कथा-कुसुम
अपराजिता
शाम का वक्त था, पति बगीचे में आकर बैठे ही थे कि पत्नी चाय लेकर आ गई। जमीन पर पड़ी लताओं को देखकर वह धक्क से रह गयी। उन पर खिले हुए फूल और पत्ते अब तक मुरझा चुके थे, मगर जड़ें अभी भी जीवित थीं। झट उन्हें उठाकर उसने वृक्ष की डाल के सहारे लपेट दिया। जड़ों को पानी देकर वह जैसे ही वापस जाने को हुई, पति बोल उठे, “अरे सुनो! चाय तो पीती जाओ।”
वह ठहर गयी। उसने मुड़कर पति की ओर देखा। उसकी बुझी बुझी-सी आँखें देखकर वह जड़ होकर रह गये। अगले ही पल धीरे से बोले, “कुछ बोलोगी नहीं क्या! आज सुबह से तुमने कुछ गुनगुनाया भी नहीं!” उसके होठ थरथरा उठे।
“मैं जानता हूँ, तुम मुझसे बहुत नाराज हो।”
इस बार काँपती आवाज़ में वह बोल उठी, “इन लताओं ने आपका क्या बिगाड़ा था, जो इन्हें नोचकर आपने वृक्ष से अलग कर दिया?”
“अच्छा चलो बाबा, अब मान भी जाओ, आई एम साॅरी!”
“साॅरी? क्या औरत का आत्मनिर्भर होना कुछ ग़लत है? मैं तो सुबह-सुबह पूजा के लिए फूल चुनने आई थी और आपने इन्हें…? आखिर मैंने कहा ही क्या था, यही ना कि आज की औरत हर क्षेत्र में कोई भी काम अकेले कर सकती है और आपका भी तो यही कहना है कि औरतों को आगे बढकर हर काम आना चाहिए! तो फिर …!” एक साँस में बोलती, अचानक वह चुप हो गयी।
पति ने गर्दन झुका ली, उसका हाथ थामते हुए बोले, “तुम सही कहती हो, इन लताओं के बगैर यह वृक्ष भी कितना सूना और उदास दिखाई दे रहा था। सच कहूँ तो… वो मेरा अहंकार था।”
पत्नी अवाक-सी उन्हें देखती रह गयी। पति ने उसे अपनी बाहुपाश के घेरे में ले लिया। ढलती साँझ के साथ मन का गुबार भी कहीं धुल गया था।
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संध्या के क्षीण प्रकाश
डोरबेल बजते ही रश्मि ने जैसे ही दरवाजा खोला, सामने दीदी को पाकर खुशी से भर उठी। दीदी ने भी उसे गले से लगा लिया। वह उनका हाथ पकड़कर खींचती हुई, उन्हें अपने कमरे की ओर ले जाने लगी।
“अरे रुक तो सही, पहले माँजी से तो मिल लूँ।”
रश्मि उलाहना देती बोल उठी, “दीदी, आप जब भी आती हैं, मेरे पास ज़रा देर भी नहीं बैठतीं।”
“बैठती तो हूँ! लेकिन तू तो ज़रा देर भी अब, माँजी के पास नहीं बैठती!”
“अच्छा, तो ज़रूर उन्होंने मेरी शिकायत आपसे की होगी!”
“न-न, मुझे सब दिखाई पड़ता है। याद कर, भाभी भी माँ-पिता जी के साथ बैठकर चाय पीती थी, घर में कितनी खुशहाली बसती थी।”
“माँ की बात और थी। यहाँ तो माँजी के पास बैठो कि बस दुनिया भर का प्रपंच चालू हो जाता है।”
“हाँs, इस उम्र में अब ये लोग अपनी सोच तो नहीं बदल सकते। मगर तू चाहे तो कुछ देर के लिए ही सही, उनके मन की दशा जरूर बदल सकती है।” आँखों ही आँखों में मुस्कुराती दीदी, माँजी के कमरे की ओर बढ़ गयीं।
उसकी आँखें भर आईं, दीदी में आज उसे माँ का अक्स नज़र आ रहा था।
जल्दी-जल्दी चाय-नाश्ता ट्रे में सजाकर वह भी उधर ही चल दी। माँजी का मुरझाया चेहरा आज कैसा खिला-खिला जा रहा है और होठों पर मुस्कान भी बिखरी पड़ रही है। चाय खत्म करते ही दीदी बोलीं, “माँजी, याद है आपको, पहले आप एक भजन गाकर सुनाया करती थीं! आज फिर वही भजन गाकर सुनाइए ना!” उनका मनुहार करते हुए बोलीं।
माँजी का चेहरा पुलक उठा, “हे राम, वो वाला भजन, और तुझे अभी तक याद है! लेकिन मुझे तो अब इसके बोल भी सही से याद नहीं…!”
उन्होंने आँखें मूँद लीं और बड़ी शान से किसी संगीतकार की तरह सुर साधते हुए गा उठीं-
“प्रेमी बनकर प्रेम से ईश्वर के गुण गाया कर
पहले सबको भोग लगाकर पीछे से तू खाया कर”
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दृष्टि दोष
“बहूजी, ओ बहूजी! हम जाय रहे हैं। तनिक दरवाजा तो बंद कर ल्यो।” आवाज देती हुई अम्मा कमरे की चौखट पर आकर खड़ी हुई।
“ठीक है जाओ।” लैपटॉप की स्क्रीन पर नजरें गड़ाए हुए ही, ऋता बोली।
“ऐ बहूजी, कहानी लिख रही हो का? एक कहानी हमारी भी लिख दो न!” अनुनय-विनय करती वह बोली।
ऋता हँस पड़ी, “अरे अम्मा! तुम्हारी कहानी को अब भाव ही कौन देता है! आज के समय में बहुत पुरानी हो गयी है।”
“काहे? कहानी भी कभी पुरानी होती है का? हमारी ज़िंदगी की कहानी सुनोगी न, तो रो पड़ोगी।” कहते-कहते उसका गला भर आया।
ऋता की नजरें अनायास ही लैपटॉप से हटकर उसकी ओर चली गयीं। “तुम नहीं समझोगी अम्मा! आज का समय, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय विषय पर कहानी की माँग करता है।”
“राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय! ये का होता है?”
“राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय का मतलब, देश-विदेश की बातें। घर-परिवार से हटकर समाज की बातें।”
“येल्यो, तो घर परिवार भी समाज से अलग होता है का!”
ऋता अपने चश्मे का लैंस साफ करते हुए बोली, “तुम लोग अखबार तो पढ़ती नहीं। घरेलू समस्याएँ अब पहले जैसी नहीं रहीं, स्त्रियों की दशा में बहुत सुधार आया है।”
“ऐ बहूजी, अब रहने भी दो। हम अनपढ़ गँवार जरूर हैं, मगर सब जानते हैं। ये अखबार वाले और कैमरा वाले, कौनो गली कूचन में तो जाते नहीं! ये तो बड़े-बड़े घरों की पढ़ी-लिक्खी औरतों की फोटो और उनकी तरक्की की बातें अखबार में छाप देते हैं। चलो हमारे साथ चलो, तो हम दिखावें, कैसी जिंदगी जी रही हैं, औरतें गलियन में!”
ऋता कुछ कहती मगर अम्मा तो अपनी ही रौ में बोले चली जा रही थी। “अरे दूर काहे जाओ, हमारी गली में सतनाम को ही देख लो, रोज उसका आदमी शराब पीकर दहेज के लिए उसे मारता कूटता है। अब जब पेट से भयी तो जचगी कराने वास्ते मायके भेज दिया। दूसरे, देवकी को देख लो। और भी कहो तो कितने नाम गिनाएँ तुमको, जिन पर कहानी लिखी जा सके है।” कहते-कहते वह आक्रोश से भर उठी और काँपती आवाज में बड़बड़ाती हुई जाने लगी। “लिक्खो भाई, खूब लिक्खो! अभी घर तो सम्हाले नहीं सम्हले, और लिखनी है देश विदेश की बातें…!”
ऋता वापिस जैसे ही लैपटॉप की ओर मुड़ी, वह स्तब्ध रह गयी। चश्मे में से उसे स्क्रीन पर छपे काले अक्षर, अब धुँधले नजर आने लगे थे।
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मन की जंजीरें
दिमाग इतना थक गया था, जोर देने के पर भी याद नहीं आ रहा था कि वह किस दिन अपना घर छोड़कर यहाँ आया था।
“लो शिखर, चाय पी लो और अब मेरी मानो तो, अपने घर वापिस लौट जाओ। क्योंकि पी.जी. के भी अपने कुछ रूल्स होते हैं।”
“ओह, तो अब मैं तुम पर भी बोझ हो गया!” कहते हुए उसने ट्रे पीछे की ओर धकेल दी और चाय कप से छलक कर ट्रे में जा गिरी।
प्रशांत खीज उठा, “तुम अपनी इसी सोच के कारण दुखी रहते हो। वो तो बस अंकल-आंटी की वजह से मैं… वर्ना…।”
“वर्ना क्या? यही न कि मैं अनाथ हूँ।” एक झटके के साथ वह उठ खड़ा हुआ। मैं तो जा ही रहा था, कहीं भी चला जाता। तुमने रोका ही क्यों मुझे?” कहकर वह फूट-फूट कर रो पड़ा।
प्रशांत परेशान हो उठा, “सचमुच! तू पागल हो गया है, तेरे उस रिश्तेदार ने तेरे दिमाग में कीड़ा क्या भर दिया कि तू दो दिन में ही अनाथ भी हो गया? और उसके पहले…?”
“तू नहीं समझेगा। और उसके पहले तो मैं भी नहीं समझता था। लेकिन अब सब कुछ साफ-साफ नजर आने लगा है। नया मोबाइल माँगा तो, बहाना मार दिया। नयी मोटर साइकिल माँगी, तब भी वो बोले कि बाद में दिलवा देंगे, अभी पैसे की दिक्कत है। जरा सोच, अपनी खुद की औलाद होती तो क्या…?”
“तो क्या? मेरे पापा ने भी तो नया लैपटॉप लेने से मुझे अभी रोक रखा है। देख, पुराने से ही काम चला रहा हूँ। पी.जी. में रहना-खाना, फीस, ऊपर से और भी बहुत सारे खर्चे, बजट बिगाड़ कर रख देते हैं। रिश्तेदारों का क्या, वे तो दूसरों का घर फोड़ने में माहिर होते ही हैं।”
वह सिर झुकाए अपने हाथों से अपने बालों को खींचता रहा। “ठीक है, चला जाऊँगा कहीं भी, फिर कभी लौटकर वापिस नहीं जाऊँगा।”
“तो ये लो; दरवाजा खुला है। अब जहाँ भी चाहो, चले जाओ। मगर जाकर सबसे पहले अपने उन माँ-बाप का पता जरूर लगाना, जिन्होंने पैदा होते ही तुम्हें मरने के लिए झाड़ियों के पीछे छोड़ दिया था। जब तुम नाथ-अनाथ का मतलब भी नहीं जानते थे।”
“बस करो। अब मैं और नहीं सुन सकता ये सब।”
“वाह रे इंसान! जो सामने है, वह तो नजर आता नहीं और जो नहीं है, उसके लिए मरा जाता है।”
प्रशांत वहाँ से जा चुका था।
सिर की नसें फटी जा रही थीं। वह आँखें मूँदे रोता रहा। अचानक सिर पर जाना-पहचाना स्पर्श पाकर उसने आँखें खोल दीं। सामने मम्मी-पापा खड़े थे। दिल धक्क से हो कर रह गया। सचमुच! चार दिनों में ही कितने बूढे हो गये थे दोनों। वह फौरन उनके गले से जा लिपटा और रोता ही रहा, जब तक उसके आँसू थम नहीं गये।
– प्रेरणा गुप्ता