कविता-कानन
आँच
माथे पर देश की मिट्टी का तिलक कर
तुम चले गये सरहद पर
और मैंने निपट तनहाई में
प्रेम की माटी में
विरह का बिरवा रोप दिया
मौसम गुजरते रहे
बिरवे में बर्दाश्त की कोंपलें लहलहायीं
पीड़ा के फूल सुलगे
रंगों की कांपती खामोशी लिए
तितलियाँ मंडरायीं
पतझड़ में सब कुछ
मिट्टी में समा गया
तुम भी
तुम्हारी स्मृति लिए
मैं भी
अब बिरवा ठूँठ है
और
मेरे शीश पर
शहीद की विधवा का सूरज है
कौन देख रहा है
उस सूरज की आँच से
निरंतर झुलसता मुझे
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ओस की जुबानी
मैंने कोहरे को
किसी तरह पार कर
सनकी हवाओं से
लगातार जूझ कर
अपने बूँद अस्तित्व से बेख़बर
जुनूनी ज़िद में गिरफ्त
समा जाना चाहा तुम में
मैंने रात भर
बूँद-बूँद
मुहब्बत के पैगाम लिखे
अँधेरे का सफर
तय कर
कोहरे की परत भेद कर
मैं लगातार बढ़ती रही
तुम्हारी ओर
अपने बदन पर
चाँद का अक्स ले
तुम में झिलमिलाने को आतुर
मैं इंतजार करती रही
कि तुम खिलो
और अपने आगोश में
ले लो मुझे
नहीं जानती थी
मुहब्बत में मात ही सबसे बड़ी शह है
और मिट जाना मेरा मुकद्दर
मैं थरथराती रही रात भर
और सूरज निकलते ही
मिट चली
ओस थी न!
– संतोष श्रीवास्तव