(भाग – 11से आगे)
ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य (ञ)
(मूल शोध – श्री श्रीकांत तलगेरी)
(हिंदी–प्रस्तुति – विश्वमोहन)
मूल-भूमि की अंतिम शाखा
भारतीय-आर्य शाखा ही उन बारह भारोपीय और तीन अन्य शाखाओं में एक मात्र शाखा रही जो अपनी मूलभूमि में बची रह गयी। यहीं वैदिक आर्य या पुरुओं की भाषा थी।अन्य पूर्वी जनजातियों के मुक़ाबले इस वैदिक सभ्यता का अध्ययन करने से पहले हमें अणु तथा दृहयु जैसी पश्चिमी जनजातियों के सापेक्ष इनकी स्थिति का आकलन करना होगा। ऐसा करना इस परिप्रेक्ष्य में भी वांछित होगा कि ये जनजातियाँ भारत से बाहर चली जाने वाली अन्य भाषायी शाखाओं के आद्य स्वरूप को बोलने वाली जनजातियाँ थीं।
‘आर्य-आक्रमण-अवधारणा’ के परिप्रेक्ष्य में वैदिक भारतीय-आर्य विरासत को तीन चरणों में बाँटा जाता है।
क – अपनी मूलभूमि, दक्षिणी रूस, की अन्य ग्यारह शाखाओं के साथ साझी भारोपीय विरासत,
ख – अन्य दस शाखाओं से ईरानी और भारतीय-आर्य शाखाओं के अलग होकर पूरब की ओर बढ़ने के बाद मध्य एशिया में ईरानी शाखाओं की साझीदार भारतीय-ईरानी विरासत, और
ग – ईरानी से पृथक होकर भारत में प्रवेशोपरांत स्वतंत्र रूप से विकसित होनेवाली भारतीय-आर्य विरासत।
अब दूसरी ओर ‘भारत से निकली’ या ‘भारत ही मूलभूमि’ की अवधारणा के परिप्रेक्ष्य में भी भारोपीय शाखा के यात्रा-पथ के आधार पर उसी प्रकार भारतीय-आर्य विरासत को तीन चरणों में बाँटा जाता है।
क – उत्तर और उत्तर-पश्चिमी भारत की एक ही कोख में जन्मी सभी बारह शाखाओं की साझीदार भारतीय-यूरोपीय विरासत,
ख – बाक़ी दस शाखाओं के प्रस्थान के पश्चात ईरानी और भारतीय-आर्य शाखाओं की साझीदार भारतीय-ईरानी विरासत, और
ग – ईरानियों के अप्रवासन और उनके चले जाने के बाद अपने दम पर फली-फूली भारतीय-आर्य विरासत।
अब यदि ‘आर्य-आक्रमण-अवधारणा’ को सही मान लिया जाय तो फिर जिस वैदिक संस्कृति का चित्र ऋग्वेद में उभरता है, वह इतने गाढ़े रूप में न होकर अपनी कल्पित जन्मभूमि की तथाकथित मौलिक ‘आद्य-भारोपीय’ संस्कृति के अत्यंत फीके और क्षीण स्वरूप को ही प्रतिबिम्बित करता। हमने जैसा कि देखा है कि वैदिक भाषा अन्य भाषाओं की जननी न होकर बस भाषा परिवार की अन्य बारह शाखाओं में से एक शाखा मात्र है। अब आप ही यह तय करें कि दक्षिणी रूस की कोख से निकलकर हज़ारों कोस की यात्रा शताब्दियों में तय करने के बाद भारत-भूमि के उत्तरी छोर तक पहुँचते-पहुँचते उस भारोपीय संस्कृति के कितने अंश बच पाते और जो थोड़े बचते भी उसकी थोड़ी-बहुत छाप ही बस ऋग्वेद में झलकनी चाहिए थी। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से ऋग्वेद में आद्य-भारोपीय-भाषा का कोई फीका-सा अंश नहीं मिलता है और न ही ऋचा के रचयिताओं ने अपनी किसी ऐसी स्मृति का उद्घाटन किया है जो उन्हें किसी परदेशी अतीत में बाँधता हो।
सच तो यह है कि ऋग्वेद की भाषा और इसके सांस्कृतिक तंतु आद्य-भारोपीय भाषायी संस्कारों से इतने घनिष्ट हैं कि लगता है मानों उसी की कुक्षी का यह नवांकुर बीज हो। ऋग्वेद के अपने अनुवाद की प्रस्तावना में ग्रिफ़िथ लिखते हैं कि “सच कहें तो ऋग्वेद में इसकी काव्यात्मकता से भी ज़्यादा अगर कोई चीज़ रुचि जगाती है तो वह इसकी ऐतिहासिकता है। एक तरफ़ इसकी मौलिक भाषा में ग्रीक, लैटिन, केल्ट, ट्यूटन और स्लावी भाषाओं के जड़ और धड़ तो दिखायी देते ही हैं, दूसरी तरफ़ ईसाईयत के पैदा होने से पहले के यूरोप के देवी-देवता, पौराणिक गल्प-कथायें, धार्मिक आस्थाएँ, वहाँ के लोकाचार और उनकी परम्परायें वेद के प्रचंड प्रकाश-पुंज से जगमग हैं।“
१ – ऋग्वेद की कथाओं में भारोपीय कथा-परम्परा के प्राचीनतम स्वरूप के दर्शन होते हैं। उदाहरण के तौर पर हम मैकडोनेल की इन बातों पर ग़ौर कर सकते हैं कि “वेद के देवी-देवता अपने रूपकों में अन्य किसी भी भारोपीय कथाओं के नायक देवी -देवताओं की तुलना में भौतिक जगत और सांसारिक घटनाओं के ज़्यादा क़रीब हैं“ ( मैकडोनेल १९६३:१५)। सही मायने में, अधिकांश कथाओं में तो हम कपोल-कल्पित उन पौराणिक सत्ताओं और उनसे जुड़ी प्राकृतिक लीलाओं की सही पहचान उनके उन स्वरूपों में ही कर लेते हैं जिस रूप में ये चरित्र वेद के कथानक में प्रकट होते हैं। बाक़ी भारोपीय भाषाओं की जितनी भी पौराणिक कथाएँ हैं उन सबमें ऐसे अनगिन तत्व हैं जो वेद की कथाओं से मेल खाते हैं। हालाँकि उन सभी में आपसी समानताएँ बहुत थोड़ी ही हैं और वे जो भी थोड़ी उनकी पारस्परिक समानताएँ हैं वे भी ऋग्वेद में बख़ूबी पायी जाती हैं। अपवाद में बस वे ही तत्व हैं जिनका पड़ोसी भाषाओं से उन्होंने आपस में लेन-देन किया है। इस संबंध में हम ग्रीक देवता अपोलो का दृष्टांत दे सकते हैं जिन्हें रोमन कथाओं ने भी अपना लिया है।(तलगेरी १९९३:३७७-३९५)
उदाहरण के तौर पर हम नीचे दी गयी सूची पर एक नज़र फेर सकते हैं जो भारोपीय भाषाओं की एक से अधिक शाखाओं में वर्णित लगभग सम्पूर्ण पौराणिक देवताओं को प्रतिबिम्बित करती है :
द्यौस पितर (वैदिक), ज़्यूस पेटर (ग्रीक), जूपिटर (रोमन), डे पटरौस (इलिरीयन), डी ईव्स (बाल्टिक)
उषा (वैदिक), इयोस (ग्रीक), औरोरा (रोमन), औश्रीण (बाल्टिक)
वरुण (वैदिक), ओडिन/वोडन (जर्मन), ओऊरानूस (ग्रीक), वेलिनस (बाल्टिक)
असुर (वैदिक), ऐसिर (जर्मन), अहुर (अवेस्ता)
मारुत (वैदिक), अरेस (ग्रीक), मार्स (रोमन)
पर्जन्य (वैदिक), परकुंस (बाल्टिक), पेरनु (स्लावी), जौर्गिन (जर्मन)
त्रैतं (वैदिक), थ्रेताओं (अवेस्ता), ट्रायटॉन (ग्रीक)
आर्यमान (वैदिक), ऐर्यमान (अवेस्ता), अरीयोमांस/ एरेमों (सेल्टिक)
सरमा/ सारमेय (वैदिक), हर्मिस (ग्रीक)
पूसन/पाणि (वैदिक), पन (ग्रीक), वाणीर (जर्मन)
रूद्र (वैदिक), रुगलु (स्लावी)
दनु (वैदिक), दनु (आइरिश)
इंद्र (वैदिक), इंद्र (अवेस्ता), इनर (हित्ती)
सर्वर (वैदिक), करबरोस (ग्रीक)
श्री (वैदिक), सीरीज़ (ग्रीक), फ़्रेयर/फ़्रेअ (जर्मन)
भग (वैदिक), बग (अवेस्ता), बाओग (स्लावी)
अपाम नपात (वैदिक), अपाम नपात (अवेस्ता), नेपचुनस (रोमन), नेचतें (सेल्टिक)
ऋभु (वैदिक), एल्ब (जर्मन = अंग्रेज़ी में ‘एल्फ़’)
यम (वैदिक), यिमा (अवेस्ता), यमिर (जर्मन)
ऊपर की तालिका में वर्णित कुल १९ सूचियों में वैदिक १९, ग्रीक ९, अवेस्ता ७, जर्मन ७, रोमन ४, बाल्टिक ४, स्लावी ३, सेल्टिक २, हित्ती १ और अल्बानी १ हैं। इन सारे देवताओं में अवेस्ता की समान साझेदारी है। यह भी स्पष्ट है कि सबके देवताओं की तुलना का मार्ग ऋग्वेद के देवताओं से ही होकर जाता है। आगे थोड़ा ग़ौर करें तो हम पाएँगे कि अवेस्ता धर्म और पौराणिकता के एक ऐसे रूप को गढ़ता है जो अत्यंत विकसित, मानवरूपांकित और परिवर्धित है। यहाँ यह भी देखने को मिलता है कि ऋग्वेद से इसकी अलंकारिक तुलनाओं को यदि छोड़ दें तो अवेस्ता का प्राकृतिक घटनाओं से कुछ कम ही लेना-देना है।
मात्र वैदिक चरित्र ही इस मामले में अनोखे हैं कि उनके सजातीय और सहोदर चरित्र बाक़ी सभी शाखाओं में उपस्थित हैं। लेकिन दो अलग-अलग शाखाओं के पौराणिक चरित्रों का आपस में तुलना करना तब तक असंभव प्रतीत होता है जब तक कि उन्हें हम संबद्ध वैदिक चरित्र के आलोक में न देखें। दृष्टांत के तौर पर ट्यूटोनिक (जर्मन) ‘वाणीर’ और ग्रीक के ‘हर्मिस’ और ‘पन’ आपस में जुड़े हैं लेकिन इनके आपसी संबंधों को हम तबतक समझ नहीं समझ पाएँगे जब तक कि हम वेद के शर्मा और पाणि को न समझें। जहाँ तक अवेस्ता के पौराणिक चरित्रों का सवाल है तो वे बाक़ी भारोपीय भाषाओं से इस मायने में बिल्कुल अलग-थलग हैं कि उनके चरित्र मात्र वैदिक चरित्रों से ही तालमेल रखते हैं।
२ – भाषायी तौर पर देखें तो वैदिक भाषा इस मामले में विलक्षण है कि इसने भिन्न-भिन्न भारोपीय भाषाओं के सजातीय मूल क्रिया-पदों को अभी तक बचाए रखा है। इस बिंदु की ओर सबसे पहले निकोलस कजनस ने ध्यान खींचा। बाद में कोएनराड एल्स्ट ने इसको और विस्तार दिया। उन्होंने बताया कि वैदिक संस्कृत में ऐसे ढेरों अतिप्रचलित और मूलभूत सजातीय शब्द हैं, जिनके उद्भव स्त्रोत नए शब्दों की व्युत्पति में अब भी वैसे ही सक्रिय और उर्वर हैं। उदाहरण के तौर पर पिता, पुत्र, पुत्री, भालू, भेड़िया आदि के लिए वेद में प्रयुक्त शब्द। दूसरी ओर इनके लिए अन्य शाखाओं मेंजो सजातीय शब्द आए हैं उनकी व्युत्पति के संबंध में कोई प्रामाणिक शास्त्रीय स्त्रोत नहीं मिलता है।
ऋग्वेद की थोड़ी और पड़ताल करने पर पता चलता है कि भारोपीय, भारतीय-ईरानी और भारतीय-आर्य, ये तीनों चरण ग्रंथ के इतिहास में ही समाहित हैं। भौगोलिक रूप से भी ये तीनों चरण भारत-भूमि में ही विद्यमान हैं। सच कहें तो, क्रम से ऋग्वेद के सबसे प्राचीन मंडल ६, ३ और ७ की रचना-भूमि हरियाणा और उससे पूरब सरस्वती के पूरबी तट के क्षेत्रों तक में ही फैली हैं। साथ ही, इस क्षेत्र का पश्चिमोत्तर विस्तार भी वेदों की रचना के साथ ही पसरता रहा। मात्र एक शब्द ‘रात्रि’ के इतिहास पर ही दृष्टिपात कर इस प्रक्रिया को समझा जा सकता है।
अ – ‘रात्रि’ के लिए प्रचलित भारोपीय शब्द है ‘नक्त’। क़रीब-क़रीब अन्य सभी शाखाओं में भी ऐसे ही शब्द का का प्रचलन है। जैसे, ग्रीक – नौक्स (आधुनिक ग्रीक में – निक़्त), लैटिन – नौक्टिस, फ़्रांसीसी – नुइट, स्पैनिश – नौक, हित्ती – नेकुज, टोकारियन – नेकाई, जर्मन – नाक्ट, आइरिश- अनौक्त, रूसी – नौक, लिथुआनियन – नक्तिस, अल्बानियन – नते आदि-आदि।
ब – आम चलन में कम आने वाला एक भारतीय-ईरानी शब्द है – ‘क्षप’, जिसका समूचे ऋग्वेद में प्रयोग हुआ है। यह अवेस्ता में भी ‘क्षाप’ के रूप में पाया जाता है, जहाँ ‘नक्त’ से संबधित शब्द का पूर्ण अभाव है। अपवाद स्वरूप, मात्र एक उप वाक्य में ‘उप-नक्षतरूसु’ शब्द मिलता है जिसका अर्थ ‘रात्रि के समीप’ रूप में प्रकट होता है। आधुनिक फ़ारसी में भी एक शब्द आता है ‘शब’, जिससे उर्दू का शब्द ‘शब-नम’ अर्थात रात्रि की नमी, ओस निकलता है।
स – ऋग्वेद के बाद के अंशों में पहली बार कहीं-कहीं ‘रात्रि’ शब्द उपस्थित होता है। यही शब्द बाद के ग्रंथों में ‘नक्त’ के बदले स्थायी रूप से प्रयोग होता है। बाद की भारतीय-आर्य भाषाओं और उन सभी भाषाओं में भी जिनका उद्गम संस्कृत है, ‘रात्रि’ शब्द ही प्रयोग होता है। किंतु, भारतीय भूभाग के बाहर की उन सभी भारोपीय भाषाओं में जिनका प्रस्थान इस भूमि से ‘रात्रि’ शब्द के उद्भव के पहले ही हो गया था, इस शब्द का कोई चिह्न नहीं मिलता है। वही स्थिति जल के लिए आने वाले शब्द ‘आप’, ‘ऊद’ और ‘पानी’ की भी है।
“ऋग्वेद की भाषा इस बात को बख़ूबी प्रदर्शित करती है कि ईसाईयत के पैदा होने से पहले के समस्त भारोपीय भाषाओं के जड़-धड़, देवी-देवता, पौराणिक गल्प-कथायें, धार्मिक आस्थाएँ, वहाँ के लोकाचार और उनकी परम्परायें वेद के प्रचंड प्रकाश-पुंज से जगमग हैं।“ ऐसा इसलिए है कि समस्त बारह शाखाओं सहित ऋग्वेद की भी जन्मभूमि उत्तरी भारत ही है। हालाँकि, ऋग्वेद में उन शाखाओं में से बस एक, केवल भारतीय आर्य-शाखा ( पुरुओं की जनजाति की भाषा और धर्म) का ही प्रयोग हुआ है। ऋग्वेद का रचना प्रवाह अन्य भारोपीय भाषाओं के यहाँ से प्रस्थान के उपरांत भी काफ़ी लम्बे समय तक अपनी ज्न्म्भूमि को सिंचित करते रहा। और दूसरी महत्वपूर्ण बात यह रही कि इस क्षेत्र के इतिहास और परम्पराओं की मौलिकता न केवल ऋग्वेद की कालजयी ऋचाओं में चिरंतन सजीव बनी रही, बल्कि उनकी भाषिक और पौराणिक धारा को परवर्ती पौराणिक रचनाओं ने आगे भी बहाए रखी।
क्रमशः..