सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम्। (किरातार्जुनीयम् @ महाकवि भारवि) अर्थात हमें अचानक आवेश या जोश में आकर कोई काम नहीं करना चाहिए। क्योंकि विवेक हीनता सबसे बड़ी विपत्तियों का कारण होती है।
भारत विश्व का सबसे युवा देश है। युवा पीढ़ी हर राष्ट्र की रीढ़ है। उनका मनोबल, उनकी क्षमताएं, उनका साहस असीम है। युवाओं के इस जोशीले अंदाज का फायदा समाज को हमेशा ही आंदोलन, युद्धभूमि, देश को विकसित करने की राह पर मिला। विश्व में किसी भी युद्ध का इतिहास उठाकर देखें तो युद्ध में युवाओं के कारण ही जीत का परचम लहरा पाया है। भारत में आजादी के वक्त युवाओं ने अहम रोल निभाया था। भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु जैसे अनेक युवाओं के कारण ही भारत को आजादी मिली। विश्व में कई ऐसे युवा संगठन रहे हैं जिन्होंने अपने देशों में बदलाव लाने में बड़ी भूमिका अदा की। लेकिन आज भारत में युवाओं की स्थिति असंतोषजनक है।
किसी भी राष्ट्र का भविष्य वहां के युवाओं से तय होता है। आंखों में उम्मीद के सपने, नयी उड़ान भरता हुआ मन, कुछ कर दिखाने का दमखम और दुनिया को अपनी मुट्ठी में करने का साहस रखने वाला ही एक युवा की सही तस्वीर पेश करता है लेकिन मौजूदा समय पर समाज में जिस प्रकार की घटनाएं सामने आ रही हैं उससे राष्ट्र निर्माण में महती भूमिका अदा करने वाला युवा दिग्भ्रमित नजर आ रहा है और तेजी से अपराध को दुनिया में अपना वजूद तलाश रहा है।
निराशाओं के चलते आज की युवा पीढ़ी असंतोष से भरती जा रही है। असंतोष का कीड़ा बचपन से ही एक बच्चे के दिल में पनपने लगा है। हार के डर से, इच्छाओं के पूरे न होने के डर से, दबाए जाने के डर से उनकी मनोस्थिति कुछ इस प्रकार की बन रही है कि वह हर कार्य को नकारात्मक रूप से देखने लगे हैं। युवा पीढ़ी में न केवल जोश व उत्साह होता है बल्कि उनमें नए विचारों की सृजनात्मक व परिवर्तन लाने वाली दक्षता भी होती है। हमारे देश की कुल आबादी का लगभग 65 प्रतिशत युवा है जो 35 वर्ष की आयु से कम है। हमारे मेहनती और प्रतिभाशाली युवाओं को यदि सही दिशा दी जाए तो यह भारत को हर क्षेत्र में अग्रणी बना सकते हैं।
यदि हम विगत कुछ वर्षों में देश की घटनाओं पर नजर दौड़ाएं तो स्पष्ट होता है कि हत्या, लूट, बलात्कार, चोरी, डकैती, ब्लैक मेलिंग, साइबर क्राइम जैसे अपराधों का ग्राफ लगातार बढ़ रहा है और युवा जिस प्रकार से इन घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं, उससे इन अपराधों पर लगाम लगने की कोई सूरत नजर नहीं आ रही है। किसी भी सभ्य समाज के लिए यह निश्चित रूप से चिंताजनक स्थिति है, लेकिन इससे भी अधिक भयावह है अपराध के दलदल में ऐसे लोगों का धंसना जो न तो पेशेवर अपराधी हैं और नहीं अपराध करना उनके लिए कोई मजबूरी है।
आज कल जैसे अपराध हो रहे हैं उनके पीछे कोई ठोस वजह नजर नहीं आती। कभी-कभी तो युवा सिर्फ दिखावे व समाज में अपनी ताकत दिखाने के लिए अपराध को अंजाम दे रहे हैं। इनमें कुछ ऐसे भी लोग होते हैं जो उच्च वर्ग से प्रभावित होकर, उनके जैसा दिखने, रहने और करने के लिए ही अपराध की दुनिया को अंगीकार कर लेते हैं। इनके पास पर्याप्त आर्थिक समृद्धि है और सामाजिक सम्मान भी, और वे अपराध करने के लिए मजबूर नहीं हैं, फिर भी शहरी क्षेत्र में घटने वाले अधिकांश अपराधों में इनका हाथ क्यों है ?
युवाओं में लक्ष्यहीनता के साथ साथ नशे की बढ़ती प्रवृत्ति भी जिम्मेदार है। कोविड संक्रमण काल के बाद युवाओं को अपना लक्ष्य तय करने में मुश्किलें हो रही हैं और सरकार द्वारा किए गए रोजगार के इंतजाम भी नाकाफी साबित हुए हैं जो युवाओं को दिशाहीन बना रहे हैं। दिशाहीनता की इस स्थिति में युवाओं की ऊर्जा का नकारात्मक दिशाओं की ओर मार्गान्तरण व भटकाव हो रहा है। लक्ष्यहीनता के माहौल ने युवाओं को इतना दिग्भ्रमित कर दिया है कि उन्हें सूझ ही नहीं रहा कि करना क्या है, हो क्या रहा है, और आखिर उनका होगा क्या? धैर्य की कमी, आत्मकेंद्रिता, नशा, लालच, हिंसा, कामुकता तो जैसे आज उनके स्वभाव का अंग बन गई है। इसके लिए फिल्मों व ओटीटी प्लेटफार्म पर हिंसा व अश्लीलता को महिमामंडित करने वाले कार्यक्रम भी जिम्मेदार हैं।
गहराई से देखें तो इसके पीछे संस्कारहीनता और अहंकार है, जो इन्हें अपनी मर्जी के खिलाफ कुछ भी बर्दाश्त नहीं करने देता। ये अपनी मर्जी से संचालित होते हैं। कोई क्या कर लेगा, का गुमान हमेशा उनके चेहरे और व्यवहार में झलकता है जिस पर कभी कोई ध्यान नहीं देता। इसमें इनका दोष भी नहीं है। समाज ने ही इस तरह के व्यवहार, समृद्धि, ताकत, जोड़ तोड़ की राजनीति और चालाकी को सफलता के पैमाना के रूप में स्वीकार कर लिया है।
इस वर्ग की बालाओं का हाल भी जुदा नहीं होता, उन्हें भी शॉपिंग की आजादी चाहिए, जागरूकता और आधुनिकता के नाम पर समय-असमय घूमने की आजादी चाहिए, कम से कम एक ब्वाय फ्रेंड तो होना ही चाहिए जिसके साथ वे डिस्को पार्टी में जाकर थिरक सकें। जब उनके सामने सफलता के मायने ज्यादा से ज्यादा धन और ज्यादा से ज्यादा रोब-रुतबे के रूप में प्रस्तुत किए जाएंगे तो फिर वे तो भ्रमित होंगे ही। जब उन्हें पता होगा कि उनके आसपास के माहौल में सही को गलत और गलत को सही कैसे बनाया जाता है, कानून को अपने पक्ष में कैसे किया जाता है,पुलिस और न्याय को कैसे खरीदा जाता है, बड़े से बड़े अपराध करके कैसे सुरक्षित रहा जा सकता है तो फिर वे किस बात से डरेंगे?
अपराध को बढ़ावा देने वाला एक और पहलू है, जिसे स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आजादी से जोड़ दिया गया है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर फेसबुक और ट्विटर जैसी सोशल साइट पर अश्लीलता और अभद्रता पटी पड़ी है। छोटे-बड़े का लिहाज भूलकर लोग वो सब कुछ लिख और पढ़ रहे हैं जो केवल विचारों को दूषित ही करता है। इसमें ढेरों बड़े अच्छे घराने और ऊंचे दर्जे के लोग भी शामिल हैं। आज का युवा सोशल मीडिया का इतना गुलाम हो गया कि वह फेसबुक, व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम, ऑनलाइन गेम्स को ही वास्तविक दुनिया मान बैठता है। उसके सामने कई बार ऐसे भटकाव वाले सीन खुल जाते हैं जो उसके मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं। यद्यपि मीडिया नकारात्मक और सकारात्मक दोनों प्रभाव लिए होता है परन्तु युवा अनभिज्ञता के कारण नकारात्मकता को ही अपने पर हावी कर बैठता है। वह सोशल मीडिया को सच मानकर अपने निर्णय लेने लगता है।
आजकल के युवा चाहे वे किसी भी धर्म के मानने वाले हों वो बिना सोचे समझे भड़काऊ बयानबाजी करने वाले राजनेताओं या धर्मगुरुओं, मौलवियों को ही अपना सबकुछ मान बैठते हैं। वे उनके द्वारा की गई टिप्पणियों को सत्य मानकर कट्टरता बढाने लगते हैं। आजकल इन अनर्गल बयानबाजी के चक्कर में वे हिंसक घटना को अंजाम देने को उतारू हो जाते हैं और धार्मिक उन्माद पर उतारू होकर जघन्य अपराध कर बैठते हैं।
वर्तमान समय में समाज में आस्था के नाम पर उग्रता बढ़ी है। रामनवमी हो या नवरात्री, रमजान हो या ईद समाज में, देश में धार्मिक उन्माद बढ़ा है। इसके पीछे कहीं न कहीं राजनीति भी शामिल है। देश में सामाजिक सौहार्द और उग्रता बढ़ी है।
जब हम भारत में पिछले 8-10 चुनावों को देखते हैं या कहे कि 1950 के दशक के बाद से धर्म का प्रयोग राजनीति करने में हुआ है। लोगों को धर्म की भावनाएं तभी समझ में आती हैं जब चुनाव आता है। ऐसा क्यों होता है, इसे जानने और समझने की भी जरूरत है। अंग्रेजी में एक कहावत है ‘बर्निंग एंड चर्निंग प्रॉब्लम’, यानी धर्म एक ऐसा पहलू है जिसे आप भुना सकते हैं। एक विचारधारा ने उसको अपने लिए इस्तेमाल किया। उसने यह डर दिखाया कि अगर ये सत्ता में आ गये तो तुम्हारा नुकसान होगा। दूसरे ने भी यही काम किया, उसने कहा कि अगर तुम खड़े नहीं होगे तो हम तुमको कुचल देंगे। अभी के परिप्रेक्ष्य में यह हुआ कि लोगों में भय है और वे उग्र हो जा रहे हैं।
धर्म को लेकर कट्टरता की बात पुरानी है। मध्ययुगीन बर्बरता से होती हुई यह कट्टरता नये रूप में हमारे सामने उपस्थित हो रही है। कभी महात्माओं ने धर्म को परिभाषित करते हुए कहा था कि जो सहज है वही धर्म है। रामानंद ने कहा था ‘जाति-पाति पूछे न कोई/हरि को भजै सो हरि को होई’। यानी जो ईश्वर की स्तुति करता है वही ईश्वर का होगा। भारत के मध्ययुग में उभरे इस विचार ने आगे चलकर भक्ति आंदोलन का सूत्रपात किया। भक्ति आंदोलन ने ‘ईश्वर’ या ‘परमात्मा’ को सहज सुलभ होने की बात करते हुए कण-कण में उसकी मौजूदगी को रेखांकित किया। यह भक्ति आंदोलन पुरोहितों के पाखंड और धार्मिक कर्मकांड के विरुद्ध था। कबीर और तुलसी दोनों के विचार भले ही अलग-अलग रहे हों, लेकिन दोनों अपने विचारों में धर्म के पाखंड के विरुद्ध थे।
राजनीति में धर्म का प्रयोग नहीं होना चाहिए। राजनीति का अपना एक धर्म है ये अलग बात है। लेकिन किसी धर्म में राजनीति हो ये ठीक बात नहीं है। हम किसी चीज को जीरो नहीं कर सकते हैं। धर्मनिरपेक्षता का मतलब जो लोगों ने फैलाया वो ये कि किसी एक धर्म-विशेष को गाली देना। लेकिन ये तो ठीक नहीं है। इसका मतलब ये भी तो हो सकता है कि हम सभी धर्मों को बराबर देखें। सभी धर्मों का आदर करना। अभी राजनीति में क्या हो रही है कि धर्म शब्द की गलत व्याख्या कर दी जा रही है। हरियाणा के मेवात/ नूह के घटनाक्रम पर नजर डालें तो क्या हुआ।
धर्म के नाम पर ईश्वर की जो ‘सत्ता’ निर्मित की गयी है, वह ‘सत्ता’ किसी ‘ईश्वर की सत्ता’ नहीं है,बल्कि वह समाज के कुछ वर्गों की सत्ता होती है, जो अपना प्रभुत्व कायम रखने के लिए धार्मिक भावना का इस्तेमाल करते हैं। धार्मिक कट्टरता आज वैश्विक धरातल पर कई रूपों में उभर रही है। इसके पीछे सत्ता’ और ‘वर्चस्व’ की भावना निहित है। तुष्टीकरण और धार्मिक भावनाओं की खेमेबंदी ही ऐसी कट्टरता को जन्म देती है। आम आदमी के लिए सवाल यह है कि वह धर्म के नाम पर बढ़ती कट्टरता को किस तरह देखे?
जब कोई धर्मांध किसी व्यक्ति की हत्या करता है, तो क्या एक आम आदमी को धार्मिक तुष्टि मिलती है? क्या किसी संगठन के आतंकी रवैये से किसी सहज इंसान को यह महसूस होता है कि उसके धर्म की विजय हुई? सीधी सी बात है कि कोई भी धर्मावलंबी किसी की हत्या से उल्लसित नहीं होता है। सहज धार्मिक मन ऐसी घटनाओं से सबसे ज्यादा आहत होता है। एक सहज धार्मिक अपने धर्म पर आस्था रखता है, लेकिन वह दूसरे धर्म से घृणा भी नहीं करता। अगर वह दूसरे धर्म के प्रति घृणा भाव से अपने धर्म के प्रति आस्था रखता है, तो वह धर्म की भावना से नहीं, बल्कि धर्म की राजनीति से प्रेरित है। धर्म की राजनीति बहुत महीन होती है।
हिंदू समाज के लिए यह शुभ संकेत नहीं है कि उसके अंदर भी कट्टरपंथियों का समूह उभर रहा है। उसे ऐसे कट्टरपंथी समूहों को चिह्नित करना होगा, जो अपनी ‘अस्मिता’ के खतरे बताकर दूसरे समूहों को शत्रु के रूप में प्रचारित कर रहे हैं। उसे धर्म की सहज भावना के साथ खड़ा होना होगा। आज किसी भी धर्म के अंदर कट्टरता और उदारता के विचार को पहचानने की जरूरत है। ऐसा करके ही हम धर्म की सत्ता का राजनीतिक इस्तेमाल करने वालों को बहिष्कृत कर सकते हैं और खुद को उन्मादों की भीड़ से अलग कर सकते हैं।
याद रखें प्रवाह हमेशा नीचे की ओर होता है, जब इन जैसे लोग ऐसी हरकतें करते हैं, तो लोग इसे आसानी से ग्रहण करने की कोशिश करते हैं। वर्तमान में जिस तरह से नंगेपन को महिमा मंडित किया जा रहा है वह सर्वथा अस्वीकार्य होना चाहिए। बिगड़ैल युवाओं और स्वयं के बेलगाम और बेशर्म विचारों पर तहजीब का अंकुश लगाना होगा।
कहा जाता है कि कोई भी पेड़ तब तक ही जीवित रह पाता है, जब तक वह अपनी जड़ों से जुड़ा रहता है। समाज में व्यक्ति की वे जड़ें संस्कृति है, जिससे जुड़ा रहना व्यक्ति के लिए आवश्यक होता है। संस्कृति से कटा हुआ व्यक्ति कटी डोर की पतंग की भांति होता है, जो उड़ तो रहा होता है लेकिन मंजिल व रास्ता तय नहीं होता, न ही पता होता है कि वह कहां जाएगा। ऐसे में कहा जा सकता है कि यदि समाज की मौजूदा परिस्थितियों से निपटना है तो सबसे पहले सफलता की परिभाषा बदलनी होगी।