लघुकथाएँ
आखिरी इच्छा
“और चाची सब ठीक ठाक तो है न?”
“का ठीक है बिटिया? घर मा दो-दो बहू हैं पर मजाल है कि कि कोई एक गिलास चाय बनाकर भी पिला दे। पेंशन आती नहीं है, उससे पहले ही बाँटने की होड़ लग जाती है। एक धोती के लिए भी इन बेगमों का मुँह ताको…”
“तो थोड़ा पैसा अपने लिए भी रख लिया करो न चाची, काहे पूरा पैसा इन सबमें ही बाँट देती हो।”
“अरे बिटिया! मेरे हाथ में आये तब न? मुझे तो यहाँ से लादकर ले जाते हैं, फारम भराते हैं, अंगूठा लगवाते हैं और पैसा हाथ मे आते ही दोनों भाई लेकर चल देते हैं। मुझे छोटे के भरोसे छोड़कर बड़े प्यार से बोल देते हैं। अब अम्मा को सीधे घर लेकर चले जाओ। कभी दो रुपये का जहर भी खाने का मन हो तो इन महारानियों का ही मुँह ताको।”
“का करें काकी, दुनिया की यही दशा है?”
“दुनिया की यही दशा नहीं है बिटिया…ई दोनों हैं ही ऐसे नीच खानदान से…अब देखो परसों बड़ी ने धक्का मार दिया गिर गयी, घुटना फूट गया पर अब कोई देखे वाला नहीं है। छोटा है थोड़ा बहुत जितना बन पड़ता है करता है। बाकी इन बहुओं के आने से तो अच्छा था मेरे बेटे कुंआरे ही रह जाते।”
“च च च च बहुत मुश्किल है चाची….अच्छा तो अब मैं चलती हूँ।”
“ठीक है बिटिया जाव, अब तो बस यही आखिरी इच्छा बची है कि छोटे की शादी हो जाय तो छोटी का भी मुँह देख लें।”
“काहे चाची दो बहुओं का मुँह देखकर पेट नहीं भरा है का?”
इतना कहकर बिटिया भाग गयी है और चाची का मुँह बिना दाँतों वाले इमोजी की तरह फैल गया है।
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मॉब लिंचिंग
रामू काका की जमी जमाई मक्के की फसल पर नीलगायों के झुंड ने धावा बोला तो वे बैठे-बैठे ही अपने पालतू कुत्तों का आवाह्न करने लगे …ऊलिहो ऊलिहो!
हीरा, मोती, गब्बर, मोंटी, कालू, कालका, पेरी, चितकबरी आदि जितने भी मोहल्ले के कुत्ते कुतियाएँ थीं, सब एक साथ भौं भौं भौं भौं करते हुए नीलगायों पर छूट पड़े।
कुत्तों की आवाज सुनकर झुंड तो रफूचक्कर हो गया पर उनका एक बच्चा जो अभी कुछ ही दिनों का था, कुत्तों के हत्थे चढ़ गया।
नील गाय के बच्चे को फँसा देख; रामू काका भी डंडा लेकर दौड़े और वहीं थोड़ी दूर पर स्थित चाय की टपरी पर बैठे कुछ गाँव के ठलुए भी उस ओर भागे लेकिन इससे पहले कि इंसान अपना करतब दिखाते, कुत्तों ने अपना काम कर दिया था।
अगर करने के लिए कुछ न हो तो संवेदनाएँ ही व्यक्त की जाती हैं। मर चुके नीलगाय के बच्चे के शरीर से बह रहा खून जब तक गरम रहा, भावनाओं का प्रवाह भी अपने चरम पर था। कुछ अतिउत्साही ठलुए, जो अभी-अभी गांजा की चिलम सुड़क कर आये थे, भावातिरेक में रोने भी लगे, जिन्हें चुप कराने का जिम्मा भांग खाकर आये ठलुओं ने उठाया।
पर असली सदमा तो रामू काका को लगा था। आखिर उनके ही उलिहाने पर ये कुकृत्य हुआ था। वे विचलित होकर धीरे-धीरे अपने बरांडे तक आये और मन बहलाने के लिए टीवी ऑन कर दिया।
पहला ही चैनल लगाया तो उस पर ख़बर चल रही थी- “कूड़ा बीनने वाले को भीड़ ने चोर समझकर पीट-पीट कर मार डाला, असली चोर फरार …।”
“यहाँ भी वही हत्या, मारधाड़…” रामू काका ने टीवी बंद किया और बाहर निकल आये।
नीलगायों का झुंड वापस आकर मक्के की खेती में ही चर रहा था। मरे हुए नीलगाय के बच्चे के ऊपर कुछ कौवे मंडरा रहे थे। चाय की टपरी ठलुओं के हाहाकार से फिर गुलज़ार हो गई थी।
– दिवाकर पांडेय चित्रगुप्त