राजधानी दिल्ली के आजादपुर मंडी का एक वीडियो दो तीन दिनों से वायरल हो रहा है। इसमें एक सब्जी विक्रेता की बेबसी दिख रही है। एक यूट्यूब चैनल (लल्लन टॉप) के रिपोर्टर ने सब्जी के बढ़े दामों की हकीकत जानने के लिए ग्राउंड का दौरा किया। रिपोर्टर ने इस दौरान एक विक्रेता से जब इस बारे में बात की तो उसके आंसू छलक आए। वह खामोश हो गए और इस खामोशी ने उनकी बेबसी बयां कर दी।
कुछ मिनट के इस वीडियो में आवाज का जो खालीपन है, वह इस वक्त और महंगाई के इस दौर में आम आदमी के हालात की असल सचाई है। अब न तो कराहते बन रहा है और न बताते बन रहा है कि हमारी गुजर नहीं हो रही है। दुख की बात है कि बढ़ती आर्थिक विषमता पर सरकारी दस्तावेज मौन हैं। भारत में आय-असमानता ब्रिटिश गुलामी से भी ज्यादा हो गई है।
जाति अगर पैदाइशी है तो गरीबी सामाजिक-आर्थिक कारणों पर निर्भर है। गरीबी-अमीरी जन्म से न होकर भी जन्मजात विरासत में मिलती है। सभ्यता और समाज की देन, मानव द्वारा रचित असमानता चरम विकास की परिणति है, उसका कुपरिणाम है। जातिगत अन्याय दूर करने के लिए आरक्षण का प्रावधान है। गरीबी दूर करने के लिए नारों के सिवा कुछ नहीं दिखता। ‘गरीबी हटाओ’ से लेकर ‘प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना’ तक किसी भी उपाय ने इस देश के गरीबों का भाग्य नहीं बदला। जाति को लेकर भरपूर राजनीति होती है, गरीबी अब न राजनीति का मुद्दा है, न अर्थशास्त्र का। इसलिए भुखमरी हो या अपराधीकरण, कानून हो या महामारी, हर समस्या के शिकार देश के गरीब होते हैं।
महान फ्रांसीसी दार्शनिक रूसो ने उद्घोषित किया था; मनुष्य स्वतंत्र जन्म लेता है किन्तु सभी जगह वह अपने को बंधनों में जकड़ा पाता है। संविधान, सरोकारों और सामाजिक संस्कारों से संबंधित कानून, नियम और नैतिक मूल्यों, संस्कारों में बंधे रहते हुए भी स्वयं को आजाद महसूस कर सकता है क्योंकि संविधान और ईश्वर ने उसे जन्म से स्वतंत्र एवं सम्मानित नागरिक माना है। रूसो के साथ-साथ, अंग्रेजी कवि विलियम बर्डसबर्थ ने अपनी कविता इम्नॉइटल्टी ओड में व्यक्त किया है कि नवजात शिशु के चारों ओर स्वर्ग की आभा आलोकित होती है क्योंकि ईश्वर की महिमा उसमें प्रतिलक्षित है। गरीबी बनाम अमीरी किसी भी शिशु को परिभाषित नहीं करती है। बच्चा-बच्चा होता है। अमीर और गरीब सभी के बच्चों में मुस्कुराहट, उनका रोना-खेलना असमानता से परे एक समतल धरातल पर है जो लौकिक होते हुए भी अलौकिक प्रतीत होता है। ऐसी समानता में असमानता लेश मात्र नहीं है क्योंकि सभी के बच्चे एक-दूसरे को देखकर खुश होते हैं, खेलते हैं और मुस्कुराते हैं।
सम्मान के साथ जीने का अधिकार एक संवैधानिक अनिवार्यता है। हालांकि, यह आज शासन में डिजिटल पहल की चर्चाओं में शायद ही कभी प्रकट होता है। संविधान ने भी सभी नागरिकों को समान सामाजिक स्तर और अवसर को समानता प्रदान करने का आह्वान किया है और प्रस्तावना में सुरक्षित करने का लक्ष्य निश्चित किया है। प्रस्तावना के अनुरूप अनुच्छेद 14 एवं 16 के अंतर्गत क्रमश: कानून के समक्ष और सार्वजनिक रोजगार के समान अवसरों को सुनिश्चित करना लक्षित है।
विश्व असमानता रिपोर्ट 2022 के मुताबिक भारत सहित दुनिया में असमानता तेजी से बढ़ रही है। वर्ल्ड इनइक्वलिटी लैब द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार आर्थिक उदारीकरण और मुक्त बाजार की वजह से आय और संपत्ति दोनों में व्यापक असमानता रही है। शोधकर्ताओं के अनुसार आज दुनिया की हालत कमोवेश 20वीं सदी की शुरूआत में पश्चिमी साम्राज्यवाद के चरम के वक्त जैसी है।
विख्यात आर्थिक पत्रिका फोर्ब्स अरसे से दुनिया भर के अरब-खरबपतियों की सूची छापती है। 1990 तक इसमें एक भी भारतीय नहीं दिखता था। आज इस लिस्ट में 100 से अधिक भारतीय हैं। पर यह कोई गुमान की बात नहीं, बल्कि बढ़ते सामाजिक तनाव और हिंसक अपराधों की घंटी है। आज देश में आय की विषमता चरम पर है, जिसके कुप्रभाव देश की तरक्की और समाज पर दिखाई देने लगे हैं। इससे संविधान की मूल प्रस्तावना के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक न्याय का संकल्प बेमतलब हो गया है।
प्रख्यात अर्थशास्त्री लुकास चांसल का मानना है कि गैर बराबरी की हालत तकरीबन दो सौ साल पहले वाली है। 1820 और 2020 के दौरान शीर्ष दस प्रतिशत लोग ही आय का 50-60 प्रतिशत हिस्सा अर्जित करते थे जबकि निम्न आय वाले 50 प्रतिशत लोग सिर्फ 5 से 15 प्रतिशत अर्जित करते थे। गैर बराबरी लगातार बढ़ने के कारण आर्थिक व सामाजिक संतुलन गड़बड़ाता गया। आंकड़े के मुताबिक 2010 में देश के एक फीसदी लोगों की संपत्ति 40 फीसदी थी जो 2016 में बढ़कर 58.4 फीसदी हो गईं। इसी तरह 2010 में 10 फीसदी लोगों के पास देश की 68.8 फीसदी संपत्ति थी, लेकिन 2016 में बढ़कर 80.7 फीसदी संपत्ति पर उनका कब्जा हो गया। सबसे निचले पायदान पर खड़े व्यक्ति की हालत को संवारने की जो कवायदें केंद्र व राज्य सरकारों के जरिए की गईं, वे भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गई। आंकड़े बोलते हैं कि भारत के महज एक प्रतिशत लोगों के पास ही सबसे अधिक संपत्ति है।
ऑक्सफैम की रिपोर्ट में यह दावा भी किया गया है है कि भारत में पिछले एक साल में 40 नए अरबपति पैदा हो गए। भारत के अरबपतियों की संख्या में इजाफा हो कर आंकड़ा 102 से सीधे 142 तक पहुंच गया। मार्च 2020 से नवंबर 2021 के बीच भारत के अमीरों की कुल दौलत 23.14 लाख करोड़ रु. से बढ़ कर 53.16 लाख करोड़ रुपया हो गई। अब अमेरिका और चीन के बाद सबसे ज्यादा अरबपति भारत में है।
कुछ आर्थिक सर्वेक्षणों में मोदी राज में भारत में गरीबी घटने की बात कही गयी थी तो हाल ही आये कुछ सर्वेक्षणों में गरीबी बढ़ती बताई जा रही है। कुल मिलकर देखा जाये तो देश की गरीबी आंकड़ों के मायाजाल में फंसी दिखाई दे रही है। मगर यह अवश्य कहा जा सकता है कि पिछले एक दशक में गरीबी उन्मूलन के प्रयास जरूर सिरे चढ़े है। सरकारी स्तर पर यदि ईमानदारी से प्रयास किये जाये और जनधन का दुरुपयोग नहीं हो तो भारत शीघ्र गरीबी के अभिशाप से मुक्त हो सकता है।
आजादी के 75 सालों के बाद भारत में गरीब और गरीबी पर लगातार अध्ययन और खुलासा हो रहा है। इसका मतलब है सरकार के लाख प्रयासों के बाद भी देश में गरीबी कम होने का नाम नहीं ले रही है। आज भी हमारा देश अमीरी और गरीबी का खेल खेल रहा है यह हमारे लिए दुर्भाग्यजनक है। देश में अमीरी और गरीबी के हालात पर गौर करें तो पाएंगे अमीर दिन प्रति दिन अमीर होता जा रहा है और गरीब की गरीबी लगातार बढ़ती ही जा रही है। इस बात को हमने अक्सर सुना है लेकिन ये सच साबित होती दिख रही है। देश में अमीर-गरीब के बीच खाई बढ़ती ही जा रही हैं। इससे लगता हैं कि केंद्र सरकार की तमाम कोशिशों के बाद भी इसमें किसी तरह की कोई कमी नहीं आई है। भारत में आर्थिक विकास का लाभ कुछ ही लोगों को मिल रहा है। यह चिंता की बात है। अरबपति की संख्या में बढ़ोत्तरी सम्पन्न अर्थव्यवस्था का संकेत नहीं है। यह असफल आर्थिक व्यवस्था का एक लक्षण है। अमीरी और गरीबी के बीच बढ़ता विभाजन लोकतंत्र को कमजोर करता है और भ्रष्टाचार को बढ़ावा देता है।
दुनिया से जब तक अमीरी और गरीबी की खाई नहीं मिटेगी तब तक भूख के खिलाफ संघर्ष यूँ ही जारी रहेगा। चाहे जितना चेतना और जागरूकता के गीत गालों कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है। अब तो यह मानने वालों की तादाद कम नहीं है कि जब तक धरती और आसमान रहेगा तब तक आदमजात अमीरी और गरीबी नामक दो वर्गों में बंटा रहेगा। शोषक और शोषित की परिभाषा समय के साथ बदलती रहेगी मगर भूख और गरीबी का तांडव कायम रहेगा। अमीरी और गरीबी का अंतर कम जरूर हो सकता है मगर इसके लिए हमें अपनी मानसिकता बदलनी पढड़ेगी। प्रत्येक संपन्न देश और व्यक्ति को संकल्पबद्धता के साथ गरीब की रोजी और रोटी का माकूल प्रबंध करना होगा।
गौरतलब है कांग्रेस ने अपने 60 साल के शासनकाल में गैरबराबरी बढ़ाने वाले कार्य किए, जिससे गांवों से शहर की ओर पलायन हुआ और नये शहरों का निर्माण हुआ। देश में पहली बार गरीबों को चिंता प्रधानमंत्री स्व. श्रीमती इंदिरा गांधी ने को थी। भले ही वह चिंता राजनीतिक महत्वाकांक्षा की थी किंतु उन्होंने देश में पहली दफा गरीबी हटाओ का नारा दिया ! गरीबों का दर्द बयां किया।
इसका फायदा भी उन्हें मिला। लोकसभा चुनाव में उन्हें शानदार सफलता भी मिली। प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने गरीबों के लिए कुछ योजनाएँ भी शुरू की। किन्तु उसके बाद क्या हुआ? आगे चुनावों में नये नारे और नये मुद्दे आ गए, गरीब फिर लगभग भुला ही दिए गए। कभी-कभी जब कभी किसी प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री को गरीबों की याद आती भी है तो उनके लिए कुछ योजनाएँ लांच कर दी जाती। बस। उन योजनाओं की निरंतर समीक्षा नहीं होती है और ना हो जरूरत के हिसाब से उनमें सुधार किए जाते। इसका परिणाम यह हुआ कि गरीबी कम तो हुई , किन्तु खत्म नहीं हुईं। क्या कारण है कि देश की आजादी के 75 साल पर जाने के बाद भी इस देश के कर्ता धर्ता गरीबी को खत्म नहीं कर पाए हैं ?
आज भी लाखों लोगों को दो समय का खाना भी नसीब नहीं होता है ? लाखों लोग आज भी भूखे पेट सोने के लिए मजबूर हैं। यह क्या देश के राजनीतिक दलों, संवैधानिक पदों पर बैठे गणमान्य नागरिकों, सामाजिक और स्वयंसेवी संस्थाओं एवं संगठनों के लिए चिंताजनक तथा शर्म की बात नहीं है ? इन सब को इस अत्यंत मानवीय संवेदना से संबंधित विषय पर गंभीर चिंतन, मनन और दीर्घकालिक ठोस योजना बनाकर उस पर सख्त कार्यवाही नहीं करना चाहिए ? जरा आप भी इस विषय पर सोचिए।
भारत में ही दक्षिण क्षेत्र ऐसा है, जहां गरीबी नहीं है अथवा नगण्य है। केरल में मात्र 0.7 फीसदी आबादी ही गरीब है। तमिलनाडु में करीब 4 फीसदी लोग गरीब हैं और दूरदराज के छोटे-से राज्य सिक्किम 3 फीसदी आबादी ही गरीब है। देश की आजादी के 75 साल बाद जब हम “अमृत महोत्सव’ मना रहे हैं, तो ये शर्मनाक, कलंकित और भयावह आंकड़े हमें झकझोरते हैं।
ये स्थितियां हमारे गाल पर तमाचा हैं, क्योंकि हम 5 ट्रिलियन डॉलर, अर्थात् 350 लाख करोड़ रुपए, की अर्थव्यवस्था बनने का सपना पाले बैठे हैं। देश में 35 करोड़ से अधिक लोग गरीबी-रेखा के नीचे हैं। तेंदुलकर समिति (वर्ष 2009) के अनुसार, भारत की कुल आबादी के 21.9 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन करते थे। तेंदुलकर समिति ने अपना रिपोर्ट में शहरी क्षेत्र में रह रहे परिवारों के संदर्भ में गरीबी रेखा को 1000 रुपये (प्रति व्यक्ति प्रति माह) और ग्रामीण परिवारों के लिये 816 रुपये महीने निर्धारित किया था।
योजना आयोग के दौर में गरीबी -रेखा का जो पैमाना तेंदुलकर समिति ने दिया था, आज नीति आयोग में भी वही है। कोई नई परिभाषा या नया अध्ययन सामने नहीं आया है। उसके आधार पर गरीब की आय प्रतिदिन, प्रति व्यक्ति 41 रुपए है। यानी जो व्यक्ति इससे भी कम कमा पा रहा है, वह गरीबी-रेखा के नीचे है। आखिर कब गरीबी-मुक्त होगा भारत?
अनुसूचित जनजाति यानी आदिवासी की 50 फीसदी से ज्यादा आबादी गरीबी में जी रही है और एक-तिहाई दलित भी गरीब हैं। यह स्थिति भी तब है, जब बीते सात दशकों से उन्हें आरक्षण दिया जा रहा है। नौकरियों और शिक्षा में उनके लिए आरक्षण है, उसके बावजूद आज भी समानता का स्तर नहीं है। गरीबी और कुपोषण के अलावा, स्कूल में बिताए गए वर्ष, खाना बनाने का ईंधन, बिजली, पक्का मकान, स्वच्छता, औसत घर की संपत्तियां आदि मानकों पर भी भारत का यह हिस्सा गरीब हैं। करीब 23 करोड़ लोग गरीबी-रेखा की श्रेणी में शामिल हुए हैं। अभी तो भारत सरकार बीते काफी वक्त से 80 करोड़ लोगों में निःशुल्क खाद्यान्न बांट रही है। जरा कल्पना कीजिए कि यदि यह योजना नहीं होती, तो भुखमरी की क्या हालात हो सकते थे।
देश का एक बहुत बढ़ा वर्ग आज भी गरीबी, अभाव, भुखमरी में घुटा-घुटा जीवन जीता है, जो परिस्थितियों के साथ संघर्ष नहीं, समझौता करवाता है। हर वक्त अपने आपको असुरक्षित-सा महसूस करता है। जिसमें आत्मविश्वास का अभाव अंधेरे में जीना सिखा देता है। जिसके लिए न्याय और अधिकार अर्धशून्य बन जाता है। एक तरफ भुखमरी तो दूसरी ओर महंगी दावतों और धनाढ्य वर्ग की विलासिताओं के अम्बार, बड़ी-बड़ी दावतों में जूठन की बहुतायत मानवीयता पर एक बदनुमा दाग है।