हम भारतीय बड़े भावनात्मक लोग हैं। हम सपनों की दुनिया में जीने वाले लोग हैं। हर सुबह एक नई उम्मीद के साथ शुरू करने वाले लोग हैं। हम सपनों का सिरा पकड़ पूरी चादर ओढ़ खिलखिलाने वाले लोग हैं। जो भी हमारा हाथ थाम हमें उस दुनिया के द्वार तक ले जाए, हमारे दिल उसके लिए धड़कने लगते हैं। अनगिनत अपेक्षाएं जुड़ जाती हैं। उस पर जान उड़ेल देते हैं और अपनी हर प्रार्थना में वह एक नाम शामिल रहता है। इस बार वह नाम था, टीम इंडिया का! और क्यों न हो! हमारी टीम इस विश्वकप में अपने अद्भुत, अजेय प्रदर्शन से हम सभी को गौरवान्वित करती रही है। हमारा विजय रथ आगे बढ़ता जा रहा था और विश्वकप से महज एक मैच भर की दूरी बची थी। इधर आस्थाएं भी जोर पकड़ रहीं थीं, ज्योतिषियों-पंडितों ने भविष्यवाणी कर दी, मीडिया हाउस विजय पताका लगभग फहरा ही रहे थे, राजनीति ने भी पूरी तरह से बिसात बिछा रखी थी और पूरे देश की आँखें जिस दिन का बेसब्री से इंतज़ार कर रहीं थीं; वह सामने था कि अचानक जैसे सब कुछ बिखर गया।
एक लाख से भी अधिक लोगों की उपस्थिति के बाद का यह भीषण सन्नाटा, जैसे हमारी रूह में उतर गया है। मैच के दौरान ही यह स्तब्धता जोर पकड़ चुकी थी, मन कुनमुनाने लगा था। हाथ बंधे से रह गए और तालियों को तरसते कानों की बेचैनी अपने चरम पर थी। उदासी गहरा रही थी, निराशा हवाओं में घुल चुकी थी। एक जादू की संशय भरी प्रतीक्षा थी और दिल किशोर कुमार की इस आवाज के ग़म में डूबने लगा था –
मंज़िलों पे आके लुटते हैं दिलों के कारवाँ
कश्तियां साहिल पे अक्सर, डूबती हैं प्यार की
क्रिकेट हमारा प्यार है, इस देश का धर्म है। हमारे देश की आत्मा में बसा है। आप भारत की बात करेंगे तो क्रिकेट स्वयं विषय बन उस चर्चा में शामिल होगा। क्या करें! हम भारतीयों ने यही समझा-जाना और जिया है। सभी खेल बहुत अच्छे हैं पर क्रिकेट हमको जान से प्यारा है तो है।
न जाने क्या हुआ कि हम पूरी राह सही चले और आखिर में लड़खड़ा गए! हमने सफ़र का पूरा आनंद लिया पर मंज़िल न पा सके! यह मलाल तो अब पीढ़ियों तक रहेगा। इसमें ऐसी अनेक कहानियाँ भी जुड़ेंगी कि कैसे एक- एक टिकट को किसी भी मूल्य पर पाने की होड़ मची थी, और होटलों ने कैसे एक दिन के दसियों हजार से लाख तक वसूल दोबारा दीवाली मना ली थी। यात्राओं और रेल-हवाई टिकटों का अविश्वसनीय मूल्य भी इन गाथाओं में स्थान पाएगा। लेकिन इस सबके साथ विश्वकप फाइनल मैच हारने का दुख और भी गहराता चला जाएगा।
खेल भावना अपनी जगह है और रहेगी। यह भी सत्य है कि खेल में हार-जीत तो लगी रहती है। लेकिन जीत के सुख के आनंद से वंचित हृदय इन भावनाओं को तुरंत स्वीकार नहीं कर पाता! एक ऐसा देश जहाँ का बच्चा-बच्चा क्रिकेट खेलता है, जहाँ लड़कों को बचपन से ही ये ताने सुनने को मिलते हैं कि ‘बड़ा आया, सचिन तेंदुलकर कहीं का! जा पढ़ ले थोड़ा सा!’ जहाँ की आबोहवा में गावस्कर, कपिल देव, सचिन, धोनी, विराट, रोहित की पीढ़ी तक के प्रशंसक अभी साँसें ले रहे हैं, जहाँ यह एक खेल नहीं, इमोशन है; उस देश की जनता का उतरा हुआ मुँह यह बयां कर देता है कि हमारे लिए जीत के क्या मायने हैं!
संभवतः यह हमारा दिन नहीं था। हमारे खिलाड़ियों से शिकायत करना न्यायसंगत नहीं होगा। सच तो यह है कि उनके आँसुओं से भरे चेहरों में हमारे दुख की नमी भी शामिल है और हमारे चेहरों से इन खिलाड़ियों का ट्रॉफी न उठा पाने का गहरा अफ़सोस छलकता है।
ऑस्ट्रेलिया ने अपना सर्वश्रेष्ठ दिया और जीत अपनी झोली में डाल ली। इसके लिए निस्संदेह वे बधाई के पात्र हैं। स्टेडियम में बैठे उनके हजार प्रशंसक, हम लाखों पर भारी पड़ गए। अगर मुझे ठीक से याद है तो इनके कप्तान ने यह कहा भी था कि ‘स्टेडियम, भारत के साथ रहेगा पर हम अपने खेल से उन्हें चुप करा देंगे। कंगारुओं ने यह कर दिखाया।’ ये चुप्पी हम भूल नहीं पाएंगे।
इतिहास रचा जा चुका है। अब रह-रहकर इस हार का दुख उफ़ान मारेगा, मन कचोटता रहेगा और हम फिर एक बार नए सिरे से खुद को तैयार करेंगे। हमें हमारे खिलाड़ियों के साथ एक नई आश्वस्ति से आगे बढ़ना होगा क्योंकि हम उनकी क्षमता जानते हैं। उनके दमखम पर हमें रत्ती भर भी संदेह नहीं। हम भारतीयों का स्नेह और दुआ सदा उनके साथ है। यूँ भी हम ठहरने वाले लोग नहीं। टूटते हैं, बिखरते हैं और एक नई मुस्कान लिए ज़िंदगी से गलबहियाँ करने को फिर उठ खड़े होते हैं।
चलते-चलते: हार-जीत से इतर कुछ बातें और भी हैं –
* विजय प्राप्ति के लिए कई स्थानों पर बड़े जोर-शोर से पूजा हुई। जानते हैं कि हम नदी, धरती, पेड़, पहाड़, हवा, पानी, पक्षी, जीव-जन्तु अभिनेता, नेता सबको पूजने वाले देश के नागरिक हैं लेकिन स्वार्थपूर्ति के लिए ईश्वर की उपासना करना तो हमारी संस्कृति का हिस्सा नहीं। यह तो ईश्वर को निर्देशित करने जैसा हुआ कि देखिए हम यह लक्ष्य साध, पूजा कर रहे हैं! अब आगे आप देख लीजिएगा। क्या ही अच्छा हो कि हम निस्वार्थ भाव से प्रार्थना करें, कर्म पर विश्वास रखें और सफलता मिलने पर हाथ जोड़, ईश्वर को विनम्रता से धन्यवाद देना न भूलें।
* माना कि यह खेल हमारी रगों में लहू बनकर दौड़ता है पर तब भी हमें इसे राष्ट्र गौरव से इतने उन्मादी भाव से नहीं जोड़ना चाहिए जैसा कि कुछ चैनल हर बड़े मैच में करते हैं। इतनी हायतौबा मचाकर रखते हैं कि दर्शकों का सिर फटने लगता है। खिलाड़ियों का तो क्या ही हश्र होता होगा!
* ऐसा कुछ भी न किया जाए जिससे खिलाड़ियों पर अनावश्यक रूप से मानसिक दबाव बढ़े और वे स्वाभाविक प्रदर्शन कर पाने में असहज अनुभव करें! आप कह सकते हैं कि उन्हें हर मानसिक परिस्थिति में संयमित रहना आना चाहिए। जी, अवश्य आना चाहिए। लेकिन अपने यहाँ यह तनाव अलग ही स्तर का होता है। नाक की बात, इज़्ज़त की बात और भी जाने क्या-क्या! इसलिए उन्हें बस खेलने देना चाहिए और मैच के बाद जी भर गले लगा लेना चाहिए।
खेलो इंडिया, खूब खेलो!
आपके साथ पूरे देश का स्नेह है।