दीपावली दहलीज़ पर है। लेकिन कहीं आप हर्षोल्लास के इस उत्सव को मनाने में हिचकिचा तो नहीं रहे? अवसाद में डूबे रहने के तो तमाम कारण हमारे आसपास मौजूद हैं – महंगाई, राजनीतिक छींटाकशी, धार्मिक उन्माद, कोरोना का भय इत्यादि। तो क्या करें, दीवाली रस्मी तौर पर मनाकर छोड़ दें? पटाखे भी बहस का हिस्सा बन चुके हैं। यदि चेहरे की मुस्कान भी छोड़ दी तो मान लीजिए कि हमारी खुशियों का गला हम ही घोंटेंगे!
दीवाली की पहली शर्त तो यही है न- अपनी खुशी को महसूस करना, अपने आसपास के माहौल को खुशनुमा बना देना। मैं ये नहीं कहूंगी कि सकारात्मकता के नाम पर हम दैनंदिनी की चुनौतियों को भूल जाएं! मानती हूँ कि हमारे पास वो सब कुछ है, जिसके बारे में सोचकर दुखी हुआ जा सकता है, तो क्या करें? खुशियों को तिलांजलि दे दें, या ये मान लें कि ये तो केवल दुखों को बायपास करने का बहाना है?
क्या खुशियों को केंद्र में रखकर चुनौतियों से दो-दो हाथ नहीं किए जा सकते?
हमारी सामाजिक व्यवस्था में रंग और मिठास भरने को ही तो ये उत्सव आते हैं। खुश होने का बहाना हैं ये। इनके बिना जीवन कितना नीरस हो जाएगा। इसलिए कोई भी त्योहार हो, उसे पूरे दिल से मनाइए। यह सच है कि कुछ दुख ऐसे हैं जिन्हें स्वीकार करते हुए ही जीना होता है, जैसे किसी अपने को खो देना। लेकिन इसके अलावा जो भी है वह सब मन, अपेक्षा और महत्वाकांक्षाओं का खेल है। इन सबसे उपजते हुए दुखों को खुशियों में बदलना, आपके हाथ में है। इसकी पहल भी आपको ही करनी होगी।
आते हुए दुखों को खुशियों में बदलना गलती तो नहीं?
सोचिए, दुख कहाँ से आ सकता है- व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक? यही सब न! हमसे उम्मीद की जाती है कि हम घटनाओं के अनुरूप व्यवहार करें। कई बार हम समाज से प्रेरित होकर या किसी दबाव में आकर भी व्यवहार करने लगते हैं। हमें पता ही नहीं होता है कि ऐसा करना कब घातक सिद्ध होने लगता है। तमाम चिंताओं में घुल-घुलकर हम स्वयं ही उस जीवन को नष्ट करने में लग जाते हैं जो कहते हैं कि सौ जन्मों के बाद नसीब होता है।
अवसाद तो रहेगा, लेकिन कब तक, और कितना?
अपेक्षा, चिंता को जन्म देती है। मिली हुई उपेक्षा, घुटन में बदल जाती है और कब हम अवसादग्रस्त हो तमाम बीमारियों से घिर जाते हैं; पता भी नहीं चलता! अब अवसाद तो रहेगा, लेकिन कब तक,और कितना रहेगा? ये कौन तय करेगा? इससे क्या मिलेगा हमें? क्या दुखी मन से समस्याओं का समाधान हासिल होगा? ऐसे में आवश्यक है कि आप अपनी प्रकृति को पहचानें एवं उसे दुरुस्त करने पर काम करें। आपके सबसे बड़े शुभचिंतक आप स्वयं ही हैं तो आपकी चिंता करने की जिम्मेदारी (ठेका पढ़िए ) दूसरे क्यों लेंगे? यह काम हमें स्वयं ही करना होगा।
त्योहार का संदेश समझिए
प्रलय आ जाए लेकिन त्योहार की तिथि नहीं टलेगी! घर की साफ़- सफ़ाई तो कर ली पर मन का क्या? जो दिमागी सफ़ाई जरूरी है, क्या उससे विमुक्त हो पाएंगे? मिठाई का एक टुकड़ा, ज़बान पर मिठास घोल देता है, क्या ऐसी ही मधुरता रिश्तों में लाने को तैयार हैं हम? दीये की लौ सी पवित्रता से वातावरण ही नहीं, हृदय को भी महकाना होगा। धन-समृद्धि की पूजा बताती है कि आप कितने सौभाग्यशाली हैं और दूसरों की सहायता कर सकते हैं। खुशियों की फुलझड़ी से कहीं रोशनी बिखेर सकते हैं।
आतिशबाज़ी पर प्रतिबंध लगा दिया गया तो क्या हुआ। उल्लास का विस्फोट भी कुछ कम नहीं होता! यदि आपका हृदय उत्साह से भरा हुआ है और मन प्रसन्न, तो समझिए आप दीपावली मना रहे हैं।
दीवाली का यह त्योहार हमारे जीवन में छुट्टी बनकर नहीं आता बल्कि हमें रिचार्ज करने आता है। सुस्त पड़ी संवेदनाओं और शिथिल मन को पुनर्जीवित करने आता है। अब देखिए आप, जीवन की इस बैटरी की उम्र और चमक कैसे बढ़ानी है! त्योहार को मनाकर या मुँह लटकाकर। राम आए हैं, जरा मुस्कराइए! 😊