हिन्दी दिवस आ रहा है। अब एक बार फिर ‘हिन्दी मेरी माँ है’, ‘हिन्दी बचाओ’ जैसे नारों से आभासी मंचों की दीवारें रंगी जाएंगीं। परिणाम? वही ढ़ाक के तीन पात! हिन्दी के विकास के लिए नारों अथवा बड़े-बड़े सम्मेलनों में भाषणबाज़ी का कोई औचित्य ही नहीं, यदि इस दिशा में जमीनी स्तर पर कुछ नहीं किया जा रहा हो! यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं कि हमारी भाषा की यह दुर्गति हिन्दी भाषियों के द्वारा ही अधिक की गई है। भले ही ऐसा करने की उनकी मंशा नहीं थी और इसके पीछे उनकी व्यक्तिगत कुंठा या सोच ही रही हो।
हम उस शिक्षा पद्धति में पले-बढ़े हैं जहाँ यह मान्यता है कि विकास के लक्ष्य अंग्रेजी मार्ग से होकर ही प्राप्त किये जा सकते हैं। यह बात कुछ हद तक सही भी है क्योंकि कई छात्रों के लिए हिन्दी भाषा की प्रावीण्यता और इस माध्यम में पढ़ना ही बाधा माना गया। स्पष्ट है कि इन मेधावियों में बुद्धि की कोई कमी नहीं थी लेकिन अंग्रेजी की अल्पज्ञता ने इनके पाँव पीछे खींच दिए।
जरा सोचिए! जिस भाषा के बीच रहकर हम जन्मे हैं, जिसमें रहकर उठते-बैठते हैं, जिसकी हवाओं में साँस लेते हैं हमारे लिए वही तो सहज होगी न! हम उसी में बेहतर सोचेंगे, समझेंगे और उत्तर दे सकेंगे। लेकिन हुआ यह कि हिन्दी माध्यम में पढ़ने वाले छात्रों को कॉन्वेंट के छात्रों से कमतर आँका जाने लगा। उनकी भाषा के सामने हिन्दी वाले बगलें झाँकने लगे। यद्यपि ऐसा होना नहीं चाहिए था पर हुआ। जिससे हिन्दी माध्यम में पढ़ने वाले विद्यार्थियों के भीतर कुंठा के भाव अंकुरित होने लगे। इधर समाज ने भी इस पर मरहम रखने के स्थान पर इसे बार-बार खुरचा ही।
पढ़ाई के माध्यम का बुद्धिमत्ता से कोई संबंध ही नहीं, शर्त तो ज्ञान को सही प्रकार से अर्जित करने की है। लेकिन हिन्दी भाषी इस तथ्य को समझे बिना सकुचाते चले गए और स्थिति गंभीर होती गई। उसके बाद किसी का उपहास उड़ाने के लिए ‘उसकी तो हिन्दी हो गई’ जैसे वाक्यांश प्रयोग में आने लगे। हँसते हुए ही सही पर हम सभी ने कभी-न-कभी इसे बोला ही है। घर आए अतिथि को जैसे ही पता चलता कि ये बच्चा हिन्दी माध्यम में पढ़ रहा है, तो प्रतिक्रिया सकारात्मक नहीं होती थी। व्यंग्यात्मक मुस्कान लिए उसके मुख से ‘ओह’ कुछ यूँ निकलता मानो कह रहे हों कि ‘तुमसे न हो पाएगा!’
‘उसको शुद्ध हिन्दी में समझा देना’ भी इसी सिलसिले की कड़ी है। भाषा के स्तर पर इसका अर्थ गहराई से समझें तो वैसे तो विशुद्ध देसीपन से भरा है पर इसमें भी हिन्दी को लेकर प्रशंसा के कोई भाव निहित नहीं हैं। बल्कि यह इसलिए कहा जाता है कि हिन्दी तो कोई निरक्षर भी समझ लेगा। अंग्रेजी सबके बस की बात कहाँ!
वर्तमान समय में कई समाचार-पत्रों और चैनलों की भाषा इतनी दयनीय हो चुकी है कि पढ़कर हँसी आती है और दुख भी होता है। पढ़ने बैठो तो समाचार-पत्रों की सामग्री हो या मुख्य शीर्षक, सभी में अंग्रेजी शब्दों की भरमार है। प्रायः सामान्य स्तर पर देखती हूँ कि समाचार वाचक बाढ़ की उम्मीद, आशा या संभावना जताता मिलता है और फसल अच्छी होने की आशंका! उसे पता ही नहीं कि कहाँ संभावना व्यक्त करनी है और कहाँ आशंका! जबकि एक का अर्थ सकारात्मक है और दूसरा नकारात्मक भाव के लिए प्रयुक्त किया जाता है। हिन्दी सिनेमा ने भी भाषा की लंका लगाई है। आपने देखा ही है पर शायद इस तरह से ध्यान न दिया हो। याद कीजिए ‘पड़ोसन’ का ‘इक चतुर नार’ गीत या कि ‘चुपके-चुपके’ फ़िल्म। निस्संदेह कला के तौर पर ये अद्भुत हैं और सर्वप्रिय भी। लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि इन्होंने कहीं न कहीं जनमानस के हृदय में यह भाव भी रोपित कर दिया कि जो आंचलिक या शुद्ध हिन्दी बोलता है, वह हास्य का पात्र है और सामान्य हिन्दी बोलने वाला शिक्षित! यू-ट्यूब के कुछ हास्य कलाकार और भी आगे निकले। उन्होंने इसमें गालियाँ जोड़कर हास्य की नई शैली रच दी। शेष कार्य हिंगलिश की व्युत्पत्ति ने कर डाला। मंचों की फूहड़ता की तो अभी चर्चा ही नहीं की है।
दूरदर्शन के कई कार्यक्रमों में भी शुद्ध हिन्दी को हास्य के रूप में परोसते देखा। इनमें मंच सुसज्जित करते कुछ लोग क्लिष्ट हिन्दी बोलकर यूँ प्रदर्शित करते हैं मानो क्या ही ग़ज़ब कर डाला हो! क्या हमें हमारी भाषा को सहजता से नहीं स्वीकारना चाहिए?
अब इस तरह के वातावरण और परिस्थितियों के बीच हिन्दी का कितना विकास संभव है, यह विचारणीय है! यद्यपि यह तय है कि इस देश से हिन्दी कहीं नहीं जा रही लेकिन इसके मूल स्वरूप का जिस तरह क्षरण हो रहा, वह अवश्य चिंतित करता है। हिन्दी, उपहास की भाषा नहीं है। यह हमारी अपनी भाषा है और इसके संरक्षण और उचित प्रयोग का दायित्व प्रत्येक भारतवासी का है।
जहाँ तक अंग्रेजी जानने का प्रश्न है तो सीखिए। इसके लिए अंग्रेजी माध्यम में पढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं है। मेरा आग्रह हिन्दी को लेकर है, किसी अन्य भाषा से कोई दुराव नहीं है। गुलदस्ते में कई फूल हो सकते हैं।
भाषा, कोई भी बुरी नहीं होती। लेकिन हम जिस देश के वासी हैं, पहले वहाँ की भाषा तो सीखें! हमें इस भ्रम से भी बाहर निकलना होगा कि बुद्धिमान कहलाने के लिए अंग्रेजी माध्यम से पढ़ना और अंग्रेजी जानना आवश्यक है। यदि ऐसा होता तो जापान, चीन ने इतनी प्रगति नहीं की होती। कैसी विडंबना है कि हमारे देश में मातृभाषा में बोलने वाले अनपढ़ और अंग्रेजी में बोलने वाले संभ्रांत की श्रेणी में रख दिए जाते हैं। किसी भी अन्य देश में ऐसा नहीं होता। विश्व की जितनी महाशक्तियाँ हैं, वे अपनी ही भाषा को प्रयोग में लाती हैं। उसे अड़चन की तरह नहीं देखतीं।
यदि हम सचमुच हिन्दी प्रेमी हैं तो अब भाषाई संकोच से उबरने का समय आ गया है। हमें अपने आसपास के वातावरण के प्रति सजग रहकर हर संभव जानकारी एकत्रित करनी है। दुनिया और उससे पहले स्वयं को यह बताना है कि हिन्दी, हमारी कमजोरी नहीं ताकत है। योग्यता, कौशल और नए आत्मविश्वास के साथ इसमें अपार संभावनाएं खोजी जा सकती हैं। इसके लिए पूरी रचनात्मकता एवं सकारात्मक भाव के साथ प्रयत्न हमें ही करने होंगे। हमारी कल्पना की उड़ान, हमारी उन्नति, हमारी अपनी भाषा से ही संभव है। हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने के लिए किसी आंदोलन की आवश्यकता नहीं बल्कि अपने-अपने घरों में, बाहर और प्रत्येक मंच पर बेझिझक हिन्दी बोलिए, पढ़ाइए, सिखाइए।
बीते माह एक सुखद समाचार सुनने में आया है कि मध्यप्रदेश में अब चिकित्सा शिक्षा, हिन्दी माध्यम से भी हो सकेगी। पुस्तकें भी इसी भाषा में अनूदित की जाएंगीं। हर क्षेत्र में यही होना चाहिए। जिसे अंग्रेजी में पढ़ना है, पढ़े लेकिन हमारी अपनी भाषा में पढ़ने का विकल्प सदैव होना चाहिए।
हिन्दी का सौन्दर्य अप्रतिम है। हम सदा से इसे अपनी माँ, मातृभाषा कहते अवश्य आए हैं लेकिन फिर दिल में भाव भी वही रखना होगा। यदि हम सचमुच हिन्दी को अपनी माँ समझें तो इसका अनादर कभी हो ही नहीं सकता! इसके सम्मान में हम स्वतः ही अपशब्दों से दूर रहेंगे एवं हमारी भाषा में हल्कापन कभी नहीं आएगा!
दरअसल हमारी हिन्दी तो हमसे दूर कभी हुई ही नहीं, हमने ही इसे दूर कर रखा है।