सदियों से स्त्री समाज के रीति-रिवाजों, परंपराओं और मानसिकताओं की शिकार रही है। पारिवारिक, सांस्कृतिक, सामाजिक जीवन में और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में स्री की भूमिका भी पुरुषों के समान महत्वपूर्ण रही है, किंतु जहाँ पर अधिकार की बात आती है वहाँ सदैव ही स्री को द्वितीय स्थान मिलता आ रहा है। यह परिपाटी कब तक चलती रहेगी? ऐसा प्रश्न मन में उपस्थित होना आवश्यक है। इस समस्या को स्री और पुरुष दोनों को मिलकर ही हल करना होगा। अकेली स्त्री से इस समस्या का शमन नहीं हो पायेगा।
महिलाओं का यौन शोषण सदियों से हो रहा है। लैंगिक दहशतवादी घटनाओं की सदियों वाली शृंखला से विशेषतः स्री समाज डरा हुआ प्रतीत होता है। पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक स्तर पर विश्वसनीयता, आत्मीयता, नैतिकता और प्रेम अब खत्म होने के कगार पर है। यौन विकृतियों के अब मनोरंजन और हिंसा का रूप धारण करने से मानवीय संवेदनाएं एवं मूल्य निष्क्रिय हो गए हैं, ऐसा प्रतीत हो रहा है। अमानवीय इच्छाओं पर बलि चढ़ाई गईं अनगिनत स्त्रियों के रुदन, घुटन, उत्पीड़न से लैंगिक दहशतवाद की विजय पताका गर्व से फहरा रही है। विवाह एक सामाजिक संस्था है किंतु यह सामाजिक संस्था नहीं बल्कि समाज के द्वारा विकृत मानसिकता ने उसे कलंकित कर सामाजिक गुलामी का जामा पहनाया है। भारत में हर अच्छी बातों को सर्वोच्च ढंग से विकृत करने की सदियों पुरानी विशालकाय परंपरा अनवरत रूप से पल्लवित पुष्पित होती रही है। स्त्रियों के लिए सामाजिक संस्था नहीं, बल्कि सामाजिक गुलामी है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे स्त्रियों की अनिच्छा होते हुए भी यौन शोषण करना पुरुषों का जन्मसिद्ध अधिकार हो। कोई भी मर्द किसी भी कार्य में कितना ही मशगूल क्यों न हो। हर आती जाती स्री को पलभर के लिए ही सही अजीब निगाहों से ताकता जरूर है। यह उनके पुरुष होने का मानो प्रमाण हो। हाथ कंगन को आरसी क्या! इंग्लैंड और अमेरिका जैसे देशों में भी लैंगिक दहशतवाद दिखाई देता है। अरस्तु, सिगमंड फ्रायड आदि महान विचारकों को भी सभी स्त्रियाँ मानसिक दृष्टि से पुरुषों की तुलना में कमजोर लगती है।१
आजादी के बाद भारतीय संविधान में लिंग भाव समानता का तत्व डॉ बाबासाहेब आंबेडकर के भरसक प्रयास के कारण समावेशित किया गया था। कानून के तहत सामाजिक सुधार तेजी से होता है यह धारणा व्यावहारिक जीवन में नहीं बल्कि केवल दस्तावेजों ही है। चंद्रपुर जिले के मथुरा नाम स्थान पर आदिवासी युवती से पुलिस ने बलात्कार किया लेकिन पुलिसकर्मियों की निर्दोष मुक्तता हुई। परिणाम स्वरूप भारतीय दंड संहिता में बलात्कार संबंधी कानून में सुधार करना पड़ा। प्रियदर्शनी मट्टू रेप और हत्या, अंजना मिश्रा रेप, केरल के सौम्या रेप, निर्भया गैंग रेप, हैदराबाद की डॉक्टर प्रियंका रेड्डी, कोपर्डी में घटित रेप कांड जैसे अनगिनत अमानवीय बलात्कारों से सारा जग भयभीत हो गया और उसमें लव जिहाद ने लैंगिक दहशतवाद की रही सही कसर को अंजाम तक पहुँचा दिया है। लव जिहाद में तरह-तरह के हथकंडों से लड़कियों को जाल में फांस कर धर्म परिवर्तन कर उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता है। जान से मार देने तक की भी हरकतों का सैलाब उमड़ पड़ा है।
‘पोर्न इंडस्ट्री’ और ‘कॉस्मेटिक इंडस्ट्री’ उद्योग स्री देह से संबंधित है। सभी क्षेत्रों में स्त्रियों पर अत्याचार और जबरन हिंसा में बढ़ोत्तरी हो रही है। हाल ही में इंटरनेट और अन्य मीडिया के माध्यमों से अनर्गल बातों को बहुत महत्व दिया जा रहा है। सदियों से अनवरत चल रहे इन अघोरी कृत्यों का न आदि है न अंत। हाल ही में एक सर्वे के अनुसार ऐसा निष्कर्ष सामने आया है कि हिंदुस्तान में हर 3 व्यक्तियों के पीछे एक व्यक्ति पोर्न वीडियो देखता है। यह भी हमारी रेसियल रियालिटी की ओर संकेत करता है। अंडमान – निकोबार की आदिवासी महिलाएं परिवारजनों के लिए भोजन पाने के हेतू अर्ध नग्न पोशाक पहनकर नृत्य करते हुए दिखाई देती है। जेसिका लाल हत्याकांड, भंवरी देवी जैसे अनगिनत घटनाओं ने सबके भद्र चेहरे के पीछे छिपे लैंगिक दहशतवादी विकृतियों का पर्दाफाश किया है। बलात्कार करना जैसे हमारी प्राचीन परंपरा हो, ऐसा लगता है।
इतिहास में अनगिनत युद्ध हुए, उस युद्ध में विजेताओं ने पराजितों की धन दौलत के साथ- साथ बहु, बेटियों के साथ बर्बरता पूर्ण सुलूक किया। इसी वजह से राजपूत क्षत्राणियाँ ज़ौहर करती थी। उन्होंने अपनी पवित्रता को जान से ज्यादा सर्वोत्तम समझा था। युद्ध और बलात्कार के संघर्ष, यौन शोषण से नव वंशों की उत्पत्ति की निर्मिती हुई । बायोलॉजिकल सत्यता (बायोलॉजिकल रियलिटी) का यह समग्र मानवी इतिहास अवचेतन में समाया हुआ है और वह समय-समय पर अनवरत रूप से अवतरित हो रहा है, रहता है और हमेशा रहेंगा। इस दृष्टिकोण को ही वंश परंपरागत सत्य (रेसियल रियालिटी) कहा जाए तो गलत नहीं होगा। कार्ल स्टाफ युंग मानसशास्त्र के विशेषज्ञ ने इसे ही रेसियल मेमरी नाम से संबोधित किया है।२
इस प्रकार की पार्श्वभूमि से ही उपजी मानसिकता लेकर अगर हम परिवर्तन की निरर्थक बातें और काम करते हुए दिखाई देते हैं तो तथाकथित भद्र वर्ग, समाज सुधारक और मानवीय मूल्यों तथा संवेदनाओं के हिमायती, कायदा और सुव्यवस्था आदि इस दृष्टि से सही मायने में काम करती है या करेगी ? यह भी एक जटिल प्रश्न हमारे सामने मगरमच्छ जैसा मुँह खोले हुए है।
महिला विरोधी मानसिकताओं पर नियंत्रण रखने के लिए कायदा और सुव्यवस्था में अनगिनत उपाय योजना है। सामाजिक संस्था की पुनर्रचना समानता के अनुसार प्रत्यक्ष में हो लेकिन पुरुषों के अवचेतन में स्थित रेसियल मेमरी उस पर समय-समय पर सवार हो जाती है। कानून का प्रभावी ढंग से अमल और नियंत्रण करने के लिए सामाजिक समझ को निर्माण करने का प्रयत्न सक्रियता से करना पड़ेगा। शोषण, दोयमता, हीनत्व भाव, अभाव आदि बातें महिलाओं के जन्म से ही मानो उनकी किस्मत में लिखी गई है।
भारतीय समाज महिलाओं के विकास, सबलीकरण और सुरक्षा की दृष्टि से केवल कागजों पर कदम उठाता दिखाई देता है। विश्व का समस्त समाज जब तक वास्तव में अंतर्मुख नहीं होगा तब तक महिलाओं को समानता का हक़ मिलना मुश्किल होगा । जबकि यह समय की आवश्यकता है। दुष्ट प्रवृत्तियों पर लगाम कसने के लिए हमारी मानसिकता को बदलना बहुत जरूरी है । आजादी होनी चाहिए लेकिन आजादी का दुरुपयोग न करते हुए हर इंसान को अपनी जिम्मेदारी का एहसास रखना अत्यावश्यक है।
बदलते वैज्ञानिक युग में कुलदीपक होना ही चाहिए, इस सनातनी मनोवृति ने स्री भ्रूण हत्या के लिए वैज्ञानिक आधार को अपनाया। इस षड्यंत्रकारी मानसिकता ने अनगिनत चोर रास्ते ढूंढ कर फिर एक बार महिलाओं के हक़ का गला घोट दिया है। जितने नए उपाय ढूंढोगे, उतने ही चोर रास्ते भी निकलेंगे यह मानसिकता न बदली है न बदलेगी।
हर रोज लड़कियों की जन्म- संख्या घट रही है और इसी कारण नई- नई समस्याएं जन्म ले रही है। इस कारण अविवाहितों का परिमाण बढ़ने लगा है। आज हम देखते हैं कि लड़कियों की संख्या घटने की वजह से लड़कों के विवाह की समस्या अब चुनौती बन चुकी है। भविष्य में वे शायद वाममार्ग की ओर भी अगर बढ़े तो अचरज नहीं होना चाहिए। संसद में महिलाओं को 33% आरक्षण केवल महिला विरोधी अति प्राचीन मानसिकता के कारण नहीं मिल पा रहा है। लैंगिक विकृति भारत में अब आम बात हो चुकी है। आजादी का अर्थ खुले सांड की तरह जीना नहीं है। प्रेम की उदात्त का अर्थ इस मानसिकता को कभी समझा ही नहीं। रिश्तो में तालमेल न रहकर अब वह केवल एक तंत्र बनकर रह गया है। परिणाम स्वरूप समागम और हिंसा स्वाभाविक रूप से प्रकट हो रही है। जो हमारे अवचेतन में स्थित है। वर्तमान बहुत ही चिंताजनक भविष्य की ओर अग्रसर हो रहा है। इसलिए आंतरिक प्रबोधन, सख़्ती, और वातावरण निर्मिती समय की आवश्यकता है।