कथा-कुसुम
अब न अंगूठाछाप
“चल बुढ़िया, जल्दी से यहाँ अंगूठा मार; पेंशन के पैसे अभी देता हूँ।”
“अरे न ए न बेटा, हम अपना दस्तखत करना सीख लिए हैं! मेरा पोता मुझको पढ़ने-लिखने के लिए सीखा रहा है। अब तो हम दस्तखते करेंगे।” बुढ़िया ने ब्लाॅक के उस कर्मचारी को ऐसा उत्तर दिया।
“हूंऊऊऊऽऽऽ…बड़का आई है दस्तखत करने वाली। टांगूर-मांगूर-सा ही तो कुछ लिखना सीखा होगा और अपने को किरण बेदी लगी समझने।” कर्मचारी ने ऐसी प्रतिक्रिया दी।
“अरे बेटा! वही किरण बेदी हैं न, जो अपने देश की पहली महिला आईपीएस ऑफिसर थीं। मेरा पोता हमको यह भी बताया था।”
सुनकर उस आदमी की आँखे तो जैसे फटी जा रही थीं।
“अरे बेटा, यहीं करना है न दस्तखत!” और वह क़लम उठाकर दस्तख़त करने लगी।
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कला की क़ीमत
“ले, लोऽऽऽ…मिट्टी की मूर्तियाँ ले लोऽऽऽ…ले…।” एक मूर्ति विक्रेता की आवाज़ गली में गूंज रही थी। एक महिला उसे टोकते हुए कहती है-
“अरे रूको भई, रूको!! ये माँ लक्ष्मी वाली मूर्ति कितने की है?”
“अस्सी रुपए की है बहन जी।” विक्रेता ने जवाब दिया।
“क्याऽऽऽ..अस्सी!? पचास में दोगे?”
“नहीं, नहीं बहनजी, इतने में तो लागत भी निकलेगी। कम-से-कम पैंसठ रुपए दीजिए।”
“अरे! नहीं, नहीं पचास से ज्यादा न दूंगी।” महिला ने स्पष्ट कहा।
विक्रेता सोच में पड़ जाता है- ‘कई दिनों से मूर्तियाँ बिकी नहीं हैं। इसी तरह चलता रहा तो हमें आज भी आधा पेट ही…। ऊपर से बबली की स्कूल फीस। कैसे घर-परिवार चलेगा?’
“क्या सोच रहे हो, दोगे या जाऊँ?”
विक्रेता हसरत भरी नज़रों से एक बार मूर्ति को देखता है; पलकें ढंक जाती हैं और मूर्ति महिला की तरफ़ बढ़ा देता है।
– सुमन कुमार