भाषांतर
अस्पृश्य
मूल रचना- दलपत चौहान
पाठशाला में प्रथम प्रवेश
साक्षात प्रलय की बेला थी
काँपते हाथों से स्लेट पर एक-एकम-एक नहीं
धधकते सहरा की तपती ज़मीन जैसी धड़कती छाती पर
लिखी थी मेरी जाति,
तबसे मैं अछूत हूँ…अस्पृश्य हूँ…अस्पृश्य हूँ
अस्तित्व के एक-एक अणु में
हजारों बिच्छुओं के डंक की वेदना गूँजती रही
हिमालय की दुर्गम ऊँचाइयों की तरह
पार की थी कक्षा की देहरी
सबसे दूर…बिल्कुल कोने में
शंकर के एकांत-सी मिली थी बैठने की जगह
आँखों में त्रिपुरारी के तांडव ने
तभी ले लिया था जन्म और घूमता रहा था चारों ओर,
फटी हुई थैली में
टूटी हुई पट्टी का खज़ाना लेकर बैठता था…
आकाश बिल्कुल कोरा था
लेकिन समय सिसकियाँ ले रहा था उस वक्त,
द्रोण के दरवाज़े पर एकलव्य की वेदना थी,
स्वयं ही सीखते-सीखते कदम चल पड़े
लेकिन स्वय़ं के ही कदमों की
दूर से सुनाई देती अनुगूँज आज भी नहीं भूल पाता हूँ
आँसुओं से भरी आँखों के दिन अब खत्म हुए
मैली चड्डी और फटी बाँहों वाली कमीज़ से
नाक पोंछने का वक्त अब बीत गया
बचपन में खींची गयी तिरस्कार की लकीर गहरी हुई है
हज़ारों अर्जुनों की तरह
अपने दोनों हाथों से
अब मैं विश्व को शिकंजे में कस सकता हूँ
बलि के वचन को कदमों से माप सकता हूँ
आँखों में रौशनी का तेज है
उन्नत मस्तक में
आग-तेजाब-विद्रोह और विद्वत्ता भी है
ओ तिरस्कार के देवता!
मैं आज तक ढूँढता ही रहा हूँ
कि मेरे किस अंग-उपांग पर
लिखी हुई हैं अस्पृश्यता की ऋचाएँ!
इसीलिए तो मुझे अस्पृश्य नाम देनेवाले
तुझे पूछता हूँ
कि कहाँ लिखा है वह नाम जो तूने मुझे दिया?
और जिसने मुझे जीवन भर पीड़ा दी है।
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शस्त्र संन्यास
मूल रचना- प्रवीण गढ़वी
आओ, हम शस्त्र नीचे रख देते हैं
और गोलमेज परिषद करते हैं
हमारा कोई देश नहीं, वेश नहीं
जोतने को खेत नहीं, रहने को घर नहीं
आर्यावर्त से लेकर आज तक तुमने
घास का एक तिनका तक
हमारे लिए नहीं छोड़ा
चलो, हम वह सब भूल जाते हैं
क्या तुम गाँव में खड़ी की हुई दीवार तोड़ने को तैयार हो?
हम दूध में मिश्री की तरह घुलने को तैयार हैं
तुम्हारी द्रौपदी अगर स्वयंवर में
हमारे गलिया को वरमाला पहनायेगी
तो क्या सह सकोगे?
और अगर हमारी रवली, चित्रांगदा की तरह
नूतन रूप में आयेगी तो
तुम्हारा अर्जुन उसे स्वीकार करेगा?
आओ, हम मरे हुए जानवर को बारी-बारी से खींचेंगे, तैयार हो?
आओ, हम तुम्हारा जूठा खाने के लिए तैयार हैं
क्या तुम हमारे शादी-ब्याह में जूठन खाने आओगे?
आओ, संविधान में से आरक्षण की व्यवस्था मिटा देते हैं
हमारे मगनिया, छगनिया सामान्य परीक्षाएँ देंगे
लेकिन क्या तुम उनको कॉन्वेंट स्कूलों में प्रवेश लेने दोगे?
आओ, हम शस्त्र नीचे रख देते हैं
और देश की रसवंती ज़मीन को
साथ मिलकर जोतते हैं
क्या दोगे हमें फ़सल का आधा हिस्सा?
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छुआछूत यानी क्या
मूल रचना- नीलेश काथड़
मैंने मोर से पूछा- छुआछूत यानी क्या?
मोर थिरक-थिरक कर नाचने लगा और
मेरे गाल पर मीठा चुम्बन कर पीहू-पीहू करने लगा।
मैंने वृक्ष से पूछा- छुआछूत यानी क्या?
उसने अपनी शाखाएँ नीचे झुकाकर
मुझे गोद में ही बिठा लिया।
मैंने फूल से पूछा- छुआछूत यानी क्या?
वह ख़ुशबू बिखेरते हुए
मेरी नाक के साथ खेलने लगा।
मैंने नदी से पूछा- छुआछूत यानी क्या?
नदी मेरे पैरों को छूकर
ठेठ हृदय तक मुझे भिगो गयी।
मैंने पत्थर दिल पहाड़ से पूछा- छुआछूत यानी क्या?
पहाड़ पिघल कर रेला बन बहने लगा मेरे पीछे-पीछे
मुझे छूने, स्पर्श करने के लिए ही न!
मैंने आदमी से पूछा- छुआछूत यानी क्या?
उसने मेरे सामने देखा
दूर खिसका
और चलने लगा।
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बदले हुए काम
मूल रचना- जयेश जीवीबेन सोलंकी
हे राम!
चलो बदल लेते हैं अपने काम
तुम बनो शूद्र शम्बूक
मैं बनता हूँ
क्षत्रिय राजा राम,
हे द्रोणाचार्य!
चलो शुरु करते हैं नयी परंपरा
तुम बनो सृष्टि के
सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी एकलव्य
मैं बनता हूँ जातिवादी द्रोणाचार्य,
पूरे क्षेत्र में
एक ही बत्तीस-लक्षण
ब्राह्मण का लड़का बचा है
और देश में सब जगह अकाल है
हे राजन!
चलो, बलि चढ़ा दो उसके सिर की
हे सवर्णों!
अब तुम
गले में हंडिया बाँधकर
पीछे झाड़ू बाँधकर
करो प्रदक्षिणा भंगीवास की
अब हम अछूत
सवर्ण बनकर
देखा करेंगे चारों ओर
और कहते रहेंगे
“अरे रे, बेचारा
जैसे इसके करम”
हे भूदेव,
तुम ही कहते हो न कि
जातिव्यवस्था कर्म पर आधारित है
और सिर पर मैला ढ़ोने से
आध्यात्मिक आनंद की प्राप्ति होती है
तो आओ बेटा!
रोज शाम को
यह झाड़ू लेकर भंगीवास में
खाना माँगने आना
तुम चाहो तो
खींच लाना
हमारे ग्राहकों का पाड़ा,
फुरसत में
जब तुम्हारी माँ
झाड़ू की सींक से
नाखूनों में भरा हुआ ‘गू’ साफ करे तो
‘छी छी छी’ मत करना बेटा
तुम्हारा बाप
देशी दारू गटगटाकर
गटर में उतरे तो
‘ना’
मत कहना,
तुम्हारे शिक्षित बेरोज़गार भाई के
एक हाथ में
एम.ए. की डिग्री
और दूसरे हाथ में
मरे हुए कुत्ते-बिल्ली के पैरों में बाँधी हुई
रस्सी का सिरा हो तो बेटा
नक्सलवादी मत बन जाना।
आओ राम,
आओ द्रोणाचार्य,
आओ राजन,
आओ सवर्णों,
आओ भूदेव
एक दिन के लिए
हम अपने काम बदल लेते हैं।
– मालिनी गौतम