तत्कालीन कलकत्ता में प्रसिद्ध दक्षिणेश्वर काली मंदिर बनवाकर ‘जय काली, कलकत्ते वाली’ के जयकार उदघोष से कलकत्ता (बंगाल) को विश्व में पहचान दिलाने का श्रेय धींवर मूल की महीयसी वीरांगना रानी रासमणि को जाता है।
यह सन 1850 के आसपास का वक्त था। उस वक्त कलकत्ता के उत्तर में हुगली नदी के तट पर दक्षिणेश्वर मंदिर निर्माण के लिए जमीन खरीदी जा रही थी। इस मंदिर के निर्माण का जिम्मा कलकत्ता के जान बाजार के एक जमींदार राजचंद्र दास की पत्नी रानी रासमणि ने उठाया था। मगर एक निम्न जाति की महिला का मंदिर बनवाना तब के समाज को रास नहीं आया। और तो और, मंदिर निर्माण रोकने के लिए एक धनाढ्य सवर्ण जमींदार ने रानी रासमणि पर 16 बार मुकदमा किया हालांकि वह हर बार हारा। मंदिर का निर्माण तय अवधि में सन 1853 को पूरा जरूर हुआ, पर कानूनी मामलों के सुलझने के बाद ही सन 1855 में इस मंदिर का उद्घाटन हो सका। रानी रासमणि के कठिन प्रयासों से यह भी इतिहास में पहली बार हुआ कि किसी रानी के बाद उसकी बेटियां इस मंदिर के सेवायत की उत्तराधिकारी रहीं।
रानी रासमणि का जन्म 28 सितम्बर 1793 को बंगाल के छोटे से गांव कोना (अब 24 पूर्वी परगना जिला का हिस्सा) में धींवर जाति के हरिकृष्ण दास के घर हुआ था (हालांकि कुछ लोग उन्हें समाज की केवर जाति की महिष्या जाति का भी बताते हैं) 1804 में जब वह 11 साल की थीं तो पिता ने उनका विवाह जॉन-बाजार (कोलकाता) के जमीदार बाबू राजचन्द्र दास से कर दिया, जिनका परिवार उस समय आर्थिक बदहाली की स्थिति में था।
उस समय भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन था और उन्होंने राजधानी कोलकाता को बनाया हुआ था। बाबू राजचन्द्र दास के परिवार में रानी रासमणि के आते ही कारोबार में लाभ होने लगा। रानी रासमणि ने कई अवसरों पर कोलकाता में अपनी प्रजा के कल्याण के लिए अंग्रेज शासन अफसरों के सम्मुख दृढ़ता दिखाकर जनमानस में लोकप्रियता हासिल करी। उनकी इसी लोकप्रियता के कारण उनको ‘रानी’ की उपाधि दी गयी थी।
1836 में रानी रासमणि के पति की 48 वर्ष की आयु में देहांत हो गया, उस समय रानी रासमणि 43 साल की थीं, वैधव्य की त्रासदी के बावजूद रासमणि ने अपने पति के कारोबार को अपने दामाद माथुर बाबू के सहयोग से न केवल संभाला, बल्कि उसे दिशा भी दी। व्यापार में अच्छा लाभ होने लगा। मान-सम्मान एवं धन-संपदा हमेशा के लिए नहीं होती, यह सोचकर वे अपने पति की तरह आय का एक हिस्सा समाज के कामों में लगा देती थीं।
उन्नीसवीं शताब्दी तक कोलकाता में प्रतिष्ठित मंदिर नहीं थे और ज्यादातर लोग पूजा-अर्चना हेतु बनारस जाते थे। सड़क मार्ग से सफ़र बेहद लंबा और कष्टप्रद था, जबकि जलमार्ग से समर्थ ही जा पाते। 1847 में रासमणि को बाबा विश्वनाथ एवं देवी अन्नपूर्णा के दर्शन हेतु बनारस जाने की इच्छा हुई। कहा जाता है जिस दिन उनके बेड़े को जलमार्ग से बनारस प्रस्थान करना था, पूर्व रात्रि में देवी ने उनसे सपने में कहा कि यदि वह वहां नदी तट पर उनका मंदिर बनाकर उनकी मूर्ति विधानपूर्वक प्रतिस्थापित कर दे तो वह मूर्ति में स्वयं विराजित होकर भक्तगणों को पूजा का वही लाभ प्रदान करेंगी, जो उनके साक्षात् दर्शन में होता है।
भक्तों को बनारस जाने की आवश्यकता नहीं होगी। अगले ही दिन रासमणि ने अपनी यात्रा टाल दी। बंगाल उन दिनों अकाल से जूझ रहा था। यात्रा रद्द करने के साथ उन्होंने नावों पर लदा सामान पीड़ित लोगों में बंटवा दिया और स्वप्न के अनुरूप देवी काली के विशाल मंदिर को मूर्त रूप देने के प्रयास आरंभ कर दिए। पहली आवश्यकता स्थान की थी। आरंभ में रानी जहां पर मंदिर बनवाना चाहती थीं, वहां बात नहीं बनी। अंत में काफ़ी दूर हुगली नदी के पूर्वी तट पर दक्षिणसोर गांव के समीप अंग्रेज जॉन की जमीन पर उनकी नजर केंद्रित हो गई, जहां उनका बगीचा था और वह लंदन जाना चाहते थे। सहमति होते ही उनसे लगभग 55 बीघा जमीन क्रय की गई। उसी साल मंदिर का निर्माण कार्य भी आरंभ करा दिया गया, जो आठ वर्षों तक चला। इस कार्य पर उस समय 9 लाख रुपये खर्च हुए।
रानी रासमणि ने 31 मई, 1855 को काली मंदिर में मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा करवा दी थी लेकिन रानी के धींवर जाति के होने के कारण पूजा पाठ के लिए कोई ब्राह्मण पुजारी तैयार नहीं हुआ तो रानी रासमणि ने इस काली मंदिर में उस वक्त के महान संत एवं विचारक श्री रामकृष्ण परमहंस के भाई रामकुमार चट्टोपाध्याय को पुजारी नियुक्त किया और 1856 में रामकुमार चट्टोपाध्याय की मृत्यु के बाद ‘स्वामी रामकृष्ण परमहंस’ को पुजारी नियुक्त किया गया, जिन्हें इसी काली मंदिर में ज्ञान की प्राप्ति हुई थी।
धींवर रानी रासमणि स्वदेशी पसंद और बुद्धिमान साहसी महिला थी। उस समय कलकत्ता में अंग्रेजी शासन स्थापित था और एक दिन गोरे असुरों ने उनकी रियासत जॉन बाजार के महल में घुसकर हंगामा किया तो रानी ने उस समय उनका मुकाबला करके उनको भगा दिया था। इसके कुछ दिन बाद अंग्रेजों ने रानी रासमणि को नीचा दिखाने के लिए उनके स्वजाति धींवर लोगों को निशाना बनाया और उनके गंगा में से मछली पकड़ने पर कर लगा दिया।
स्वजाति लोगों के भूखे मरने की नौबत आ गयी, ऐसे समय में धींवर रानी रासमणि ने बुद्धिमानी से कूटनीति अपनाते हुए दस हजार में वो मछली पकड़ने वाली जगह अंग्रेज बहादुर से खरीद ली, जिससे स्वजाति धींवरों को बिना कर मछली पकड़ने की छूट मिल गयी। इसके कुछ समय बाद रानी रासमणि ने उस पूरी जगह की घेरा बंदी करवा दी जिससे अंग्रेज बहादुर की बोट स्टीमर रुक गए। अंग्रेज कुछ कर भी नहीं सकते थे, क्योंकि अब ये जगह रानी रासमणि की मिल्कियत में थी, और इसके बाद अंग्रेज बहादुर ने रानी के साथ समझौता किया, दस हजार वापस दिए और उनके स्वजाति धींवर लोगों को बिना कर मछली पकड़ने की छूट मिली।
उस समय बंगाल में स्नान यात्रा का महत्व था। धींवर रानी रासमणि ने भी माँ काली के चांदी का रथ वनवाने का सोचा तो उनके दामाद ने उस समय के कलकत्ता के प्रसिद्ध जोहरी हेमिल्टन को सवा लाख में ठेका दिया तो रानी रासमणि ने यह कहकर कि क्या हमारे सारे भारतीय जौहरी मर गए? इसके बाद रानी का वह रथ भारतीय कारीगरों ने बनाया। रथ बनने के बाद ढ़ोल नगाड़ों को बजाकर यात्रा निकाली गयी, आज जहाँ ईडन गार्डन है उस के पास स्थित बाबू घाट के पास यह देवी की यात्रा निकलती थी। किसी ने द्वेष भावना से ढ़ोल-नगाड़े की शिकायत अंग्रेज बहादुर को कर दी और उन पर अंग्रेज बहादुर ने 50 रुपए का जुर्माना लगाया। रानी रासमणि ने जुर्माना जमा करवाया और रातों रात बाबू घाट से जॉन बाजार तक का पूरा इलाका बाड़ से घेर लिया, यह इलाका पूरा वैसे रानी की मालकियत का था, सो सरकारी विरोध कोई काम नहीं आया, आखिर सरकार झुकी और समझौता हुआ। लिखित माफीनामा लिखा गया, जुर्माने की रकम वापस मिली।
जब अंग्रेजों द्वारा इस तर्क पर दुर्गा पूजा की शोभयात्राओं को रोका गया की उससे नगर की शांति भंग होती है तो रानी रासमणी इन आदेशों का खुलकर विरोध करने के लिए आमने आयी और उनके समर्थन मे उमड़े जनसमूह को देख कर अंग्रेजों ने जो दंड उन पर लगाया था उसे उन्हे वापस लेना पडा।
रानी रासमणी ने समाज के लिए अनेक धर्मार्थ और उपयोगी कार्य किये। उन्होंने तीर्थयात्रियों के लिए सुवर्ण रेखा नदी से पुरी तक सड़क निर्माण करवाया, गंगग मे प्रतिदिन स्नान करने वालों के लिए अपने पति की स्मृति मे बाबू घाट, आहिरटोला और नीमटोला घाट बनवाये।
रानी रासमणी एक निष्पक्ष एवं न्यायप्रिय सेनानी थी। वह जिस बात को न्यायोचित समझती थी उसके लिए अड़ जाया करती थी। उन्होंने शक्तिशाली ईस्ट इंडिया कंपनी का सामना करने मे कभी भी हिचक नहीं महसूस की और जब भी अवसर आया तो उन्होंने कंपनी के जनविरोधी अनुचित आदेशों को मानने से इनकार कर दिया।उनके वीरोंचित कारनामे और भारत मे अंग्रेजों के साथ उनकी झड़पें उनके जीवनकाल मे ही कहानियों के रूप मे घर घर मे सुनाई जाने लगी थी।
इस प्रकार रानी रासमणि ने अपनी बुद्धिमानी और दृढ़ता से अंग्रेजों को कई बार झुकने पर मजबूर किया। 19 फरवरी 1861 को यह महीयसी वीरांगना रानी रासमणि अपनी जिन्दगी का सफर पूरा कर स्वर्ग प्रस्थान कर गयी।
रानी रासमणि के बारे में रामकृष्ण परमहंस ने भी अपनी पुस्तक में विस्तार से लिखा है। दक्षिणेश्वर काली मंदिर को जाने वाले एक मार्ग का नाम रानी रासमणि मार्ग है। इसके अलावा सेन्ट्रल कोलकाता के जॉन बाजार इलाके में उनका भवन ‘रानी रासमणि एवेन्यू’ के नाम से प्रसिद्ध है। जॉनबाजार की मुख्य सड़क का नाम भी रानी रासमणि के नाम पर है।
भारत सरकार ने भी इस महीयसी वीरांगना की याद में वर्ष 1994 में डाक टिकट जारी किया था। रानी ने तत्कालीन हिन्दू कालेज और इंपीरियल लाइब्रेरी को समुचित आर्थिक सहयोग दिया। कोलकाता की प्रसिद्ध मैजेस्टिक लाइब्रेरी की स्थापना भी रानी रासमणि ने ही की थी, जो अब नेशनल लाइब्रेरी के नाम से है। इसके अलावा उस समय कोलकाता में बना हिन्दू कॉलेज जो अब प्रेसीडेंसी कॉलेज है, भी रानी रासमणि की ही देन है।
19 फरवरी 1861 को रानी रासमणी अपने कर्तव्यों का बखूबी से निर्वहन करते हुए पंचतत्व मे विलीन हो गयी। वर्तमान में धींवर रानी रासमणि का बनवाया यह मंदिर कोलकात्ता की पहचान है। महीयसी रानी रासमणि की याद में दक्षिणेश्वरी काली मंदिर प्रांगण में उनका मंदिर भी स्थापित किया गया है। कोलकाता में हुगली-गंगा तट के नजदीक एस्पलेनैड नामक स्थान पर रानी रासमणि की मूर्ति भी स्थापित की गयी है। समय की धारा के परे अपने कौशल से ब्रिटिश साम्राज्य को हिला देने वाली भारत की वीर नारी शक्ति को शत शत नमन।