संवेदनशीलता का अर्थ होता है दूसरों की परिस्थिति और भावनाओं का सम्मान करना। यहां “दूसरों” से मेरा आशय बहुत विस्तृत है। दूसरे न केवल मनुष्य अपितु इसमें सब चर-अचर जीव, जन्तु पदार्थ शामिल हैं। सभ्यता के विकास और वैज्ञानिक प्रगति ने मनुष्य को अहंकारी और स्वार्थी बना दिया है। सभ्यता के प्रारम्भ में हम प्राकृतिक शक्तियों का सम्मान करते थे, पूजा करते थे, पोषण करते थे। भोगवादी संस्कृति के उत्थान और एकात्मवाद के कारण यह असंवेदनशीलता बहुत अधिक बढ़ गई है। हमारे निजी स्वार्थ मानवीय मूल्यों और संबंधों से अधिक मूल्यवान हो चुके हैं। इसीलिए किसी अन्य के जीवन का कोई मूल्य नहीं। पर्यावरण, नदी, जल स्रोत, वायु, पृथ्वी को दूषित करते हुए कुछ नहीं सोचते। विज्ञान ने मानव जीवन को नष्ट करने के लिए काफी तरक्की कर ली है। किन्तु मानवता को बचाए रखने के लिए बहुत काम किया है।
यों तो जीवन तब से प्रारंभ हो जाता है, जब से हम पहली बार अपने नेत्र खोलते हैं, और समाज का अवलोकन अपनी नन्ही आँखो से करते हैं। मगर मैं बात करूँ शिक्षा की तो आप कहेंगे, “अरे ये अभी बच्चा है अभी इसके दिन ही क्या हुए कि ये शिक्षा लेगा ” यह कथन भी सही है, मगर मै तो कहूँगा शिक्षा की नींव बाल्यावस्था में ही रख दी जाती है जब हम समाज के बीच आते हैं, और वो नींव है “संस्कार” की। कहते हैं न “शिक्षा अगर स्तम्भ है तो नींव हैं संस्कार, सदाचार सुख की खान है जिस पर टीका संसार। यो तो शिक्षा और संस्कार के अर्थ अलग-अलग हैं, मतलब अलग अलग हैं, मगर उद्देश्य एक -चरित्र के साथ जीवन का विकास।
शिक्षा जहाँ जीवन का विकास करती है वही संस्कार गुण, चरित्र का। अगर दोनों को मिला दे तो वही बात बन जाती है जिसे हम सामाजिक विकास कहते हैं, वही शिक्षा का लक्ष्य सुन्दर चरित्र है, जिसे हम अपने जीवन जीने में रोशनी लाने का कार्य करते है वही संस्कार हमारे अंदर संस्कृति, परम्परा, भाईचारा और एकता को प्रज्ज्वलित करता हैं, और यह संस्कार हम भारतीयों की पहचान हैं। बड़ों का आदर करना, स्त्रियों की रक्षा करना, शिक्षक के प्रति आदर का भाव रखना, छोटों के प्रति प्यार, असहाय के प्रति सहाय का भाव, दया श्रद्धा यही तो संस्कार हैं जिसे हम बचपन से सीखते आ रहे हैं। संस्कार गुण को जन्म देता हैं और गुण हमरे विचार को। गुण को भी कहीं से पढ़ कर अपनाया नहीं जा सकता, इसे अपने समाज से, परिवार से प्राप्त किया जाता हैं।
21वीं सदी में विकास की दौड़ के साथ इंसानियत को पीछे छोड़ने की जो होड़ भारतीय समाज में देखने को मिल रही है, वह एक गंभीर सामाजिक संक्रमण की तरफ इशारा कर रही है। उच्च आदर्शों का दंभ भरता समाज उन आदर्शों को अपने आचरण में उतार नहीं रहा। और सवाल सिर्फ स्त्री पर होने वाले अत्याचारों का ही नहीं है, बल्कि संवेदनशीलता और मानवीय मूल्यों के चिंताजनक स्तर तक गिरने के प्रश्न भी मुंह खोले खड़े हैं। बढ़ती भौतिकतावादी प्रवृत्तियां और सब कुछ जल्द पा लेने की दौड़ ने मनुष्य से उसकी मानवीयता जैसी अनमोल भावना को छीन लिया है।
कार्ल मार्क्स ने धर्म को अफीम कहा था। वर्तमान दौर में सोशल मीडिया अफीम का काम कर रही है। ऐसे में आज भले हमारे सम्पर्क का दायरा बढ़ गया है, लेकिन दिलों में नफरत की खाई पनपती जा रही है और कहीं न कहीं सोशल मीडिया नफरत फैलाने का जरिया बनता जा रहा हैं। इतना ही नहीं यहां कई बार किसी अपराध की प्रकृति ऐसी होती है, जिसके जिम्मेदार लोगों को तो कानून के कठघरे में लाया जा सकता है, लेकिन उससे सामाजिकता की व्यापक छवि को जो नुकसान पहुंचता है, उसकी भरपाई आसान नहीं होती । इंटरनेट के विस्तार के साथ-साथ इसकी उपयोगिता से इंकार नहीं किया जा सकता, लेकिन इसके समांतर साइबर दुरुपयोग के जितने स्तर सामने आ रहे हैं, वे अपराधों का एक नया संजाल खड़ा कर रहे हैं।
ऐसे में देखें तो विज्ञान ने तरक्की तो बहुत कर ली है पर विज्ञान वरदान साबित होगा या अभिशाप? यह हमें ही तय करना है। विडंबना देखिए जिस तकनीक को मानव की भलाई के लिए ईज़ाद किया गया था आज वही नफरत का जरिया बन गया है। बाजारवाद के इस दौर में हर चीज बिकाऊ हो गई है।
दुनिया लगातार तरक्की कर रही है। विज्ञान लगातार चमत्कार कर रहा है। एक से एक तकनीकें आ रही हैं। विकास हो रहा है। लेकिन इन सबके बीच कहीं न कहीं इंसानों की संवेदनाएं मरती जा रही हैं। संवेदना के स्तर पर हम पत्थर होते जा रहे हैं। स्वार्थी होते जा रहे। मुझे क्या, मेरा क्या लेना-देना, यह भाव लोगों के जेहन में गहराई में उतरता जा रहा है। समाज के तौर पर हम कहीं न कहीं नाकाम होते जा रहे हैं। शहरीकरण से पहले ही सामाजिक ताना-बाना बिखर चुका है। लोग खुद में इतने मशगूल और खुदगर्ज हो गए हैं कि उन्हें आस-पास में क्या हो रहा उससे कोई फर्क ही नहीं पड़ता। लेकिन संवेदना सिर्फ शहरों में नहीं मर रही। गांवों में भी मर रही। कोई संकट में है तो क्या हुआ? कोई हादसे के बाद तड़प रहा है तो क्या हुआ? वे मदद की गुहार लगाते रहेंगे लेकिन हम तमाशबीन बने रहेंगे।
सोशल मीडिया ने इस समस्या को और अधिक विकट और विकराल बना दिया है। अब हमारी संवेदना और भावना केवल क्षणिक है, एक क्लिक तक सीमित हो चुकी है। एक दूसरे को जानने और समझने का समय कम होता जा रहा है। ऐसे जीवन में संवेदनशीलता कैसे पनपेगी। मैं, मेरा लाभ, मेरी समस्या, मेरा परिवार, मेरी सहूलियत, मेरा विचार, मेरे लिए सर्वोपरि है। तुम्हारी तुम जानो। जियो या मरो, मुझे क्या? यही असंवेदनशीलता है जो समय के साथ बढ़ रही है।
भारत विचित्रताओं का देश है। भारत में स्त्री देवी भी है और दासी भी है। महान वीरांगना भी है और दोषीजा डायन भी इसी समाज की देन है। स्त्री की कोख़ से जन्म लेकर पुरुष की मानसिकता इस कदर कुत्सित हो जाती है कि महज स्त्री या बच्ची के शरीर को देख लेने से उनके साथ बलात्कार करने की इच्छा जागृत हो जाती है। इस देश में पितृसत्ता जाति, धर्म से परे एक मानसिक बीमार पुरुष की कुत्सित मानसिकता का सूचक है।
कहने भर को तो आज हम सब उस सभ्य समाज में रहते हैं, जहाँ नारी को पुरुषों के बराबर समझा जाता है। पर सोचने की बात है कि कितनी सच्चाई इस बात के पीछे छिपी है, क्योंकि अगर सच में ऐसा है तो फिर नारी के प्रति शोषण/ उत्पीड़न के आंकड़े कम होने की बजाय लगातार क्यों बढ़ते ही जा रहे हैं? आखिर क्यों आज नारी हर जगह शोषण का शिकार हो रही है?
ठीक से पहुंच गई? ये सवाल हर बेटी ने, हर माँ ने, हर पत्नी ने, हर बहन ने कितनी ही बार सुना होगा। कभी भाई, कभी पिता, कभी पति के मुँह से। चिंता के भाव से लदे ये शब्द हर महिला ने सुने होंगे। किसी घर की बेटी जब असमय घर से निकलती है, तो घर से निकलने और मंजिल तक पहुंचने तक घर के पुरुष पूरी तस्दीक करते हैं कि वो सुरक्षित पहुँची या नहीं. क्यों? क्या वो जानते हैं कि बाहर किस मानसिकता वाले लोग घूम रहे हैं।
महिलाओं के प्रति पुरुषों की यह मानसिकता एक दिन की उपज नहीं है। यह हमारे पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक परिवेश में पुरुषों को वर्चस्ववादी बनाने के लिए लगातार किया जा रहा प्रयास है। हमारे समाज में माँ, बहन, बहू, बेटियां के रिश्तों का ये तालमेल सामाजिक सत्ता में स्त्रियों को कमतर समझने वाली श्रेणियां हैं। औरतों को स्वतंत्र इंसान के रूप में स्वीकार करना आज भी भारत में मुश्किल है। चूँकि हमारा समाज स्त्री अधीनता का हिमायती है इसलिए हमारे चुने हुए प्रतिनिधि में बलात्कारी से लेकर महिलाओं पर हिंसा करने वाले लोग बड़ी संख्यां में मौजूद हैं। यहाँ तक कि जब सुप्रीम कोर्ट के जज पर यौन उत्पीडन का आरोप लगता है तो वो खुद ही मामले की सुनवाई करके खुद को क्लीन चिट दे देते हैं। इसी तरह समाज में बनाए गए ताने-बाने में पुरुष स्त्री के साथ गलत करने के बाद भी खुद को क्लीन चिट दे देते हैं।
एक समाज के तौर पर हम कितने विफल हैं? समाज के हिस्से के होने के हकदार हम तभी है जब किसी घटना के घटित होने पर हम सवालिया नजर रखते हों। सवालिया नजर नहीं रखते किसी की मदद नहीं करते किसी के मदद पुकारने पर घर से नहीं निकलते। समाज के उस आदमी के साथ खड़े नहीं होते जिसको आपकी मदद की जरूरत है। आपकी आवाज के साथ की जरूरत है। बतौर नागरिक आपके होने, साथ देने और हस्तक्षेप की जरूरत है। वहां जहां एक बच्ची अपनी मदद की गुहार लगा रही हो, अपने साथ हुई घटना की दुहाई दे रही हो तब भी उस वक़्त भी यह समाज आगे नहीं आता है। तो आप अपने को उस समाज का हिस्सा कैसे कहते हैं?
लोग तमाशा देखने के लिए तो जुट जाते हैं लेकिन मदद करने से कन्नी काटते हैं? कई बार कोई जानवर संकट में हो तो उसके साथी जानवर भी मदद के लिए हर मुमकिन कोशिश करते दिख जाते हैं। लेकिन इंसान तो शायद अब जानवरों से भी बदतर होता जा रहा। आखिर मदद से कतराने की वजह क्या हैं? सबसे बड़ी वजह है खुदगर्जी। अगर पीड़ित करीबी जान-पहचान का हो, अपना हो तो वही इंसान मदद के लिए आगे आ जाएगा जो बाकी घटनाओं में तमाशबीन बना रहता है।
एक बड़ी वजह यह डर भी है कि मदद कर दी तो मुसीबत मोल ले ली। लोग किसी पचड़े में नहीं पड़ना चाहते। सड़क के किनारे हादसे में किसी जख्मी की मदद हो या किसी अपराधी के हमले में जख्मी शख्स की मदद की बात हो, लोग अक्सर इसलिए कन्नी काट लेते हैं कि इससे वे पचड़े में फंस जाएंगे। पुलिस परेशान करेगी। कोर्ट-कचहरी का चक्कर शुरू हो सकता है। रोजी-रोटी की जद्दोजहद के बीच आखिर कौन मुफ्त में कोर्ट-कचहरी, पुलिस-थाने का चक्कर लेना चाहेगा! लोगों के जेहन से इस डर को दूर करने की जिम्मेदारी पुलिस तंत्र की भी है। मदद करने वाले को गवाही या पूछताछ के नाम पर प्रताड़ित न किया जाए बल्कि उन्हें सहयोग दिया जाय।
हादसे या फिर किसी हमले में जख्मी शख्स की मदद करने के बजाय तमाशबीन बने रहने को मनोवैज्ञानिक की भाषा में ‘बाइस्टैंडर इफेक्ट’ कहते हैं। इस थिअरी के मुताबिक, राहगीर इमरजेंसी हालात में किसी की मदद करने से अन्य लोगों की मौजूदगी की वजह से कतराता है। अगर वह वहां अकेला हो तो शायद मदद के बारे में सोचेगा। भीड़ में जिम्मेदारी के भाव का अभाव होता है। कोई भी ये नहीं सोचता कि मदद करना उसकी जिम्मेदारी है। तमाशबीनों की ये भावना सिर्फ भारत नहीं बल्कि दुनिया के हर कोने में दिखती है।
मनोवैज्ञानिक इसे बाइस्टैंडर इफेक्ट कहें या कुछ और, असली वजह तो यही है कि लोगों की संवेदनाएं मरती जा रही हैं। इंसानियत मरती जा रही है। तभी तो रेप पीड़ित बच्ची मदद की गुहार लगाती है तो उसे दुत्कार मिलती है। करंट से बच्चा तड़प रहा है लेकिन लोग मदद की कोशिश के बजाय उसकी तड़प में वायरल कंटेंट खोजते हैं, वीडियो बनाते हैं।
विशेषज्ञों के मुताबिक, सोशल मीडिया पर पहचान पाना और वीभत्स कृत्य का प्रत्यक्ष रूप से गवाह बनाने की चाह ही लोगों को पीड़ित की वीडियो बनाने के लिए प्रेरित करती है। फोरेंसिक मनोवैज्ञानिक दीप्ति पुराणिक ने कहा कि लोगों के पास स्मार्टफोन आसानी से उपलब्ध हैं जिससे वे वीडियो बनाते हैं और सोशल मीडिया पर अपलोड कर देते हैं ताकि उन्हें ज्यादा से ज्यादा ‘लाइक्स’ मिलें और वे प्रसिद्ध हों इस पतन को रोकना होगा। हम सभी को मिलकर। हम किसी के ‘देवदूत’ बनने की प्रतीक्षा करते हैं लेकिन खुद ‘देवदूत’ बनने की जहमत नहीं उठाते।
सभी धर्म अपने अनुयायियों को दूसरों की मदद और भलाई करने की शिक्षा देते हैं। लेकिन सिख लोग केवल इन गुणों के बारे में बातें नहीं करते, बल्कि प्रभावी तरीके से इस राह पर चलते हैं। सेवा को सिखों का गीत बनाकर, जैसे गुरु नानक देव ने उनके डीएनए में डाल दिया।
संवेदनशील कोई मनुष्य तब होगा,जब विवेकशील भी हो। हमें अपने स्वार्थ त्यागने होंगे। धन-सम्पत्ति से विरक्ति लेनी होगी। इन्सान को इन्सान समझना होगा। शिक्षा इसमें सहयोग कर सकती है। समाज को शिक्षित बनाने की जरूरत है। यहाँ किसी ने ईश्वर को देखा नहीं है,मगर अन्धविश्वास सबको है कि उनके सब कार्य ईश्वर करा रहा है। इस सोच ने भी हमें विवेकहीन बना कर छोड़ दिया है।
वास्तव में हमारी इस दूषित सोच ने ही हमें संवेदनहीन बनाया है कि जो कुछ किसी के साथ हो रहा है,वह उसका भाग्य है।हमें किसी के लिये कुछ करने की जरूरत नहीं। इस दूषित सोच के लिये पूरा समाज उत्तरदायी है। बच्चों में संस्कार डालिए। उन्हें समझाना पड़ेगा संवेदनशीलता का अर्थ क्या है? जब वे इसका अर्थ जानेंगे,तभी समाज बदलेगा।
जड़ और चेतन के बीच का अन्तर संवेदनाएं ही तो प्रकट करती हैं। यह ठीक है कि पत्थरों में संवेदनाएं नहीं होती इसलिए वो बहुत मजबूत होते हैं परंतु मनुष्य कोई पत्थर तो नहीं है। वह तो प्रकृति की सबसे अनुपम कृति है। जब किसी भाव या घटना को महसूस करने की बात आती है फिर वो अपना भाव हो या अपने साथ घटी घटना या फिर दूसरे का भाव हो या दूसरे के साथ घटी घटना उसकी अनुभूति मनुष्य सहज ही कर लेता है। मेरी समझ में मनुष्य जितना जितना मजबूत होता जाएगा, उतना ही अधिक संवेदनशील होता जाएगा।