तलाक़ सहज नहीं होता. उतना सहज तो बिल्कुल नहीं, जितना आमिर खान और किरण राव के साझा बयान से दिखता है. तलाक़ को लेकर ये ‘साझापन’ कड़वाहट के कई पलों के बाद हासिल होता है. सेलिब्रिटियों की शादी हमें परीकथा जैसी लगती है, और उनके तलाक़ भी उतने ही करिश्माई. लेकिन तय जानिए कि कोई तलाक़ खेल के लिए नहीं होता. कि चलो, शादी-शादी खेल के बोर हो गए तो अब तलाक़-तलाक़ खेलते हैं. कड़वाहट भरी जिंदगी अपनी उम्र पूरी करने के बाद ही तलाक़ के मोक्ष तक पहुंचती है.
कड़वे रिश्ते की पहचान क्या होती है? वहाँ आपको दिखाई देता है बिखराव, शिकायतें, कहासुनी, कभी-कभी सिर फुटव्वल भी. विश्लेषण-प्रेमी समाज इसे अपने ही ढंग से पेश करता है. कभी वो इस कड़वाहट के मजे लेता दिखता है. कभी इसे नियति मानकर निभा ले जाने की सलाह देता है. कभी इसे दो बर्तन के टकराने जैसा सामान्य बना देता है. तो कभी पति-पत्नी में से किसी एक को दोषी ठहराकर अपना पल्ला झाड़ लेता है. वो सब कुछ करता है पर तलाक़ की इजाज़त तो हरगिज नहीं देता. ऐसे समाज का पक्ष भी समझा ही जा सकता है. आखिर उसी ने तो शादी को सात जन्मों के बंधन की संज्ञा दी थी. ऐसे में तलाक़ तो कुफ्र ही हुआ न!
विवाह यदि जन्म-जन्मांतर की संस्था है तो इसके भी कुछ तय नियम हैं. वे नियम जिनका उच्चारण, सात फेरों के समय चुहलबाज़ी करते हुए किया जाता है यदि उनका गंभीरता से पालन हो तो इससे खूबसूरत और पवित्र कोई रिश्ता ही नहीं! लेकिन वो सुख-दुख के साथी, हर बात साझा करने वाले दोस्त, परस्पर परवाह के हसीन ख्याल सब उस अग्नि के साथ ही स्वाहा हो जाते हैं या कुछ एक साल निभाकर भुला दिए जाते हैं. एक ही घर में रहने वाले दो इंसान कब एक-दूसरे के लिए अजनबी बन जाते हैं, पता भी नहीं चलता! पत्नी बच्चों और ससुराल में रम जाती है
और पति पैसे कमाने की मशीन बनकर रह जाता है. एक-दूसरे को सुनने-समझने का वक़्त ही नहीं रहता.
अपने भारतीय समाज में विवाह को लेकर एक बड़ी प्रचलित कहावत है कि “शादी वो लड्डू है, जो खाए सो पछताए और जो न खाए वो भी पछताए!” अब लड्डू है तो उसकी रेसिपी भी अवश्य होगी. जी, बिल्कुल है. यदि इसे ‘अटूट बंधन’ बनाना है तो फिर उम्र भर एक दूसरे के साथ पूरी ईमानदारी से निभाना चाहिए. उसके लिए परस्पर स्नेह और सम्मान की मिठास बहुत जरूरी है. साथ ही समझदारी का मेवा भी धर दिया जाए तो क्या बात!
लेकिन क्या सचमुच ऐसा होता दिखता है आपको? ताली दोनों हाथ से बजती है लेकिन होता यूँ है कि एक पक्ष निभाते-निभाते थक जाता है. शिकवे-शिकायतों का एक लंबा दौर चलता है. उसके बाद फिर एक वो समय भी आता है जब इस स्थिति को स्वीकार कर दोनों अपनी-अपनी दुनिया में रम जाते हैं. हाँ, गाहे-बगाहे ‘समझौता गमों से कर लो’ की धुन दिमाग में बज उठती है जिसे व्यस्तता की गहरी खाई में गिराकर रोक दिया जाता है. प्रयास रहता है कि यह ध्वनि और हमारे भीतर का हाल दुनिया तक न पहुँचे.
भले ही हर सुबह कोई खुशी लेकर न आती हो, हर सूर्योदय के साथ मन निराशा के गहरे भँवर में डूबने लगता हो पर जीवन फिर भी गतिमान रहता है. कभी बच्चों के लिए, कभी परिवार के लिए, तो कभी समाज के भय से समझौते कर लिए जाते हैं. क्योँ न हों! बाबुल के आँगन से पाँव बाहर धरते समय ‘भला है, बुरा है, जैसा भी है मेरा पति मेरा देवता है” का मंत्र लड़की के कानों में पहले से ही फूँक जो दिया गया होता है.
‘लोग क्या कहेंगे!’ के सूत्र को अपनाते हुए, घर में दिन-रात लड़ने-झगड़ने और एक-दूसरे का जीवन नर्क बनाकर रखने वाला जोड़ा भी सार्वजनिक स्थानों पर ‘परफेक्ट कपल’ की वज्रदंती मुस्कान लिए फिरता है.
वाक़ई कितना खोखलापन लिए घूमते हैं हम! दुनिया को खुश दिखाने के लिए जी रहे हों जैसे!
विवाह, हमारी सामाजिक परंपरा का अभिन्न अंग है. जीवनसाथी के सपने इसी से जुड़े होते हैं. भविष्य की खूबसूरत इमारत इसी की नींव पर खड़ी होती है. हमारे घरों में बच्चे के जन्म के साथ ही उसके विवाह की कल्पनाएं सजने-सँवरने लगती हैं. बेटी-बेटे की शादी में ये करेंगे, वो करेंगे….के तमाम किस्से आपने भी खूब कहे-सुने होंगे.
तमाम रस्मों को निभाते हुए दो इंसानों के घर की चौखट एक हो जाती है. नए रिश्ते, नए परिवार बनते हैं. दुनिया पहले से कुछ और बड़ी हो जाती है तो साथ में उत्तरदायित्व भी बढ़ जाते हैं. संयुक्त परिवार हो तो दोनों पक्षों की अपेक्षाएं भी बहुत जुड़ जाती हैं.
अब हमारी पूर्व की जो सामाजिक व्यवस्था थी, उसमें दोनों की भूमिका सुनिश्चित थी. अलिखित रूप से यह तय ही था कि पत्नी घर संभालेगी और पति बाहर का काम. घर-गृहस्थी चलाने और पैसे कमाने की दोनों की अपनी-अपनी जिम्मेदारी थी. उसे निभाया भी जा रहा था. उस समय की कामकाजी स्त्रियाँ भी गृहस्थी की जिम्मेदारी से मुक्त न थीं और दोहरी भूमिका निभाती थीं.
लेकिन तब भी ऐसा नहीं था कि हर जोड़ा अपने जीवन से संतुष्ट ही था. लेकिन असंतुष्टि की स्थिति में भी पुरुष सामाजिक मर्यादाओं और इज़्ज़त के चलते तथा स्त्री आर्थिक एवं सुरक्षा संबंधी पहलुओं के कारण एक-दूसरे का दामन थामे रहे. अब भी इस स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया है.
प्रत्येक रिश्ता उतार-चढ़ाव से गुजरता है. असल में हम सबको, खासतौर से स्त्रियों को संस्कारों की घुट्टी इस कदर पिलाई गई है कि चाहे लाख दुख सह लो, पर पति का घर न छोड़ना कभी! ‘मायके से डोली उठती है और पति के घर से अर्थी!’, ‘पति परमेश्वर’ जैसे ब्रह्मवाक्य उसके दिमाग में भर दिए गए. भरने की भी जरूरत कहाँ! अपने-अपने घर, परिवार या आस-पड़ोस में सब हमने-आपने देखा ही हुआ है कि भीतर ही भीतर घुटते रहेंगे लेकिन अलग न होंगे!
आपने ऐसे कई वैवाहिक जोड़े देखे होंगे, जहाँ दोनों की अपनी एक अलग-अलग दुनिया है. उन्हें आपस में कोई सरोकार ही नहीं! दुनिया भर से हँसी-ठट्ठा करने वाले ये लोग अपने घर में ठीक से मुस्कुराते भी नहीं.
स्त्रियाँ अपना दुख पति से इसलिए नहीं बाँटतीं कि पति को कोई तनाव न हो, घर का वातावरण न बिगड़े, बच्चों पर नकारात्मक प्रभाव न पड़े. पति ये मानकर चलते हैं कि उनकी कार्यालयीन समस्या को समझना पत्नी के बूते की बात नहीं! सो वो भी चुप कर जाता है. दोनों को आपस में कुछ बात बुरी लगे तो ये सोच चुप रह जाते हैं कि बात को क्योँ बढ़ाना! ऐसे ही करते-करते तमाम छोटी बातें कब जीवन को कड़वाहट से भर देती हैं, इसका हमें अनुमान ही नहीं होता! रिश्ते में मधुरता बनाए रखने के लिए जरूरी है कि मन में जो भी है, वो कह दिया जाए. यदि कहीं कुछ खटक रहा है तो बता दिया जाए, उसके गांठ बनने की प्रतीक्षा न की जाए. जब बहुत कुछ जमा हो जाता है तो लावा बन निकलता है. वहाँ एक-दूसरे को समझने-समझाने की गुंजाइश खत्म हो चुकी होती है. सामने सब अच्छा लेकिन बॉन्डिंग नहीं हो तो अच्छे से अच्छे रिश्ते भी कई सालों बाद ढह जाते हैं.
बॉन्डिंग ऐसे ही तो होती है. उसके लिए अच्छे के साथ-साथ बुरे पल भी जुड़ जाएँ तो कोई बुराई नहीं. बल्कि विषम परिस्थितियों में तो एक-दूसरे के व्यक्तित्व को समझने का सही अवसर मिलता है. अच्छे समय में तो सब अच्छा ही व्यवहार करते हैं. बात तब है जब प्रतिकूल समय में भी साथ खड़े होने और उससे लड़ने का हौसला हो.
उच्च वर्ग और निम्न वर्ग में तो अलगाव की खबरें फिर भी सहजता से निगल ली जाती हैं लेकिन मध्यम वर्ग इस मामले में भी पिसता आया है. अपनी खुशी का सोचने से पहले वह सौ बार अपनी नाक टटोलेगा, अपने आसपास के लोगों का मुँह देखेगा फिर ठंडी आहें भर स्वयं को देवी-भगवान मान खुश होने का नाटक शुरू कर देगा. खुशियों को मापने के भौतिक पैमाने भी बना ही लिए गए हैं. “क्या कमी है तुम्हारे पास? सब तो है और क्या चाहिए” कहकर समझाने वाले लोग मन पढ़ना नहीं जानते. वे ये कभी नहीं समझ सकते कि जो एक जीवन हमें मिला है, उसे खुशी से जीने का हक़ सबको है. दूसरों की खुशी के लिए कोई कब तक कुर्बानी देता रहेगा?
हमारी दिक्कत ये है कि हम तलाक़ को किसी रिश्ते के टूटने की तरह ही देखते रहे हैं, जिस दिन हम इसे दो इंसानों के जीवन से जुड़ी खुशी की तरह देखने लगेंगे, हमारा चौंकना और उनकी लानत-मलानत करना स्वतः ही बंद हो जाएगा.