास और भूख एक साथ दौड़ रहे हैं। जब कभी भूखी उँगलियाँ आकाश पर निशाना साधती हैं, उसके निशान इसी धरती पर बनते हैं और सवेरा होता है। हर सवेरा इंतज़ार करता है आकाश में बनी ‘मोहरियों’ के खुलने का। सब मोहरियाँ भूख की मौत पर खुलती हैं तब एक भूखा कवि भी अंतर्राष्ट्रीय पहचान बन जाता है। उधर एक और है जो भूख से लड़ नहीं पाता है और छोड़ देता है जीने की ज़िद और वैसे भी ज़िन्दगी को कहाँ फ़र्क पड़ता है किसी की भूख से!
ऐसी ही है धर्म में कट्टरता की भूख जैसे मेरे ईश्वर का नाम लो, वरना मार दिए जाओगे। क्योंकि जिस ईश्वर को वे मानते हैं, उस ईश्वर के कान नहीं होते, आँख नहीं होती उसके पास शरीर नहीं होता पर उसके कई नाम होते हैं या यूँ कहो कि उनके नाम ही नाम हैं। आदमी नामकरण करता रहा कभी अल्लाह, कभी ईशु, कभी वाहेगुरू और भगवान। ऐसे ही ईश्वर बनते रहे हैं। पर इतने सब ईश्वर भी मिलकर एक आदमी को बचा नहीं पाते। ख़ासकर उस वक्त उम्मीद बढ़ जाती हैं जब अधर्म की मार पड़ रही हो, क्योंकि ईश्वर धर्म के अधीन हो गया है और धर्म आदमी की बदलती सोच के अधीन है। आदमी आदमीयत की अहम के अधीन होकर पता नहीं कब से ईश्वर का आक़ा बन बैठा है और धर्म की बारीकियाँ समझता हुआ ईश्वर सदा के लिए मौन हो रहा है। आदमी धर्म का पालनहार है इसलिए धर्म अपने—अपने हिसाब से पढ़, बूझ रहा है। धर्म व्यक्तिगत स्तर पर मान्य हो सकता है, पर जब एक धर्म दूसरे धर्म की आज़ादी का हनन करने लगे, वह धारण करने योग्य नहीं हो सकता। धर्म का पालन करने से पहले समझना होगा कि चारों-पाँचों धर्म या सभी धर्म एक ही माँ की सन्तानें हो सकती हैं और वह माँ है प्रेम।
धर्म, जिन्होनें अलग—अलग समय में जन्म ज़रूर लिया पर सोच में सबके परम सत्ता के प्रति और उसकी बनाई हुई कृतियों के प्रति आदर और प्रेम रहा है। जिसमें निहित ईश्वर को समझना होगा। इसी ईश्वर को जानने-समझने और उसके चमत्कार देखने के लिए तुम्हें शरीर देना होगा, मन देना होगा, आत्मा देनी होगी और समस्त सृष्टि को प्रेम देना होगा। यानी उसके लिऐ स्वयं को सौंपना होगा। ये सब करने के बाद ही तुम्हें अलग-अलग नाम के ईश्वर एक ही जगह नजर आएँगे फिर कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा कि तुम राम कहो या रहीम कहो। आज भक्त और भगवान किसी ख़ास धर्म से ही बंधा होता है। तुम तो मनुष्य हो इसलिए भेदभाव करते हो पर क्या ईश्वर भी पहचानता है कि अमुक व्यक्ति तो मेरे धर्म का भक्त नहीं और अमुक मेरे धर्म का भक्त है। ईश्वर को देखने और शिकायत करने के लिए और इच्छाओं की भूख उगने पर तुम आकाश की ओर ताकने लगते हो। पर आपका वह ईश्वर आकाश में कभी नहीं मिलेगा क्योंकि वह आत्मा में बसा है। एक बार आत्मा को खंगाल कर देख लें पर तुम तो आकाश को ताककर सारा दोष और ज़िम्मेदारी उसके सर मढ़ रहे हो, बहुत भूखे हो यार अपनी ज़रूरतों के लिए ईश्वर को बना रहे हो तुम!
– नीलम पांडेय नील