उत्तराखंड का एक गाँव ‘रौतु की बेली’ के पहाड़ी इलाके में दिव्यांग बच्चों के स्कूल की वॉर्डन की अचानक मौत हो गई। स्कूल में काम करने वालों, टीचर्स आदि सभी का कहना है कि मैडम तो नींद में ही चल बसी। पुलिस जांच के लिए आती है तो एक बारगी उसे भी लगता है मैडम की मौत सामान्य घटना है। लेकिन पुलिस ठहरी पुलिस छानबीन तो करनी ही थी। शक के घेरे में है कई सारे लोग। क्या राज है पहाड़ों की खूबसूरत वादियों के बीच मौत का इसका जवाब तो जी5 पर ही आपको मिलेगा।
पिछले बरस गोवा के फिल्म फेस्टिवल में प्रदर्शित हुई यह फिल्म अब जाकर ओटीटी पर आई है वो भी नाम बदल कर। यूँ भी इस फिल्म का नाम इतना कैची भी नहीं है कि हर कोई इसे देख सके। बहुत से दर्शकों को तो पता भी ना चले कि ऐसी कोई फिल्म भी आई थी। वो तो भला हो ओटीटी का कि वहाँ बरसों पड़ी रहने वाली फ़िल्में आप दर्शक कभी भी देख सकते हैं। खैर फिल्म की कहानी कुछ ख़ास चुस्त नहीं है लेकिन दुरुस्त होते हुए भी यह कई जगहों पर बेहद सुस्त नजर पड़ती है।
चुस्त, सुस्त, दुरुस्त ‘रौतु का राज’ को चुस्त बनाती है नवाजुद्दीन सिद्दीकी, राजेश कुमार,अतुल तिवारी की एक्टिंग और इसे सुस्त बनाती है इसकी धीमी गति। अंत में आकर जब यह फिल्म अपने राज खोलती है और एक प्यारा सा गाना आपके कानों में मीठे सुरों के साथ घोलते हुए लौटती है तब बन जाती है दुरुस्त।
निर्देशक आनंद सुरपुर ने इससे पहले ‘द फ़कीर ऑफ़ वेनिस’, ‘क्विक गन मुरुगन: मिसएडवेंचर्स ऑफ़ एन इंडियन काऊ बॉय’ जैसी फ़िल्में बनाई हैं जिनका तो आपको नाम तक मालुम नहीं होगा। अब तक अपनी इन दोनों फिल्मों से नामालूम निर्देशक बने बैठे निर्देशक आनंद सुरपुर को नवाजुद्दीन का भी शुक्रिया अदा करना चाहिए कि उनके फिल्म में मुख्य किरदार होने से उन्हें भी पहचान मिल रही है। बाकी सभी कलाकार भी ठीक जमे लेकिन ख़ास तौर पर दिव्यांग बच्चों ने जमकर अभिनय किया। वे सभी इतना स्वाभाविक अभिनय करते नजर आते हैं कि आपको मालुम पड़ता है कि कोई दिव्यांग कैसे अभिनय कर सकता है?
बैकग्राउंड स्कोर, कैमरा, एडिटिंग, लोकेशंस सब कुछ इतना दुरुस्त है कि आप इसे आसानी से देखकर ही उठते हैं। अगर आप नवाज के फैन हैं अगर आपको सुकूनदेह फ़िल्में देखना पसंद है, अगर आपको साफ़-सुथरा, धीमा सिनेमा देखना पसंद है तो देख डालिए। वरना छोड़ देने पर भी कोई हर्ज नहीं होगा।