आरिफ़ और सारस का किस्सा हम सभी जानते हैं। ‘वन्य जीव संरक्षण अधिनियम’ की दुहाई देकर सारस को आरिफ़ से अलग तो कर दिया गया लेकिन जिस तरह से उसे रखा जा रहा है, वह कई प्रश्नचिह्न अवश्य खड़े करता है। यह कैसा अधिनियम है जो आसमान को नाप लेने वाले एक पक्षी को बाड़े में क़ैद कर अपने न्यायसंगत होने का प्रमाण प्रस्तुत कर रहा है? आप उस पक्षी की व्यग्रता और छटपटाहट को समझिए जो उसे आरिफ़ को सामने देखकर हुई। वह उसके पास जाने को तड़प रहा था। उसका उछल-उछलकर जाली से टकराना और बाहर न निकल पाने की विवशता किसी का भी हृदय पसीज दे लेकिन वन्य विभाग का नहीं! उन्हें यह सही लगता है कि एक पक्षी जो अब तक स्वतंत्र भाव से अपने एक मित्र के साथ रह रहा था, उसे पकड़कर बंद कर दिया जाए। फिर चाहे वह टकरा-टकराकर लहूलुहान हो जाए, भूखा रहे, क्या ही फ़र्क़ पड़ता है! ‘नियम’ हर भाव, हर संवेदना से ऊपर की बात है! और यह इतने ऊपर की बात है जो उड़ने वाले पक्षी को उसके पंख पसारने का ही अवसर नहीं देती! लेकिन इस कृत्य को सही ठहराने में कोई क़सर बाकी नहीं रखती।
घोर आश्चर्य की बात है कि वन्य प्राणियों के प्रति नियम और व्यवस्था की दुहाई देने वाले इस तंत्र को ‘चिड़ियाघरों’ से कभी कोई परेशानी नहीं होती! हमारे यहाँ तो दूसरे देशों से भी वन्य जीवों को लाया जाता रहा है, उन्हें उनके वातावरण और पारिस्थितिकी से पृथक कर कहीं और लाना या ले जाना किस अधिनियम के अंतर्गत आता होगा? क्या यह अन्याय नहीं? उन निरीह प्राणियों के जीवन के प्रति खिलवाड़ नहीं?
सब जानते हैं कि विकास और आधुनिकता के नाम पर जंगल समाप्त किए जा रहे हैं। जंगलों में आग के मामले भी प्रायः सामने आते रहते हैं। कितनी ही बार वन्यजीवों के शहर में घुस आने की घटनाएं सामने आती हैं। कुछ जीव या तो गाड़ियों से कुचलकर मर जाते हैं या मार दिए जाते हैं। अपने आनंद के लिए इन जंतुओं का शिकार भी मनुष्य करता रहा है और इनके अंगों से निर्मित सामान से जुड़े अनगिनत उद्योग भी वर्षों से फलफूल रहे हैं।
इन सब मामलों में अब तक वन्यविभाग की जवाबदेही क्या रही और अधिनियम का वास्ता कभी क्यों नहीं दिया गया? बल्कि जनता के सामने बड़ी सरलता से आँकड़े जारी कर दिए जाते हैं कि लीजिए यह प्रजाति अब विलुप्त हो गई या उसके कगार पर है। हम जैसे कवि लोग विलुप्त गौरैया, कम होते चीते और सिंहराज पर भावुक कविताएं रच अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। पर वो जंगल कहाँ गए? इन पशु-पक्षियों का घर किसने उजाड़ा? कौन हैं जो इनका शिकार कर रहे? ये सभी प्रश्न कौन करेगा? क्या इनके उत्तर मिलेंगे कभी?
क्या मुर्गा, बत्तख, बकरी, गाय, भैंस, सूअर और ऐसे ही तमाम जीवों को पकाकर खाना किसी ‘पालतू या घरेलू जीव अधिनियम’ के तहत हो रहा है? उन्हें कौन रोकेगा? एक ओर तो पशुओं को अपनी संस्कृति का प्रतीक बताकर उनकी महानता के गान किये जाते हैं और अगले ही पल चटखारे लेकर उनका भक्षण किया जाता है। मनुष्य की महानता और संवेदनशीलता की पराकाष्ठा तो देखिए कि गाय, भैंस का पर्याप्त दोहन करने के बाद वह उसे कसाई को दे आता है लेकिन जब तक उससे लाभ मिलता रहे, हाथ जोड़ उसे पूजता है। आपकी स्मृति में हो शायद कि बर्ड फ्लू के चलते कानपुर ज़ू के सभी पक्षियों को मारने का आदेश दे दिया गया था और अधिनियम के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी थी।
एक शोध के अनुसार “कुल मांस उत्पादन के मामले में, भारत 2020-21 में 8.80 मिलियन टन मांस के उत्पादन के साथ विश्व स्तर पर 5वें स्थान पर है। 2022-2023 में मांस उत्पादन बढ़कर 90 लाख टन होने का अनुमान है।” क्या इस पर गर्व करें? कर ही लेना चाहिए! लेकिन फिर सारे अधिनियम और उसकी बातें बेमानी हैं।
सारस का क्या होगा! पता नहीं! लेकिन इतनी मनुष्यता और संवेदना तो शेष रहनी ही चाहिए जो किसी पक्षी के प्रेम के आड़े न आएं! अब आप कहेंगे कि हम तो मनुष्यों के प्रेम के भी आड़े आते रहे हैं, प्रेमियों का लहू बहाने में भी गुरेज नहीं करते! तो मैं प्रेम से विनती ही कर सकती हूँ कि निरीह पक्षी पर यह निर्णय छोड़ दें कि उसे कहाँ जाना है! वह मनुष्यों के बनाए नियमों के प्रति बाध्य तो नहीं है न! या उसे भी आपकी नैतिक कक्षा में बैठ ‘अ’ से अधिनियम का पहाड़ा याद करना होगा!