कहानी
अपना शहर
“लीजिए, आपका शहर आ गया।” पत्नी ने कार का शीशा नीचे करते हुए कहा। कार शहर के बाहरी इलाक़ों से गुज़र रही थी।
“पापा, आप यहीं बड़े हुए थे?” पिछली सीट पर बैठे राहुल ने पूछा।
“हाँ, बेटा।”
मैंने भी कार का अपनी ओर का शीशा नीचे कर लिया। हवा में जैसे दूर कहीं से लौट आई एक जानी-पहचानी-सी गंध थी। हम घंटाघर के पास से गुज़र रहे थे। आगे स्कूल। फिर थाना। फिर बाज़ार।
कुछ साल पहले मैं यहाँ आया था। पिताजी के देहांत के समय। अकेला। माँ को साथ ले जाने।
यह वह शहर था, जहाँ मैं पैदा हुआ था। पला-बढ़ा था। स्कूल-कॉलेज गया था।
“पापा, क्या यही आपका स्कूल था?”
“हाँ, बेटा।”
कार स्कूल के सामने से गुज़र रही थी।
“पापा, आप शरारती बच्चे थे या सीरियस?” राहुल पूछ रहा था।
— सुरिंदर?
— येस मैडम।
— नफ़ीस?
— प्रेज़ेंट मैडम।
— सुमन?
— येस मैडम।
— माइकल?
— येस मैडम।
— मनीष?
— येस सर! सॉरी! येस मैडम।
कार जी.टी. रोड पर भाग रही है। सड़क के दोनों ओर लगे बरगद के बरसों पुराने पेड़ काट दिए गए हैं। दोनों ओर नई-नई कोठियाँ, नई-नई दुकानें बन गई हैं। इलाक़ा इतना बदल गया है कि पहचाना नहीं जा रहा। कार एक बंद गली के आख़िरी मकान के सामने आकर रुकती है। यहीं मैं पैदा हुआ था। यहीं मैं पला-बढ़ा था। इस मकान से जुड़ी यादों का ख़ज़ाना है मेरे ज़हन में।
जाड़ों की गुनगुनी धूप में छत पर मूँगफली खाते और पतंगें उड़ाते हम भाई-बहन। गर्मियों की छुट्टियों में मकान के भीतर ठंडे कमरों में ‘रूह अफ़्जा’ पीते और शतरंज खेलते हम भाई-बहन। दफ़्तर से लौटकर हम भाई-बहनों को ‘बैगाटेल’ नाम का नया खेल खेलना सिखाते पिताजी। दीवाली की शाम को गणेश-लक्ष्मी की पूजा करते माँ-पिताजी और गली में पटाखे छोड़ते हम भाई-बहन। पटाखों की आवाज़ से डर कर पलंग के नीचे दुबक जाता हमारा पालतू कुत्ता जैकी। गली में गिल्ली-डंडा और कंचे खेलते हम भाई-बहन।
“पापा, क्या हम हर साल यहाँ नहीं आ सकते?” कार से उतरते हुए राहुल पूछता है। मेरी आँखें उसकी माँ की आँखों से मिलती हैं। फिर मैं दूसरी ओर देखने लगता हूँ।
इस बार मैं इस मकान को बेचने आया हूँ। जब तक माँ थीं, मैंने उनकी इच्छा का सम्मान किया। अब माँ भी नहीं रहीं। एक भाई विदेश में है। दूसरा देश के सुदूर कोने में। भाई-बहन सब की यही राय है कि अब यह मकान बेच दिया जाए। क्या मकान बेच देने से उससे जुड़ी यादें ख़त्म हो जाती हैं? क्या मकान बेच देने से उस में बिताए पल नष्ट हो जाते हैं।
अब हम मकान के भीतर आ गए हैं। बेडरूम की दीवार पर पिताजी की फ़ोटो टँगी हुई है। फ़ोटो पर धूल जमी हुई है। और सूख गए फूलों की माला टँगी हुई है। सूखी फूल-माला हटाकर मैं फ़ोटो दीवार से उतार लेता हूँ। जेब से रुमाल निकालकर पिताजी की फ़ोटो साफ़ करता हूँ। फ़ोटो में पिताजी मुस्करा रहे हैं। लगता है जैसे अभी बोल पड़ेंगे- “मन्नू, क्या बात है बेटा? इतने गम्भीर क्यों हो?”
“पापा, दादाजी हमारे साथ क्यों नहीं रहते थे?” मेरे बगल में खड़ा राहुल पूछ रहा है। और मेरे ज़हन में कुछ बरस पहले का दृश्य उभरने लगता है।
आँगन में पिताजी का पार्थिव शरीर पड़ा है। बगल में माँ सिसक रही है। माँ को सहारा दिए बहन बैठी है। गिनती के दो-चार लोग और हैं। पिताजी की आँखें बंद हैं। चेहरे पर पीड़ा की कुछ स्पष्ट लकीरें हैं। पिताजी को रात में दिल का दौरा पड़ा था। जब तक उन्हें अस्पताल ले जा पाते, वे चल बसे थे।
पिताजी यहाँ चालीस साल पहले आ कर बसे थे। उन्हें इस प्रांत से, इस शहर से मोह था। यहाँ की भाषा, संस्कृति, लोग- सब उन्हें अच्छे लगते थे। पर यहाँ वालों ने उन्हें कभी अपना नहीं समझा। उन्हें दफ़्तर में, मोहल्ले में, समाज में, हर कहीं यह अहसास दिलाया जाता था कि वे ‘सन-ऑफ़-द-सोएल’ नहीं हैं, वे ‘बाहरी’ हैं। वे यहाँ दूसरे दर्ज़े के नागरिक थे। और उनके साथ हम भी। क्योंकि हमारा रंग थोड़ा गहरा, नाक थोड़ी चपटी और बोली थोड़ी अलग थी। क्योंकि यहाँ खड़ी नाक वाले लोग रहते थे। उनका रंग साफ़ था। उनकी बोली अलग थी। उनके रीति-रिवाज भिन्न थे। वे यहाँ के ‘धरती-पुत्र’ थे। जबकि हम ‘बाहरी’ थे।
आप कहीं चालीस साल रहते हैं। आप वहाँ की भाषा-बोली, वहाँ के रीति-रिवाज, वहाँ की संस्कृति सीखते हैं। आप को वहाँ के लोग, वहाँ की मिट्टी अच्छी लगने लगती है। आप ‘वहीं का’ होकर रहना चाहते हैं। आप चाहते हैं कि आकाश जितना फैलें, समुद्र भर गहराएँ, फेनिल पहाड़ी नदी-सा बह निकलें। पर चूँकि आप ‘बाहरी’ हैं, इसलिए आपको हथेली जितना भी नहीं फैलने दिया जाता, अँगुल भर भी नहीं गहराने दिया जाता, आँसू भर भी नहीं बहने दिया जाता। आपकी पीठ पर काँटों के जंगल उग जाते हैं, जहाँ आपको मिलती हैं केवल मरी हुई तितलियाँ और झुलसे वसंत। आप पाते हैं कि आप किसी आग की झील में हैं जहाँ सर्पों के सौदागर रहते हैं।
फिर यहाँ के ‘बाहरी’ लोगों के ख़िलाफ़ पहली बार दंगा हुआ और हमारे भीतर-बाहर कई कश्मीर, कई गुजरात, कई बोस्निया, कई फ़िलिस्तीन घट गए। तब हमें यह निर्णय लेना पड़ा कि क्या हम दूसरे दर्ज़े का नागरिक बन कर यहीं रहें और दंगों की भेंट चढ़ जाएँ या अपने हिस्से की धूप, अपने हिस्से की हवा, अपने हिस्से का आकाश तलाशने कहीं और जाएँ? हम भाई-बहन बाहर निकल गए। इस घुटन और यंत्रणा से दूर। लेकिन पिताजी ने माँ के साथ यहीं रहने को चुना। हम सब ने बहुत समझाया- पिताजी, अब यहाँ क्या रखा है? हमारे साथ चलिए। हम भाई-बहनों का यहाँ से मोह-भंग हो चुका था। एकाध अपवाद को छोड़ दें तो जिनके साथ खेले-कूदे, जिनके बीच पले-बढ़े, वे ही आज आपके ख़ून के प्यासे बन गए थे।
जब पड़ोसी ही आपके ख़ून का प्यासा बन जाए तो उस जगह रहने की क्या तुक है?
पर पिताजी नहीं माने।
“मैंने अपने जीवन के अमूल्य वर्ष यहाँ की धरती को दिए हैं। यह मेरी कर्म-भूमि रही है। इन लोगों के बीच ही मेरा जीवन गुज़रा है। मुझे इस धरती से प्यार है। यहाँ की हवा, पानी, मिट्टी से प्यार है। यहाँ वाले चाहे मुझे जो मानें, अब मुझे यहीं जीना-मरना है। बच्चो, तुम लोग जाना चाहो, जाओ। मैं तुम्हें नहीं रोकूँगा। पर मुझे और अपनी माँ को यहीं रहने दो।” पिताजी ने कहा था।
पिताजी, आपने यहाँ बहुतों का भला किया। बहुत सारे यहाँ वाले आप को सीढ़ी बनाकर ऊपर चढ़ गए। यहाँ बहुतों ने आपको पुल बनाकर मंज़िलें पाईं। पर पिताजी, आपकी अर्थी को कंधा देने ये नहीं आए। आप यहाँ चालीस वर्ष रहे।
आपने इन्हें अपना माना। आप इनके दुख-सुख में शरीक हुए। पर आपकी शव-यात्रा में शामिल होने ये नहीं आए। यहाँ वालों के लिए शुरू से अंत तक आप ‘बाहरी’ ही रहे पिताजी। केवल दूसरे दर्ज़े के नागरिक!
मकान का सौदा हो चुका है। राहुल बेहद उदास है। भीतर कहीं मेरे मन का एक कोना भी उदास है। एक रिश्ता है जो छूट गया है। एक बंधन है जो टूट गया है। मुझे माफ़ कर दीजिएगा, माँ-पिताजी। मुझे माफ़ कर देना मेरे शहर।
सामान ट्रक में लादा जा चुका है। पिताजी की लाइब्रेरी साथ ले जा रहा हूँ। किताबों में पिताजी की आत्मा बसती थी।
चलने से पहले एक भरपूर निगाह मकान पर डालता हूँ। ऐ मेरे मन, रोना नहीं, रोना नहीं- खुद से कहता हूँ।
ट्रक चल पड़ा है। पीछे-पीछे कार। अब हम गली से बाहर आ गए हैं।
“पापा, क्या अब हम यहाँ कभी नहीं आएँगे?” राहुल उदास स्वर में पूछ रहा है।
चलते समय पड़ोस में रहने वाले बूढे बाबा लाठी टेकते हुए मिलने आ गए थे। “जा रहे हो बेटा? मकान बेचकर तुमने अच्छा नहीं किया।” उन्होंने कहा था। “ख़ैर! यह तुम्हारा अपना शहर है। कभी-कभार आते रहना।”
– सुशांत सुप्रिय