मौजूदा दौर में प्रकृति और पर्यावरण का संकट गहरा रहा है। इसके कारण हमारे सामने एक बुनियादी सवाल उपस्थित है कि मौजूद आधुनिक-उत्तराधुनिक दौर का अगला चरण क्या होगा? क्या अब कह सकते हैं कि हम “हरित सभ्यता’ (ग्रीन सिविलाइजेशन) के मुहाने पर आ खड़े हुए हैं? बहुत-सी ऐसी परिघटनाएं हैं, जिनकी ओर ध्यान देंगे, तो पाएंगे कि हमारे समय में हरित सभ्यता के बीज अंकुरित और पल्लवित होने आरंभ हो गए हैं। हमारे समय में जीवन को बचाने का सवाल केंद्र में आ गया है। अब हम पूछ सकते हैं कि हमारे मौजूदा दौर के आधुनिक-उत्तराधुनिक होने का नतीजा क्या निकला? क्या वह यह नहीं था कि मानवजाति, ईश्वर केंद्रित होने की मध्यकालीन मनःस्थिति से बाहर आकर, पहली दफा “मनुष्य केंद्रित’ होने की ओर आगे बढ़ी थी। पर अब जो अगला दौर सामने आने को है, वह ‘मनुष्य’ को भी केंद्र से हटा देगा। अब वह सीधे “जीवन’ को केंद्र में लाकर बिठाने की तैयारी करेगा।
सभ्यता के आधुनिक-उत्तराधुनिक विकास चरण में विज्ञान के अभूतपूर्व विकास के कारण मानवजाति की ‘विश्व दृष्टि’ में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ था। हमारी जो दृष्टि ‘पृथ्वी के इर्द-गिर्द घूमते सूर्य’ से संबंध रखती थी, वह अब “सूर्य के इर्द-गिर्द घूमने वाली पृथ्वी’ की दृष्टि के रूप में उलट गई। अब पृथ्वी का ‘अपनी धुरी पर घूमना’ अधिक अर्थपूर्ण हो गया। विज्ञान की आंख से अब हम नए सत्य खोजने निकल पड़े। “श्रम’ का महत्व पहचाना गया और “उत्पादन” की सामर्थ्य विकास का पैमाना हो गईं। ‘मानव की उत्पत्ति’ के ‘दैवीय’ होने का मिथक टूट गया। शब्द में परम-अर्थ की तरह वह जो ब्रह्म आसन जमाए बैठा था, उसकी जगह ‘स्व’ शब्द महत्वपूर्ण हो गया और उसके साथ महत्वपूर्ण हो गईँ, स्व के भीतर मौजूद हजारों अर्थ-संभावनाएं। “मनुष्य को जानने-समझने की कोशिश में हम उसके “जीन्स’ तक चले गए। पर “जीन्स’ की दुनिया बड़ी जल्दी मनुष्य तक सीमित न रह कर, समग्र जीवन-क्रम की ओर रुख करने लगी। फिर मनुष्य केंद्रित विकास की आधुनिक-उत्तराधुनिक अवधारणा; यंत्र, तकनीक और उच्च-तकनीक पर आधारित हो गयी। वह प्रकृति के तमाम संसाधनों को मनुष्य के उपभोग की वस्तुओं में बदलने की ओर आगे बढ़ी। पर उसने आखिरकार खुद मनुष्य को भी एक उपयोगी संसाधन बना दिया। मनुष्य के विकासशील और प्रगतिशील होने का पैमाना यह हो गया कि वह कितना बेहतर “मानव संसाधन” है। यहां तक कि स्वतंत्रता, आनंद और मानवीय भाव तक, मनुष्य की आंतरिक प्रकृति के उद्घटित होने की तरह नहीं, उसके द्वारा अर्जित सुविधाओं की वजह से संभव हो सकने वाली वस्तु हो गए। इसका नतीजा यह निकला कि प्रकृति के संसाधनों के अक्षय होने का मिथक खंडित हो गया।
इस वजह से प्रकृति और पर्यावरण के संकटग्रस्त हो जाने की अभूतपूर्व स्थिति सामने आई। मनुष्य को पहली दफा यह अहसास हुआ कि अगर एक बुद्धिमान प्रजाति के रूप में पृथ्वी पर बचना है, तो उसे यहां मौजूद तमाम जीवन रूपों की आपसदारी के साथ बचाना होगा। जीवन अगर संकट में पड़ता है, तो वह तमाम जीवन रूपों पर घिरने वाला संकट है। ऐसा संकट, जहां मनुष्य किसी अन्य प्रजाति से न बेहतर है, न कमतर। वह बस एक अन्य जीवन रूप है। और चूंकि प्रकृति और जीवन को संकटग्रस्त बनाने के लिए वह खुद मुख्य रूप में जिम्मेवार है, इसलिए इन्हें बचाने के प्रयासों में भी, उसी की भूमिका सर्वोपरि होने वाली है। आज जिसे हम “हरित जीवन शैली’ में वापसी की बात कह सकते हैं, वह अब मानव जाति की उस कोशिश का पर्याय नहीं रह गई है, जिसका मकसद मानव जाति को बुनियादी कुदरती जीवन-शैली में लौटने से जुड़ा था। अब वह मनुष्य के जीवन के ही संकटग्रस्त होकर खो जाने की आशंकाओं के निस्तारण की बात हो गई है। मानव जाति अब इस सच के करीब पहुंच रही है कि जीवन अपने आप में एकमात्र बुनियादी सच है, जिसे बचाना जरूरी है। हम पहली दफा “जीवन के लिए जीवन’ के अर्थ को समझने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं।
अतीत में हमने सच को पाने के जो रास्ते बनाए थे, वे सभी अंततः हमें ऐसे सच तक ले गए, जिन्हें हम जीवन से बड़ा सच कह सकते हैं। उस क्रम में हमने आत्मा, ईश्वर, धर्म, अध्यात्म, साथना और पूजा पद्धतियों जैसी चीजों को खोजा था। जीवन विविध रूपों में, प्रचुर मात्रा में सब ओर विद्यमान था। इसलिए प्रकृति में लौटते हुए लगता रहा कि हमें या तो प्रकृति से बड़े सच को खोजना है, या उस पर विजय पानी है। इन दोनों रास्तों के बीच से होकर वह जो तीसरा रास्ता निकलता था, उस पर हमारी निगाह पड़ती तो थी, पर टिकती न थी। वह रास्ता था, स्वयं जीवन पर केंद्रित होने का।
पृथ्वी पर जीवन के ही संकटग्रस्त हो जाने के मुख्य कारण क्या हैं? अक्सर इसके लिए पूंजीवादी औद्योगिक क्रांति और नगरीकरण के अंधाधुंध विकास को सीधे निशाने पर रखा जाता है। पर एक अन्य कारण भी है। उसका संबंध हरित क्रांति और हरित राजनीति के आधुनिक और उत्तराधुनिक रूपों से है। कृषि के संकटग्रस्त हो जाने की एक वजह उसके जीवन केंद्रित न बने रह सकने से जुड़ी है। उद्योगीकरण के कृषि क्षेत्र में भी दखल देने से जो हालात पैदा हुए हैं, उनके कारण हरित क्रांति और हरित राजनीति तक, जीवन को बचाने वाली न रह कर, उसे नष्ट करने वाले बाजार तंत्र के खेल में बदल गईं है।
हम कृषि संस्कृति और हरित क्रांति तक के संकटग्रस्त हो जाने के समय में जी रहे हैं। इसलिए वनवासी अतीत और मौजूदा दौर की हरित जीवन-शैली को विकास की कड़ियों की तरह देखने का वक्त आ गया है। हमारे वक्त में महत्वपूर्ण है, कृषि और जंगल को बचाने से ताल्लुक रखने वाली हरित जीवन-शैली का एक नई शक्ल में लौटना। मध्यकाल तक कृषि संस्कृति विकासोन्मुख थी, पर आधुनिक काल के आरंभ होते ही इस पर संकट के बादल गहराने लगे। उधर नगरीकरण का अभूतपूर्त विस्तार हुआ, कृषि पर निर्भर गांव नए बाजार के व्यावसायिक दबाव को झेल न पाने की वजह से लगातार अजनबीपन का शिकार होते गए। पर जिसे हम हरित संस्कृति का संकट कह सकते हैं, उसका संबंध मुख्यतः नगरों से है। उद्योगीकरण के कारण नगर कंक्रीट के जंगलों में बदलते हैं। प्रकृति से उकी अलहदगी उन्हें हरित जीवन-शैली में वापसी के लिए पुकारती दिखाई देने लगती है। बाजार से पिछड़ रहे गांव को विकसित करने के लिए प्रयास किए जाते हैं।
किसानी को एक नई हरित क्रांति की ओर मोड़ा जाता है। पर आधुनिक तौर-तरीकों से खेती-बाड़ी की स्थिति सुधारने की कोशिश गांव को जिस तरह की हरित क्रांति की ओर ले जाती है, वह वहां की कृषि संस्कृति को प्रभावित तो करती है, रूपांतरित नहीं करती। यानी हम हरित क्रांति तक तो पहुंचते हैं, पर वह हमारी ‘हरित जीवन शैली’ नहीं बन पाती। अब हालात ये हैं कि हरित जीवन-शैली शहरी मध्यवर्ग की जरूरत अधिक है। उद्योगीकरण की वजह से बढ़ते प्रदूषण के कारण प्रकृति को बचाने की जरूरत शहरों को इसलिए अधिक है, क्योंकि वहां रहने वालों के लिए अब सांस तक लेना दूभर होता जा रहा है। पर हरित जीवन-शैली, हमारी सामान्य जीवन-शैली तभी बनेगी, जब नगर और गांव मिल कर इसे, अपनी साझी जीवन-शैली बनाएंगे।