(भाग – 18 से आगे)
ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य (थ)
(मूल शोध – श्री श्रीकांत तलगेरी)
(हिंदी-प्रस्तुति – विश्वमोहन)
अन्य भारतीय जंतु
यह भी उतना ही ध्यान देने योग्य तथ्य है कि ऋग्वेद में वैसे ढेर सारे पूरी तरह से देशज भारतीय-आर्य नाम उन पशुओं या जंतुओं के हैं जो केवल पूर्वी भाग के तो नहीं कहे जा सकते, लेकिन हैं खाँटी भारतीय: सिंह (शेर), शिम्शुमार (गांगेय डॉल्फ़िन), सालावृक (लकड़बग्घा)। समूचे ऋग्वेद में इनका विवरण मिलता है।
मंडल | सूक्त/ऋचा |
१ | ६४/८, ९५/५, ११६/१८, १७४/३ |
३ | २/११, ९/४, २६/५ |
४ | १६/१४ |
५ | ७४/४, ८३/३ |
७ | १८/७ |
९ | ८९/३, ९७/२८ |
१० | २८/(४, १०), ६७/९, ७३/३, ९५/१५ |
कुछ ऐसे भी जानवरों के नाम हैं जो ऋग्वेद में जानवर के नाम के रूप में तो उपस्थित नहीं होते किंतु किसी ख़ास व्यक्ति के रूप में इन नामों का उल्लेख वहाँ अवश्य होता है। हालाँकि यजुर्वेद और अथर्ववेद में यही नाम जानवरों के नाम के रूप में प्रकट अवश्य होते हैं। जैसे – कश्यप (कछुआ), कपि (बंदर), व्याघ्र (बाघ), पृडाकु (चीता)।
ऐसे भारतीय-आर्य नाम वाले कुछ ऐसे अन्य भारतीय जानवर भी हैं जिनका ज़िक्र ऋग्वेद में तो कहीं नहीं आता, किंतु अथर्ववेद और यजुर्वेद में वे ज़रूर मिल जाते हैं। जैसे – शार्दुल (बाघ), खड़ग (गैंडा), अजगर (पाईथन), नाक्र (मगरमच्छ), कृकलास (गिरगिट), नकुल (नेवला), जाहक (काँटेदार जंगली चूहा), शाल्यक (साही), कूर्म (कछुआ), जतु (चमगादड़) आदि।
यहाँ पर ऋग्वेद में चर्चित सभी जंतुओं की सूची प्रस्तुत करना कोई उद्देश्य नहीं है। इन जंतुओं में वैसे कतिपय जानवरों के नाम मिलेंगे जो साझे रूप से भारत और यूरोप दोनों जगहों पर जाने जाते हैं। जैसे – भेड़िया, भालू, बनविलाव, लोमड़ी/ गीदड़, हिरण/बारहसिंगा, साँड़, गाय, खरहा, चमगादड़, चूहा, बत्तख़/हंस, कुत्ता, बिल्ली, घोड़ा, खच्चर, साँप, मछली, अनेक प्रकार के पक्षी, कीड़े आदि। इनमें से कुछ जंतुओं के तो ऋग्वेद और अन्य संहिताओं में एक से अधिक नाम हैं। जैसे हिरण के लिए ‘रूरु’ ‘एणी’, ‘ऋष्य’, ‘हरिण’ आदि। यहाँ पर सामन्य तौर पर हम जानवरों के उन्हीं नामों पर अपनी मीमांसा करेंगे जिनकी प्रासंगिकता इन दो अवधारणाओं, ‘बाहर से आए आर्यों का आक्रमण’ और ‘आर्यों का अपनी मूलभूमि भारत से बाहर जाना’, पर छिड़े विवाद से है। इस विषय में नीचे दिए गए कुछ पक्षियों के भारतीय-आर्य नामों पर विचार करना प्रासंगिक होगा जिनके नाम अथर्ववेद और यजुर्वेद में तथा कहीं-कहीं ऋग्वेद में भी आते हैं :
चक्रवाक (ब्रह्मिनी बत्तख़, २/३९/३), ऊलूक (उल्लू, ७/१०४/२२, १०/१६५/४), अन्यवाप (कोयल), कृकवाक (मुर्ग़ा), कपोत {कबूतर, १/३०/४, १०/१६५/(१, २, ३, ४, ५)}, कपिंजल/ तित्तिरी (तीतर), कंक/ क्रौंच (सारस), चाश (, श्येन/सुपर्ण (गरुड़, ढेर प्रसंग), गृद्ध (गीध, ढेर प्रसंग), शुक (तोता) आदि।
वृक्ष और पौधे
प्रोटो भारोपीय शब्दावली में ‘शीतोष्ण’ आबोहवा के पेड़ पौधों के इन तमाम जुमलों के बावजूद ‘ऋग्वेद में ऐसे किसी एक भी पश्चिमी पौधे का कोई नाम चाहे अपभ्रंश ही सही, कहीं भी नहीं है। सही बात तो यह है कि ऋग्वेद उन पौधों और वृक्षों के वृतांत से भरा पड़ा है जो पूरी तरह से न केवल पूरबिया और खाँटी भारतीय हैं, बल्कि भारत की धार्मिक परम्पराओं से लेकर वाणिज्यिक महत्व तक की सभी चीज़ों में आजतक अपनी जगह बनाए हुए हैं।
ऋग्वेद में ऐसे नामों का विवरण इस प्रकार है :
शिंशप (Dalbergia sissoo, शीशम)
खदिर (acacia catechu, हर्टवुड या काठ)
शल्मली (salmalia malabaricum, रेशम और सूत के पौधे)
किंशुक, पर्ण (butea monosperma, जंगल-ज्योति)
शिंबल (salmalia malabaricum, रेशम और सूत के पौधे)
विभिधक (terminalia bellerica, the beleric myrobalan बहेरा)
अरत्व (terminalia arjuna, अर्जुन)
अश्वत्थ, पीप्पल (ficus religiosa, पीपल)
उर्वारूक (Cucumis sativus, ककड़ी)
वेतस (calamus rotang, बेंत)
दर्भ, मूँज, शर्य, सैर्य, कुशर, वैरिण (भारतीय घास)
ऊपर वर्णित वनस्पतियों का विवरण ऋग्वेद में इस प्रकार है :
पहला मंडल : १३५/८, १६४/२०, १९१/३
तीसरा मंडल : ५३/९, ५३/२२
चौथा मंडल : ५८/५
सातवाँ मंडल : ५०/३, ५९/१२, ८६/६
आठवाँ मंडल : ४६/२७
दसवाँ मंडल : ८५/२०, ९७/५
यजुर्वेद और अथर्ववेद में ऐसे तमाम वृक्षों और पौधों का वृतांत है जिनके नाम विशुद्ध भारतीय-आर्य हैं। जैसे –
इक्षु (saccharum officinale, गन्ना)
बिल्व (aegle marmelos, बेल)
न्यग्रोध (fficus benghalensis, बरगद)
शमी (prosopis cineraria, समी)
पलक्ष (ficus infectora, सफ़ेद अंजीर)
पिप्पली (piper longum, लम्बी मिर्च)
आर्यावर्त की दीर्घकालीन प्राचीन परम्पराओं का प्रतिनिधित्व करने वाली भारतीय जड़ी-बूटियों एवं आयुर्वेदिक महत्व के अन्य पौधों का उल्लेख करना भी यहाँ अप्रासंगिक नहीं होगा जिनकी लम्बी सूची हमें अथर्ववेद में मिलती है। सार रूप में हम यहीं कह सकते हैं कि पूरब के भीतरी इलाक़ों में फलने-फूलने वाली वनस्पति ऋग्वेद की चर्चाओं का केंद्र-बिंदु है और इस चर्चा का वृहत विस्तार आगे रची जाने वाली वैदिक संहिताओं यथा, यजुर्वेद और अथर्ववेद में मिलता है। दूसरी आओर अपेक्षाकृत पश्चिम में पनपने वाले पेड़-पौधों का उन्मेश ऋग्वेद के क्षितिज पर बहुत बाद में चलकर होता है।
इत्तफ़ाक़ से, ऋग्वेद के अनुसार अपने रथों को बनाने में वैदिक आर्य जिस भारतीय काठ का प्रयोग करते थे उनमें शिंशप (शीशम या उत्तर भारतीय सीसो), शल्मली, खदिर और किंशुक के वृक्ष प्रमुख हैं। दूसरी ओर, जैसा कि टार ने उल्लेख किया है कि “मिस्त्र के युद्धक रथों के निर्माण में जिस लकड़ी का प्रयोग होता था वे मिस्त्र के न होकर उत्तर के होते थे। रथ की धुरियों और आरे को बनाने में कछार बलूत (holm–oak) के पेड़, खम्बों को बनाने में एल्म नामक एक जंगली वृक्ष, आरे को फँसाने वाले रिम, पहिये और डैशबोर्ड अर्थात नियंत्रण-पट्ट को बनाने में ऐश या सुन के पेड़ और जुए को बनाने के लिए हानबीन या हार्नबीन के पेड़ प्रयोग में लाए जाते थे। रिम के साथ आरे को मज़बूती से लपेटने और बाँधने के लिए संटी या भोजपत्र-वृक्ष के छालों का प्रयोग किया जाता था। मिस्त्र के रथों को बनाने में प्रयुक्त होने वाले काष्ठ-पदार्थ कॉकसस से लाए जाते थे (टार १९६९:७४)।
३ – पश्चिमोत्तर और उससे आगे का प्रोटो भारोपीय प्राणी एवं वनस्पति-संसार
पश्चिमी भारतविदों द्वारा पिछली शताब्दियों से प्रचारित की जानेवाली परिकल्पना और ऊपर के आँकड़ों में भारी विसंगति है। ऊष्णकटिबंधीय (tropical) क्षेत्रों, विशेषकर भारत, के प्राणी-जगत और वनस्पति-संसार की अवहेलना कर पक्षपातपूर्ण ढंग से शीतोष्ण (temperate) आबोहवा में ही उनके सिमटे रहने की वृत्ति को यहाँ तक कि आर्य-आक्रमण-अवधारणा’ के समर्थक पश्चिमी विद्वानों ने भी अतार्किक क़रार कर अस्वीकृत कर दिया है (वेबर १८५७, कीथ १९३३, डोल्गोपोल्स्की १९८७ आदि)। इनका भी यही कहना है कि जैसे-जैसे भ्रमणकारी जनजातियाँ अपने अप्रवासन के क्रम में आगे बढ़ती जाती हैं, अपनी सदियों लम्बी यात्रा में अपने मौलिक प्राणी और वनस्पति संसार को भूलते जाती हैं और अपनी नयी बसावट के जंतुओं और पेड़-पौधों में अपना आश्रय ढूँढकर उन्हीं को अपनी स्मृति में बसा लेती हैं। दूसरी बात है कि ‘शीतोष्ण-विद्यालय’ के भारतविदों ने अपने भ्रम की निर्मिती में जिन जंतुओं या वनस्पति को सहेजा है, वे समान रूप से भारत और यूरोप दोनों जगह मिलते हैं। इसलिए इससे यह उजागर नहीं हो पाता कि आर्य भारत से यूरोप गए या यूरोप से भारत आए।
विजेल अपने तर्क को आगे बढ़ाते हुए यह कहते हैं कि भले ही ये ‘शीतोष्ण नाम’ ऋग्वेद की भूमि के चारित्रिक लक्षण न रहे हों, लेकिन ऋग्वेद के बाद की संस्कृत-भाषा में वे पाए जाते हैं। और, उनमें से भी कुछ भले संस्कृत में न हों, लेकिन ईरानी भाषा में पाए जाते हैं। इस आधार पर उनका यह कहना है कि “ऐसे शब्दों का महत्व उनके निर्यात में कम, बल्कि ठंडी आबोहवा की यादों को संजोये रखने में ज़्यादा झलकता है। ठीक वैसे ही, जैसे काफ़ी ऊँचाई पर उगने वाले कश्मीरी भोजपत्रों का संदर्भ ईरान, मध्य एशिया और यूरोप में लिया जाता है (विजेल २००५:३७३)। उनके कहने का मतलब यह है कि प्रोटो भारोपीय भाषा के ढेर सारे आम शब्द ऐसे हैं जो ‘पंजाब या भारत के मैदानी भागों (वैदिक क्षेत्र) के देशज या लाक्षणिक रूप’ नहीं हैं। ये शब्द केवल यूरोपीय भाषाओं में ही नहीं, बल्कि ईरानी भाषाओं में भी पाए जाते हैं। इसलिए ऐसा नहीं लगता है कि पश्चिम की ओर बढ़ने वाली जनजातियों ने इसे वैदिक क्षेत्र से लाया होगा। उनके अनुसार यह ‘आर्य-आक्रमण-अवधारणा’ के साथ ज़्यादा संगत और उचित जँचता है कि पश्चिम से आने वाली ‘भारतीय-ईरानी’ जनजातियाँ यूरोपीय और उसके मैदानी (स्टेपी) शब्दों को अपने साथ संजोये भारतीय सीमा तक तो पहुँच गयी लेकिन बाद में भारत-प्रवेश के क्रम में मात्र भारतीय-आर्यों ने ही उन्हें विस्मृत कर दिया।
लेकिन विजेल के साथ सबसे बड़ी समस्या कुछ और है। वह दिन-रात इसी बात को काटने में लगे हैं कि भारतीय आर्यों की मूलभूमि भारत है और यहाँ से बाहर निकलकर वे पश्चिम की ओर गए। इस बात को स्वीकारने का मतलब उनके लिए यह मान लेना है कि संसार की सारी भारोपीय भाषाएँ ‘पंजाब और भारत के मैदानी भागों की भाषा, संस्कृत’ की ही संतति हैं। लेकिन उनकी यह अवधारणा उपलब्ध आँकड़ों से मेल नहीं खाती और इसीलिए ठीक नहीं जँचती। उपलब्ध सामग्री तो यही दर्शाते हैं कि हरियाणा और उससे पूरब में रहने वाले वैदिक आर्य उस क्षेत्र की ‘पुरु’ बोली बोलते थे। पश्चिम और पश्चिमोत्तर में रहने वाले लोग ‘अणु’ और ‘दृहयु’ भाषाएँ बोलते थे जो भारोपीय भाषाओं का प्रारंभिक रूप था। इन भाषाओं में उन्ही जंतुओं और पेड़-पौधों के नाम आते थे जो पश्चिम और पश्चिमोत्तर के उन क्षेत्रों में पाए जाते थे, न कि वैदिक क्षेत्रों में।
इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि इसमें से ढेरों शब्द ऋग्वेद या इसके शुरुआती भागों में अनुपस्थित पाए जाते हैं। इन शब्दों का वैदिक भाषा में तभी प्रवेश संभव हुआ जब वैदिक लोग अपने फैलने के क्रम में उत्तर की ओर बढ़े। पथ की उसी रेखा पर पड़ने वाले आगे की जगहों में जहाँ वैदिक आर्य नहीं पहुँच पाए, या केवल नाम के लिए ही पहुँच पाए हों, बोली जाने वाली भारोपीय भाषाओं में पश्चिमी शब्दों का ही प्राचुर्य रहा और ये पश्चिमी शब्द वैदिक संस्कृत, बाद के संस्कृत या अन्य परवर्ती भारतीय भाषाओं से भी पूरी तरह नदारद रहीं।
जंतुओं या पौधों के नामों के उपस्थित होने के कालक्रम का भी अपना एक ख़ास अन्दाज़ है :
१ – भारत के अंदरूनी हिस्सों के जंतुओं और वनस्पति ( हाथी, चीता, धारीदार हरिण, भारतीय जंगली भैंस, भैंस, मोर, ब्राह्मिनी बत्तख़, अर्जुन वृक्ष, रेशम और सूत के पौधे आदि) का ज़िक्र ऋग्वेद के पुराने मंडलों (६, ३, ४, ७ और २) से ही मिलना शुरू हो जाता है। इन नामों के पश्चिमोत्तर में बसने वाले ‘अणु’ और ‘दृहयु’ के बीच पाए जाने की संभावना नहीं के बराबर थी और यही कारण है कि हज़ारों वर्षों तक और हज़ारों मील की दूरियों तक जारी रहने वाले उनके अप्रवासन के क्रम में इन शब्दों का उनके साथ शायद ही जाना हुआ। फिर, नए जगह के प्राणी-लोक और वनस्पति-संसार में पहुँचने के उपरांत तो इन शब्दों से उनका कोई नाता ही नहीं रहा। तथ्य तो यह है कि जो भारतीय-आर्य ख़ानाबदोश जिप्सी, सिंटी या रोमानी भी अपनी भूमि से हज़ारों मील दूर जाकर बस गए, उन्होंने भी समय की धार में अपने जंतु और वनस्पति के नाम बहा दिये और अपने साथ कुछ भी बचा नहीं पाए।
२ – पश्चिमोत्तर जंतु-जगत या वनस्पति-संसार के नामों के ‘साझे भारतीय-ईरानी शब्द’ आश्चर्यजनक ढंग से ऋग्वेद के बाद के नए मंडलों (५, १, ८, ९, १०) में मिलते हैं। उदाहरण के तौर पर वैदिक शब्द, मेष (भेड़), ऊरा (मेमना), ऊष्ट्र (ऊँट), वराह और सुकर (सुअर), कश्यप (कछुआ), खर (गदहा), जहाक (साही) की तुलना अवेस्ता के शब्द, मेष, ऊरा, ऊष्ट्र, वराज, हुकर, क़स्सीयप, क्षर, दुज़ुक से की जा सकती है। ये शब्द वेद (भारतीय-आर्य) और अवेस्ता (ईरानी) के साझे शब्दकोश का प्रतिनिधित्व करते हैं।
३ – पश्चिम के बहु-प्रचारित ‘शीतोष्ण’ प्रोटो भारोपीय शब्द ऋग्वेद के बाद में रचित नए मंडलों या फिर उससे भी बाद रचित वैदिक ग्रंथों में ही मिलते हैं :
क – जैसा कि देखा गया है कि ‘आवि-‘ और ‘ऊर्ण-/ऊर्णा‘ जैसे ‘पुराने’ प्रोटो भारोपीय शब्द, या अन्य भारोपीय शाखाओं में उनके सजातीय और सपिंडी शब्द, ऋग्वेद के तीन सबसे पुराने मंडलों में नहीं मिलते हैं। वे बाद के मंडलों में ही विशेषकर सबसे पहले चौथे मंडल में दिखायी देते हैं। यह भारतीय-आर्यों के पश्चिम की ओर बढ़ने के उस चरण को इंगित करता है जब सुदास के वंशज सहदेव और सोमक के काल में अपने विस्तार-अभियान में आक्रमण करते-करते वे ‘सरयू के पार’ (४/३०/१८) अफगनिस्तान एन पहुँच गए।
ख – विजेल ने ‘भेड़िए’ और ‘बर्फ़’ का ‘ठंडी आबोहवा की भाषिक-स्मृति’ के रूप में उल्लेख किया है। हम पहले ही देख चुके हैं कि भेड़िए समूचे भारत में बहुतायत में पाए जाते थे। जहाँ तक ‘बर्फ़’ की बात है तो इसका उल्लेख भी ऋग्वेद के बाद में रचित नए मंडलों में ही मिलाता है।
ग – विजेल ने भोजपत्र के लिए जिस ‘भुर्ज’ शब्द का उल्लेख किया है वह भी ऋग्वेद में कहीं नहीं पाया जाता और सबसे पहली बार यजुर्वेद में उपस्थित होता है जो ऋग्वेद से बाद का ग्रंथ है। सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि इस शब्द का प्रयोग एकदम सीमांत उत्तर और पश्चिमोत्तर दर्दिक, नुरिस्तानी और ईरानी भाषाओं में मिलता है। “पश्चिमोत्तर भारत के पहाड़ों में बसने वाली जनजातियों की दर्दिक भाषा में ‘भोजपत्र’ के लिए ‘फलुर बढ़ुज’, ‘दमेलि ब्रुश’ और ‘गवार-बटी ब्लज़’ (मेरहोफ़र १९६३:११.५१४-१५), बरेज, वैगली ब्रुझ (मोरजेंसटायर्न १९५४:२३८), खोतानिज सक ब्रमजा, ब्रुमजा, वाखी फुर्ज, संगलेची, शुगनी बरुज़, पश्तो बर्ज, ताजिक बर्ज, और बुर्स ‘जेनिपर’ (ग़मक्रेलिज १९९५ : ५३१-५३२) जैसे शब्द पाए जाते हैं। इस बात की पुनरावृति यहाँ अपेक्षित है कि पश्चिमोत्तर के इन शब्दों के ऋग्वेद के बाद में रचित नए मंडलों और अन्य परवर्ती वैदिक संस्कृत ग्रंथों में मौजूदगी के तमाम सबूत हैं और यह तब हुआ जब भारतीय आर्य अपने साम्राज्य विस्तार के अभियान में उत्तर-पश्चिम की ओर बढ़े।
४ – अवेस्ता के शब्दकोश की शुरुआत ऋग्वेद के नए मंडलों की रचना-काल के समकालीन है। इस बात की विशद चर्चा श्री तलगेरी की पुस्तक ‘The Recorded History of the Indo-European Migrations – Part2, The chronology and yhe geography of the Rigveda’ में की गयी है। किंतु, नए मंडलों के रचना काल से भी बहुत आगे बढ़कर अवेस्ता का समय ठहरता है। अवेस्ता की रचना होने के समय तक आद्य-ईरानी (प्रोटो-ईरानी) अफ़ग़ानिस्तान में प्रवेश कर गए थे और उनका सम्पर्क अब पश्चिमी दुनिया तथा भारोपीय भाषाओं के पश्चिमी शब्दों या यूँ कहें कि ‘अणुओं’ के उन शब्दों से होने लगा था जो ग्रीक, अर्मेनियायी और अल्बानी शब्दों के साथ मिलकर अपने नए विकसित रूप में गढ़ चुके थे। इन शब्दों के विकास और गढ़ने में उनसे सटे उत्तर में रहने वाले स्लावी, बाल्टिक, जर्मन, सेल्टिक और इटालिक जैसे ‘दृहयु’ समुदाय के लोगों की स्थानीय भाषा का भी योगदान था। भारतीय-आर्य भाषा से पूरी तरह अनुपस्थित रहने वाले दृहयु और ईरानियों के इन साझे शब्दों का उद्भव अफ़ग़ानिस्तान और मध्य एशिया के हिमाच्छादित पर्वतीय इलाक़ों में हुआ। निम्नांकित कतिपय शब्दों में यह स्थिति साफ़-साफ़ झलकती है।
अवेस्ता – बेरेज- ‘पहाड़ी’, ‘पहाड़’। इसके सजातीय शब्द स्लावी, जर्मन और सेल्टिक में भी हैं।
अवेस्ता – स्नाएजेटि ‘बर्फ़ बनना’ (क्रिया)। इसके सजातीय शब्द जर्मन, सेल्टिक, इटालिक, ग्रीक और अर्मेनियाई भाषाओं में भी मिलते हैं।
अवेस्ता – ऐक्षा ‘शीत’, ‘बर्फ़’। इसके सजातीय शब्द स्लावी, बाल्टिक और जर्मन में भी हैं।
ओस्सेटिक – तज्यन पिघलना (क्रिया)। इसके सजातीय शब्द स्लावी, जर्मन, सेल्टिक, इटालिक, ग्रीक और अर्मेनियाई में भी हैं।
अवेस्ता – उद्र ‘ऊद’। इसके सजातीय शब्द स्लावी, बाल्टिक और जर्मन में हैं।
अवेस्ता – बावरा-/बावरी- ‘ऊदबिलाव’। इसके सजातीय शब्द स्लावी, बाल्टिक, जर्मन, सेल्टिक और इटालिक में मिलते हैं।
ओस्सेटिक – व्य्ज़्य्न ‘साही’। इसके सजातीय शब्द स्लावी, बाल्टिक, जर्मन, ग्रीक और अर्मेनियाई में मिलते हैं।
विजेल बार-बार एक उदाहरण सामने लेकर आते हैं – अ-भारतीय ऊदबिलाव का। इसे अंग्रेज़ी में ‘बेवर’, पुरानी अंग्रेज़ी में ‘बेब्र’, ‘बेओफ़ोर’, लैटिन में ‘फ़ाइबर’, लिथुआनियायी में ‘बेब्रस’, रूसी में ‘बोब्र’ या ‘बेब्र’ और अवेस्तन में ‘बब्री’ बोलते हैं। भारतीय नेवले के संस्कृत नाम, ‘बभ्रु’ से इसकी तुलना कर वह ‘आर्य-आक्रमण-परिकल्पना’ को सही ठहराते हैं (विजेल २००५:३७४)। लेकिन ये जितने भी साझे अ-भारतीय नाम हैं, ये सभी भारतीय आर्यों के समूह को भारत-भूमि से बाहर निकलने के क्रम में उनके रास्ते में पड़ने वाले अफगनिस्तान और मध्य एशिया की ज़मीन पर जन्मे-पले और बढ़े तथा यूरोपीय और प्रोटो-ईरानी बोलियों तथा भाषाओं में शामिल हो गए। साथ ही, ऐसे किसी भी नाम के भारत की भूमि में प्रवेश का कोई दृष्टांत नहीं है। ऋग्वेद और मित्ती भारतीय-आर्य में ‘बभ्रु’ शब्द पाया जाता है, किंतु वहाँ यह घोड़ों के ख़ास रंग के रूप में प्रयुक्त हुआ है। पूरब में बहुत बाद के संस्कृत में रंग के लिए आने वाला यह शब्द ‘नेवले’ के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। किंतु इसका मतलब आर्यों के भारत-प्रवेश के संदर्भ में भी नहीं लिया जा सकता। इस संदर्भ में गमक्रेलिज की ये बातें ध्यान देने योग्य है कि ‘भारतीय-ईरानी भाषा के विभाजन की सीमा रेखा यदि खिंची जाय तो संस्कृत ने अपने शब्दों के अर्थों में पुरातन कलेवर को सुरक्षित रखा है जब कि अवेस्ता ने शब्दार्थों में नवोन्मेष की परम्परा का सूत्रपात किया है।‘ (गमक्रेलिज १९९५:४४८)
गमक्रेलिज और इवानेव (गमक्रेलिज १९९५:५२५-५३१) ने इस बात का स्पष्ट संकेत किया है कि प्रोटो-भारोपीय भाषा की मूलभूमि अफगनिस्तान और मध्य एशिया के पर्वतीय क्षेत्र ही थे। इस मूल भूमि में वे बलूत अर्थात ‘ओक’ के वृक्षों के परमुक्ष स्थानों को इंगित करते हैं। बादल की घोर गर्जना से दहलाती ऊँची चोटी वाली ‘ओक’ के वृक्ष से अच्छादित पर्वत-मालाओं की ओर ध्यान खींचते हुए उसमें वे मेघों के तड़ित-देव का निवास बताते हैं (गमक्रेलिज १९९५:५२९)। सही कहें तो इस मूल भूमि को थोड़ा और पश्चिम की ओर खिसकाकर वे ‘अनाटोलिया’ के पास ले आते हैं लेकिन उपलब्ध आँकड़ों पर आधारित जो परिदृश्य उभरता है उसका इशारा अफगनिस्तान, ईरान और ट्रान्स-कौकेसियन अर्थात जौर्जिया, आर्मेनिया और अज़रबैजान के क्षेत्रों से है। इन भू-भागों में ओक के वृक्ष का बहुत ही अहम स्थान है। इसीलिए इस भाग के प्रमुख लक्षणों को चिन्हित करने के लिए गमक्रेलिज ने ओक के पेड़ को ही चुना है। इन्हें उस क्षेत्र में ‘ट्री’ या ‘वुड’ (संस्कृत – द्रु-/द्रुम-/दरु-/तरु-) के लिए ‘टे/ओर-‘ या *ट’रे/ओऊ जैसे अपभ्रंश रूप में लिया जाता है। इनके सपिंडी और सजातीय शब्द आठों अन्य शाखाओं (अनाटोलियन, टोकारियन, बाल्टिक, स्लावी, जर्मन, भारतीय-आर्य, ईरानी और ग्रीक) में भी पाए जाते हैं। किंतु, ऐतिहासिक विविधताओं से सम्पन्न सेल्टिक, अल्बानी और ग्रीक जैसी भाषाओं में उन्हीं अपभ्रंश रूपों में ही ये व्यक्त होते हैं। ग्रीक भाषा में ‘ट्री’ और ‘ओक’ दोनों प्रचलित हैं। अर्मेनियायी और इटालिक शाखाओं ने ‘वुड’ के लिए अर्थ अपने विशेषण ‘हार्ड’ शब्द में संजो लिया है।
‘ट्री’ ( ‘टे/ओर-‘ या *ट’रे/ओऊ) के लिए मौलिक शब्द ‘ट्री/वुड’ बारह में से नौ शाखाओं में यथावत बना रहा लेकिन बाक़ी तीन शाखाओं में इसका अर्थ ‘ओक’ हो गया। इनमें सेल्टिक भी एक है। इसी मूल में ऋग्वेद और पुराणों के नाम दृहयु का रहस्य भी छुपा हुआ है जो इन पाँच यूरोपीय शाखाओं – स्लावी, बाल्टिक, जर्मन, सेल्टिक और इटालिक – को बोलने वाली जनजातियाँ थी और इन भारोपीय जनजातियों की रिहायिश अफ़ग़ानिस्तान और मध्य एशिया के इन्ही पहाड़ी क्षेत्रों में थीं। यहाँ तक कि की इन जनजातियों के पुरोहितों के लिए भी ‘द्रु-इ/द्रु-इद’ शब्द प्रचलित थे जो आयरलैंड की सेल्टिक भाषा में आज भी सुरक्षित है।
५ – एक अन्य अपभ्रंश शब्द है – ‘पेर्क’। इसका अर्थ इटालिक, सेल्टिक और भारतीय-आर्य भाषा में ओक होता है। संस्कृत में ‘पर्कटी’ शब्द का अर्थ अंजीर होता है। पंजाबी में ‘पर्गाइ’ शब्द पवित्र ओक के लिए आता है। ‘पेर्क’ का अर्थ जर्मन में ‘फर (fir)’ अर्थात देवदार का वृक्ष होता है। इसी शब्द से अंग्रेज़ी के ‘फ़ॉरेस्ट’ शब्द की निष्पति हुई है। आद्य भारोपीय शब्द संस्कृत और हित्ती में पाए जाने वाले मूल शब्द *पेरु-‘ (पहाड़/चोटी/चट्टान) से व्युत्पन्न है जिससे हम संस्कृत शब्द ‘पर्वत’ पाते हैं। मेघों की गर्जना के भारोपीय देवता के नाम की निष्पति भी दो शब्दों – ‘पेर्क/न’ और ‘पेरू/न’ से हुई है। भारतीय-आर्य (वैदिक) भाषा में ‘पर्जंय’, बाल्टिक भाषा में ‘पेरकुनस’, स्लावी भाषा में ‘पेरूँ’ और जर्मन भाषा में ‘जोरगिन’ (मेघ देवता की माता का नाम ‘थोर’) इसके दृष्टांत हैं। मेघ-देवता के लिए आद्य-भारोपीय शब्द ‘पेरकूँ’ और पर्वतीय ओक, पर्वतीय शिखरों पर ओक के जंगल, पर्वत या पर्वतों की चोटी के लिए प्रयुक्त होने वाले शब्द ‘पेरू’ के बीच के संबंधों को हम आसानी से समझ सकते है यदि पौराणिक कथाओं में आसमान से गिरने वाली बिजली के हम पर्वत शिखरों पर खड़े ओक के वृक्षों में लिपटने के दृश्य को अपने मन में उतारें। यह दृश्य इन पर्वतीय क्षेत्रों के निवासी प्राचीन भारोपीय जनजातियों के जीवन में बार-बार घटित होने वाले परिदृश्य को प्रतिबिम्बित करता है (गमक्रेलिज १९९५:५२८)।
तो, क्या यह मान लें कि प्राचीन भारोपीय जनजातियों की रिहायिश, अफ़ग़ानिस्तान और मध्य एशिया की इस पर्वतीय भूमि (या, फिर उससे और आगे!), की ‘भाषायी यादें’ ऋग्वेद में समाहित हैं! जबकि सही बात तो यह है कि :
१ – ऋग्वेद या किसी भी वैदिक ग्रंथ में ओक या किसी अन्य नाम से भी इस तरह के किसी पेड़ की कोई चर्चा नहीं है। बाद के शास्त्रीय संस्कृत ग्रंथों में ‘पर्कटी’ शब्द का प्रयोग अवश्य हुआ है जिसका अर्थ भारतीय वृक्ष श्वेत अंजीर (फ़ाइकस इंफ़ेक्टोरा) है। अथर्ववेद में ‘पलाक्ष’ के वृक्ष का ज़िक्र आता है। बहुत बाद में चलकर पंजाबी भाषा में ‘पर्गाइ’ शब्द मिलता है जो ओक की भिन्न प्रजातियों में से एक पवित्र प्रजाति ‘क्वेर्कस आइलेक्स’ के नाम के लिए आता है। यह पवित्र प्रजाति भूमध्य-सागर के आस पास पायी जाती है। अतः कालांतर में पश्चिम से यह नाम पंजाब पहुँचा है।
२ – स्पष्ट तौर पर ऋग्वेद में दो ‘मेघ-देवताओं’ की चर्चा है। एक ‘इंद्र’ और दूसरे ‘पर्जंय’। ‘इंद्र’ शब्द की व्युत्पति ‘इन्दु’ शब्द से हुई है। इसका अर्थ होता है – बूँद। अतः वर्षा की बूँदों से इंद्र का रिश्ता है। इस बात के अलावा कि इंद्र भारतीय- आर्य शाखा में ही सिमटे हुए हैं यह भी उतना ही सत्य है कि वह हरियाणा और इसके अंदरूनी हिस्सों के मानसून क्षेत्रों के ही देवता हैं। पर्जंय शब्द की व्युत्पति के बीज तो हम पहले ही ओक से आच्छादित पर्वतीय क्षेत्रों और तीन यूरोपीय शाखाओं में पा चुके हैं।
आर्य-आक्रमण अवधारणा के पैरोकार भारतशास्त्री अपने तर्कों में पर्जंय को मूल आद्य भारोपीय, और साथ-साथ भारतीय भी, मेघ-देवता के रूप में चित्रित करते हैं तथा इंद्र को बाद में पर्जंय की जगह लेनेवाले भारतीय मेघ-देवता के रूप में स्थापित करते हैं। इसका कारण वह स्लावी, बाल्टिक और जर्मन पौराणिक कथाओं में भी मेघ-देवता के रूप में पर्जंय की उपस्थिति को देखते हैं। किंतु, सच्चाई ठीक इसके विपरीत है।
अ – इंद्र ऋग्वेद के सबसे प्रमुख देवता हैं। ऋग्वेद में कुल १०२८ सूक्त हैं। इनमें से २५० सूक्त इंद्रदेव की महिमा के मंडन में समर्पित हैं। पर्जंय की गौरव-गाथा में मात्र तीन सूक्तों का योगदान है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि इंद्रदेव ऋग्वेद के नए और पुराने सभी मंडलों में उपस्थित होते हैं। इनके पर्यायवाची नामों को तो छोड़ दें, ‘इंद्र’ नाम से ही ५३८ सूक्तों में २४१५ बार इनका वर्णन है। दूसरी ओर २५ सूक्तों में पर्जंय मात्र ३६ बार वर्णित हुए हैं। इनका विवरण इस प्रकार है:
पूराने मंडल (६, ३, ७, ४ और २)
चौथा मंडल – ५७/८
छठा मंडल – ४९/६, ५०/१२, ५२/(६, १६), ७५/१५
सातवाँ मंडल – ३५/१०, १०१/५, १०२/(१, २), १०३/१
नए मंडल (५, १, ८, ९, १०)
पाँचवाँ मंडल – ५३/६, ६३/ (४, ६), ८३/(१, २, ३, ४, ५, ९)
पहला मंडल – ३८/(९, १४), १६४/५१
आठवाँ मंडल – ६/१, २१/ ८, १०२/५
नौवाँ मंडल – २/९, २२/२, ८२/३, ११३/३
दसवाँ मंडल – ६५/९, ६६/(६, १०), ९८/(१, ८), १६९/२
यहाँ ग़ौर करने वाली बात यह है कि सातवें मंडल के ३५/१० को छोड़कर बाक़ी जितने भी सूक्त हैं, वे या तो पुराने मंडलों के पुनर्संशोधित सूक्त हैं (इन्हें अधोरेखित किया गया है) या फिर नए मंडलों के सूक्त हैं। पुराने दूसरे और तीसरे मंडल में तो इनका ज़िक्र तक भी नहीं आया है। ७/३५/१० का भी जो एकमात्र अपवाद स्वरूप वर्णन है वह विश्वदेव (सभी देवताओं) की लम्बी सूची में उद्धृत हुआ है।
इससे तो यहीं बात सामने आती है कि पर्जन्य पश्चिमोत्तर से अवतरित ऐसे देवता हैं जो नए मंडलों की रचना के युग में ऋग्वेद में प्रवेश कर गए। यह तब की बात होगी जब हरियाणा और उसके पूरब के मानसूनी क्षेत्रों से उत्तर-पश्चिम दिशा में चलकर वैदिक आर्य पश्चिमोत्तर पर्वतीय प्रदेशों में पहुँचे होंगे। अब एक बात और ग़ौर करने वाली है कि यह पर्जन्य देवता मात्र स्लावी, बाल्टिक और जर्मन क्षेत्रों में ही पाए जाते हैं। इससे इस अवधारणा को बल मिलता है कि ऋग्वेद के नए मंडलों की रचना के समय मध्य एशिया में स्लावी, बाल्टिक और जर्मन बोलियों के अवशेष मात्र ही सही ज़रूर बचे रहे होंगे।
आ – कुछ और महत्वपूर्ण बातें भी ग़ौर फ़रमाने लायक़ हैं। केवल भारतीय आर्य परम्परा में ही इंद्र देवता के रूप में चित्रित होते हैं। अवेस्ता की प्रतिद्वंदी ईरानी परम्परा में इंद्र एक दैत्य है। हित्ती पुराण में तो ‘इनर’ नामक एक देवी की चर्चा है जो बिना नाम वाले बरसात के देवता को उन नागों को मारने में सहायता देती है जो बरसात होने से रोकते हैं। हित्ती (अनाटोलियन) भारोपीय शाखा से अपनी कल्पित मूलभूमि से अलग होने वाली पहली भाषा थी। इस परिप्रेक्ष्य में हित्ती पुराण में इनर देवी की उपस्थिति से तो एक बात पूरी तरह से साफ़ हो जाती है कि या तो इंद्र पर्जन्य से पुराने हैं या फिर वैदिक आर्यों के पश्चिमोत्तर में पसरने के दौरान वहाँ हित्ती भी मौजूद रहे होंगे या फिर दोनों बातें एक साथ भी सही हो सकती हैं।
यदि हम वानस्पति जगत, प्राणियों के वृहत संसार और पहाड़, बर्फ़, पर्जन्य जैसे उनसे सम्बद्ध समग्र सांस्कृतिक तत्वों का गहरायी से परीक्षण और उनकी विवेचना करें तो यह बात उभर कर सामने आती है कि पश्चिमोत्तर के शब्दों का प्रवेश ऋग्वेद के बाद में रचित नए मंडलों में तब हुआ जब वैदिक आर्य पसरते- पसरते पश्चिम की ओर पहुँच गए और उनके साथ-साथ ईरानी लोग भी और पश्चिम की ओर बढ़े जा रहे थे। इसी क्रम में ‘अणु’ और ‘दृहयु’ जैसी यूरोपीय बोलियाँ भी नए प्राणियों और नए वनस्पतियों के देश में काफ़ी दूर तक पहुँच गयी।
क्रमशः..