(भाग – 9 से आगे)
ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य (ज)
(मूल शोध – श्री श्रीकांत तलगेरी)
(हिंदी–प्रस्तुति – विश्वमोहन)
शुरू की शाखाएँ
सुप्रचालनिक और तार्किक दृष्टि से देखें तो हम पाते हैं कि अफ़ग़ानिस्तान के उत्तर की ओर विस्थापित दोनों प्रारम्भिक शाखाओं को उस क्षेत्र ने अपनी ऐतिहासिकता में समेट लिया। टोकारियन पूर्वी मध्य एशिया में अपने दम तोड़ने तक पड़ा रहा। अनाटोलियन शाखा अपने सबसे शुरू के दिनों में जैसा कि ऐतिहासिक अभिलेख दर्शाते हैं, अपने स्वाभाविक विस्तार की प्रक्रिया में पहले तुर्की में प्रवेश कर गयी और फिर फैलते–फैलते कैस्पियन सागर के तट को स्पर्श कर गयी।
दूसरी तरफ़ रूसी मूल–स्थान अवधारणा की सबसे बड़ी विसंगति जो उभरकर आती है, वह है टोकारियन शाखा की मध्य एशिया में उपस्थिति! इस संबंध में चाइल्ड ने बहुत पहले कहा था, “ सेंटम भाषा के मध्य एशिया में हाज़िर होने की सबसे आसान व्याख्या इसे एशियायी आर्य ख़ज़ाने के अंतिम उपलब्ध गहने के रूप में मंज़ूरी देनी होगी। इतिहास के अंतिम दिनों में आर्यों का यूरोप से चलकर तुरक़िस्तान के आर–पार भटकना कहीं से भी गले नहीं उतरता।( CHILDE १९२६:९५–९६)”
अनाटोलियन और टोकारियन हिमालय के उत्तर में बसने वाले लोगों की दो महान जन–जातियों के रूप में पुराण में वर्णित हैं। इन्हें ‘उत्तर–मद्र’ और ‘उत्तर–कुरु’ के नाम से अभिहित किया गया है। उत्तर–कुरुओं की पहचान बड़ी आसानी से उनके भौगोलिक ठिकानों से लगायी जा सकती है। टोकारियन और उत्तर–कुरु के नामों की समानता से भी इस विचार को बल मिलता है। टोकारियन को उईघुर (पश्चिमी चीन और उज़्बेकिस्तान में रहने वाली तुर्कों की एक जाति) के ग्रंथों में ‘वघ्री’ और प्राचीन चीनी बौद्ध ग्रंथों में ‘तो–कु–लो’ या ‘तु–हुओ–लो’ कहा जाता है। स्पष्ट तौर पर टोकारियन के देशज नामों का सुसंस्कृत रूप ही उत्तर–कुरु है। हेनिंग के शब्दों में इसे उन भाषिक लक्षणों को बचाये रखना है जो हर नामों के नमूनों को ‘दन्त्य’, ‘कंठय’ और ‘र’ के व्यंजनात्मक ढाँचों में रखकर सघोष ध्वनि में उच्चरित करता है।(हेनिंग १९७८:२२५)
दक्षिण में पूरब की जनजाति ‘कुरु’ और पश्चिम की जनजाति ‘मद्र’ कहलाती थी। संभवतः उसी तर्ज़ पर उत्तर में भी पूर्वी जाति को उत्तर–पुरु और पश्चिमी जाति को उत्तर मद्र कहा जाता था। इस आधार पर उत्तर–मद्र अनाटोलियन (आद्य–हित्ती) लोगों के लिए ही प्रयोग हुआ जान पड़ता है।
यह जानना भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि हित्तियों की पौराणिक कथा में भी ‘इंद्र’ का वर्णन उस राजा ‘इनर’ के रूप में है जो विशाल नागों से युद्ध में बरसात के देवता की सहायता करते हैं। अन्य भारोपीय पुराण–गाथाओं और परम्पराओं में इंद्र का कहीं ज़िक्र भी नहीं मिलता है, सिवाय अवेस्ता के, जहाँ उन्हें एक खलनायक योद्धा के रूप में चित्रित किया गया है। अनाटोलियन लोगों ने संभवतः इस देवता को या बाक़ी प्रकृति–पुराण को वैदिक युग के दिनों की अपनी अल्पावास अवधि में जाना होगा।
[यह नाम ‘इंद्र’ इतना अधिक और विलक्षण रूप से ‘ भारतीय–आर्य’ है कि लुबोत्सकी और विजेल (विजेल २००६:९५) ने तो यहाँ तक कहने का जोखिम मोल ले लिया कि इस शब्द ’इंद्र’ को भारतीय–ईरानियों ने उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान या मध्य एशिया की कल्पित ‘बी एम ए सी भाषा’ से उधार लिया। बताते चलें कि ‘बैक्ट्रिया–मर्जियाना–अरकीयोलौजिकल–कॉम्प्लेक्स’ का संक्षिप्त रूप ‘बी एम ए सी’ है, जिसे ‘औक्सस–सभ्यता’ के नाम से भी जाना जाता है । यह भारतीय–ईरानी अप्रवासन से जुड़ी सभ्यता है जिसका क्षेत्र बैक्ट्रिया की अमु दरिया अर्थात औक्सस नदी और मर्जियाना की मुर्ग़ाब नदी के कछार के आस–पास का आज का उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान और पूर्वी तुर्कमेनिस्तान का भू–भाग है।] यह भी महज़ संयोग ही है कि फ्रांस की प्रकाशन कम्पनी के द्वारा प्रकाशित पुराणों के विश्वकोश ‘Larousse Encyclopedia of Mythology’ में ‘इनर’ या ‘इनार’ को ’इनर’ देवता के रूप में बताया गया है जो भारोपीय हित्तियों के साथ भारत से चलकर आए थे।
और अंत में, सुनने में थोड़ा अचरज पैदा करने के बावजूद हमारे सामने कुछ ऐसे प्रजातीय प्रमाण (हालाँकि, इनका आर्य जाति से कोई लेना–देना नहीं है) हैं जो इस बात की ओर संकेत करते हैं कि शुरू के आद्य–हित्ती पश्चिम से आने के बजाय पूरब से पश्चिम अर्थात मध्य एशिया से पश्चिमी एशिया की ओर गए थे। बीसवीं सदी के शुरू में आकर उनकी भाषाओं की खोज हो सकी और उनका विशद अध्ययन हुआ । तब जाकर यह प्रकाश में आया कि उनकी भाषा ‘भारोपीय’ थी। उसके थोड़े ही दिनों बाद अमेरिका की शोध पत्रिका ‘अमेरिकन ओरिएँटल सोशाइटी’ में यह प्रासंगिक टिप्पणी छपी :
“हरौंजी और अन्य विद्वानों के द्वारा शिलालेखों को पढ़े जाने से यह साफ़ हो गया है कि वे भारोपीय भाषा ही बोलते थे। उनका भौतिक स्वरूप भी पूरी तरह से मंगोली ही था जो पूरी तरह से उनकी मूर्तियों और मिस्त्र के स्मारकों, दोनों से भली–भाँति टपकता है। उनके गाल की हड्डियाँ उभरी होती थीं और माथा अंदर की ओर धँसा होता था। (कर्नोय १९१९:११७)
यूरोपीय शाखाएँ
१ – भारतीय परम्पराओं के आलोक में उत्तर की तीन जन–जातियाँ थीं – ‘पुरु’, ‘अणु’ और ‘दृहयु’। उत्तर–पश्चिमी भारत के धार्मिक अनुष्ठानों में दो ऐसे केंद्रीय तत्व थे जिसमें ये तीनों जनजातियाँ एक साझी परम्परा और विधि विधान का निर्वाह करती थीं। वे दो मूल तत्व थे – मंत्रोच्चारण और अग्नि–पूजा। भारतीय–आर्य–भाषी पुरुओं के पुरोहित ‘अंगिरा’ ऋषि थे। ईरानी शाखा के अणुओं के पुजारी ‘भृगु’ ऋषि थे। थोड़ा और पश्चिम की ओर बढ़ने पर अपनी बनावट की कोई ख़ास पहचान लिए बिना दृहयु जनजाति की बसावट थी। [उनके ‘दृहयु’ नामकरण के पीछे के कारणों को जानने के लिए (तलगेरी २०००:२५४–२६०, २००८: २४७–२५०) को देखा जा सकता है और वैसे ही ‘अंगिरा–भृगु’ के बारे में विस्तार से जानने के लिए (तलगेरी २०००:१६४–१८०) देखा जा सकता है।]
ऋग्वेद और अवेस्ता में इस बात का स्पष्ट उल्लेख़ है कि अपने– अपने पुरोहितों के पौरिहत्य में परस्पर प्रतिद्वंद्वी तीन जनजातियाँ थीं। अंगिरा और भृगु के बाद तीसरी जनजाति ‘दृहयु’ की थी। ऋग्वेद के सातवें मंडल के अठारहवें सूक्त की छठी ऋचा में राजा सुदास के प्रतिद्वंद्वी ‘अनु–दृहयु गठबंधन’ के पुजारी की चर्चा ‘भृगु और दृहयु’ के रूप में है। ठीक उसी तरह अवेस्ता के वेन्दिदाद १९ में ‘अंगरा’ और ‘द्रु’ का विवरण मिलता है जो जरथुष्ट्र को अहुर मज़दा के पथ से डिगाने की भरपूर कोशिश करते हैं। ( जरथुष्ट्र के साथ–साथ अथर्व या भृगु भी इरानियों के पुरोहित थे।)
प्राचीन भारोपीय शाखाओं के समग्र धार्मिक तन्तुओं में समानता के तत्व का अध्ययन करने के पश्चात विन इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि “सेल्टिक, रोमन और भारतीय ईरानी, ये सभी, अति प्राचीनकाल की साझी भारोपीय धार्मिक विरासत के वाहक हैं। ( विन १९९५:१०३)
पुरोहितों के मौलिक आद्य–भारोपीय लक्षणों से लबरेज़ इकलौता यूरोपीय समुदाय यदि कोई है तो, वह सेल्टिक समुदाय ही है क्योंकि वैदिक और अवेस्तायी धार्मिक तत्वों के वे दो मूल लक्षण, मंत्रोच्चार और अग्नि–पूजा, इस समुदाय के धर्मों में भी उतनी ही प्रमुखता से पाए जाते हैं। इसने ‘द्रुई’ अर्थात दृहयु के उस असली नाम को भी अभी तक बचा रखा है। जैसा कि हम वैदिक और ईरानी दोनों धर्मों मे समान रूप से पाते हैं :
क – ‘सेल्टिक द्रुई’ का पाठ्यक्रम भी वर्षों तक मनुष्य के मुख से श्लोकों और छंदों में छन–छन कर श्रुतियों और स्मृतियों में पीढ़ी–दर–पीढ़ी बहता रहा है। (विन १९९५:५४) और
ख – अग्नि–पूजा इस धर्म का भी केंद्र–बिंदु था।अग्नि–पूजा की परम्परा की शुरुआत भृगुओं ने ही की थी और इस बात का श्रेय उन्हें ऋग्वेद भी देता है। हालाँकि यह भी उतना ही सही है कि ऋग्वेद के पुराने मंडलों में भृगुओं को शत्रु के रूप में चित्रित किया गया है (तलगेरी २०००:१७२–१७४)। उसी तरह अणु जनजाति के ‘भृगु’ को सेल्टिक परंपरा में सबसे पुराने ऋषि–मुनि के रुप में सीधे नहीं याद कर, घुमा–फिराकर देवताओं के रूप में याद किया जाता है। तीन में से दो सेल्टिक देवियों के नाम ‘अणु’ और ‘ब्रिगी’ हैं। बाक़ी सारी देवियाँ उर्वरा की शक्ति का प्रतीक हैं, लेकिन ब्रिगी ज्ञान, संस्कृति और प्रतिभा की भी देवी हैं।(लारोऊज १९५९: २३९) । और सबसे बढ़कर, ब्रिगी अग्नि की चिरंतनता की संरक्षक देवी भी हैं जैसा कि ईरानी पुरोहितों द्वारा और ऋग्वेद में भी (३/२३) अग्नि को शाश्वत कहा गया है। आयरलैंड के कील्डेयर में ब्रिगी देवी के मुख्य मंदिर में देखा जा सकता है कि किस तरह मंदिर के गर्भ–गृह में पुजारिनें प्रज्वलित ज्वाला को निरंतर जलाकर उसके स्वरूप को चिरंतन बनाए रखती हैं।
जहाँ एक ओर सेल्टिक धार्मिक परम्परा ने आद्य भारोपीय पौरिहत्य तत्व के मूल स्वरूप को द्रुई, अणु और भृगु के नामों में बचाए रखा, वहीं यह बात भी उतनी ही साफ़ है कि इस तरह के पौरिहत्य की यह परम्परा बाक़ी सभी यूरोपीय शाखाओं में भी उतनी ही मौजूद थी।
क – ‘दृहयु’ या इसके अन्य सजातीय शब्द ‘द्रुह’, ‘द्रुघ’, ‘द्रोघ’, ‘द्रोह’ आदि ऋग्वेद में और ‘द्रु’ शब्द अवेस्ता में शत्रुओं और दैत्यों के लिए ही प्रयुक्त हुए हैं। ठीक इसके उलट दिलचस्प रूप से, इसके सजातीय शब्दों का उपयोग यूरोपीय शाखाओं में बिल्कुल विलोमार्थक अभिप्रायों में हुआ है। सेल्टिक लोगों के लिए ‘द्रुई’ पुजारी थे। बाल्टिक और स्लावी भाषा में इस शब्द का अर्थ मित्र होता है।(लिथुआनियायी में ‘द्रौगास’ और रूसी में ‘द्रुग’)। जर्मन भाषा में इसका अर्थ सैनिक होता है। उग्र पूजारियों को मित्र के रूप में चित्रित किया गया है। ऋग्वेद में सुदास के शत्रुओं के पुरोहितों के संदर्भ की ग्रिफ़िथ इस प्रकार से व्याख्या करते हैं “ब्रिगुओं और दृहयुयों ने बड़ी तेज़ी से सुना, दो दूरस्थ जनजातियों के मध्य मित्र ने मित्र को बचा लिया”
ख – घुमा–फिराकर जर्मन परम्परा में भी भृगु को याद कर ही लिया जाता है।छंद और वाक् के देवता ‘ब्रगी’ हैं। हालाँकि अग्नि–पूजा से इनका कोई संबंध नहीं और इसी कारण ये अवहेलना के पात्र भी हुए हैं, इनके नाम की व्युत्पत्ति का मूल ‘ब्रग’ शब्द में ढूँढा जाता है जिसका अर्थ होता है ‘चमकना’। कुल मिलाकर इनके नाम का भी उत्स वहीं भारोपीय मूल है जहाँ से ‘भृगु’ शब्द का उन्मेष होता है। भृगु ही वैदिक अग्नि पूजा के अन्वेषक हैं। वहीं हाल यूनानी (ग्रीक) अग्नि–पुरोहित ‘फ़्लेग’ के साथ भी है। यह सब मिलाकर भारतीय इतिहास परम्परा में दृहयु की पहचान को भारोपीय शाखाओं को पूर्वजों द्वारा बोली जानेवाली शाखा के साथ सुनिश्चित करता है
२ – जोहना निकोल्स और उनके अन्वेषी भाषाशास्त्री साथियों ने इस विषय में बड़ा ही गहन शोध किया है। उनके शोध का शीर्षक है – ‘भारोपीय भाषायी विस्तार का उपरिकेंद्र ( The Epicenter of the Indo-European Linguistic Spread)”। इसमें उन्होंने उन शब्दों पर शोध किए हैं जो बहुत पहले पश्चिम एशिया ( सेमिटिक और सुमेरियन) से उधार के रूप में आकर भारोपीय और अन्य भाषा परिवारों में भी जैसे कौकेसियन ( कार्टेवेलियन, अबखज–सिरसैसियन और नख–दाघेस्तनियन के अलग –अलग तीन समूहों के साथ) में शामिल हो गए। साथ–साथ उन्होंने इन उधारी शब्दों के उस प्रकार और स्वरूप की भी समीक्षा की जिस आकृति में वे इन भारोपीय भाषा परिवार या उनकी अन्य शाखाओं में समाहित हो गए और इसी क्रम में उरेलिक और उससे जुड़ी भाषाओं के भारोपीय भाषाओं से अंतरसंबंध के साथ–साथ अनेक प्रकार के भाषायी सबूतों से उनका सामना हुआ।
“आद्य–भारोपीय भाषाओं के ठिकानों से संबंधित अनेक सबूत यहाँ प्रस्तुत किए गए हैं। पूराने उधारी शब्द अपनी यात्रा के रास्तों के उन रेगिस्तानी प्रक्षेप वक्र की ओर इशारा करते हैं जो मेसोपोटामिया से हटकर दूर पूर्वी मरुस्थलों से होकर गुज़रते हैं। वंश–वृक्ष की बनावट, अपने फैलाव के पश्चिमी किनारे पर आनुवंशिक विविधताओं का जमवाड़ा, टोकारियन की स्थिति और शुरू की बोलियों के भूगोल के बारे में उसका निहितार्थ, एशिया माइनर में अनाटोलियन के होने के शुरुआती प्रमाण और भाषिक लक्षणों का सेंटम(यूरोपीय) तथा सतम(ईरानी) में बँट जाना – ये सारे तत्व एक ही दिशा की ओर संकेत करते हैं : बहुत दिनों तक टिका रहने वाला भाषाओं का पश्चिम–मुखी प्रक्षेप–वक्र मार्ग एक पूर्वी ठिकाने की ओर संकेत करता है। साथ ही, भारोपीय भाषा के विस्तार के तीनों प्रक्षेप–वक्र–मार्ग कैस्पियन सागर के पूर्वी किनारे की ओर संकेत करते हैं। ‘सतम’ शाखा की ओर झुकाव का भी फैलाव कैस्पियन के दक्षिण पूरब ठिकाने से ही निकलता दिखता है। सतम भाषा तीनों प्रक्षेप–वक्र मार्गों के अवसान बिंदु पर लेट–लतीफ़ पहुँचती दिखायी देती है।(सतम का खिसकाव आद्य–भारोपीय के बाद की परंतु भारोपीय की शुरुआती घटना ही है)। इससे यहीं निष्कर्ष निकलता है कि भारोपीय शाखा का विस्तार का भी ठिकाना प्राचीन बैक्ट्रिया–सौगदिया के आसपास के क्षेत्र ही हैं (निकोल्स १९९७:१३७)। “ कहने का अर्थ यह है कि ये सारे भाषायी सबूत यहीं दिखाते हैं कि यूरोपीय शाखाओं के विस्तार का ठिकाना मध्य एशिया में अफ़ग़ानिस्तान के निकास द्वार पर ही था और पुराणों में दृहयु जनजाति के अप्रवासन की भी कहानी इन्हीं सबूतों को पुष्ट करती हैं।
३ – ऊपर के अन्वेषण मध्य एशिया के पश्चिम और दक्षिण–पश्चिम की भाषाओं की बोलियों के आपसी भाषिक संपर्क से संबंधित हैं। ऊपर निकोल्स के द्वारा खोजे गए सबूतों से अलग हटकर स्वतंत्र रूप से भी यदि देखें तो थोड़ा और पूरब बढ़ने पर तमाम सबूत मिल जाते हैं।
अ – शुंग–तुंग–चांग नामक चीनी मूल के एक पश्चिमी विद्वान भाषा–शास्त्री ने प्राचीन चीनी शब्दावली (बरनार्ड कार्लग्रे द्वारा पुनर्संपादित ग्रैमट्टा सेरिका १९४०) और आद्य–भारोपीय शब्दावली की व्युत्पत्ति (जूलीयस पोकॉर्नी द्वार पुनर्संपादित इंडो जरमेनैशेज एटीमोलोजाइशेज़ वर्टरबुक १९५९) के आपसी संबंधों का बहुत ही गहरायी से अध्ययन किया है। इस अध्ययन के उपरांत उन्होंने अपना मंतव्य दिया कि चीन की प्राचीन शब्दावलियों की व्युत्पत्ति की प्रक्रिया पर भारोपिय भाषाओं का गहन प्रभाव है : “भारोपीय बोलियों में जर्मन भाषा क़रीब–क़रीब चीन की प्राचीन भाषा के काफ़ी नज़दीक और समान है (चांग १९८८:३२)।“ और यह सब यहीं दिखाता है कि “ यूरोप की ओर खिसकने से पहले भारोपीय भाषाएँ एक काफ़ी लम्बे अरसे, क़रीब हज़ार से भी अधिक सालों तक साथ–साथ मध्य एशिया में फलती–फूलती रहीं (चांग १९८८:३३)।“
आ – आद्य–जर्मन और आद्य–सेल्टिक भाषाओं के प्राचीन मध्य एशिया में सहवास की भी पुष्टि ग़मक्रेलिज और इवानोव ने अपनी गहन शोधात्मक पुस्तक “The separation of the Ancient European Dialects from Proto Indo-European and The migration of Indo-European tribes across central Asia” अर्थात “ आद्य भारोपीय भाषाओं से प्राचीन यूरोपीय बोलियों का अलग टूटना और मध्य एशिया से भारोपीय जनजातियों का अप्रवासन”(ग़मक्रेलिज १९१५:८३१–८४७) में की है। यहाँ उन्होंने यूरोपीय बोलियों के मध्य–एशिया से यूरोप की यात्रा के पथ को अंकित किया है। अपनी यात्रा के पथ पर पड़ने वाली भाषाओं के संसर्ग–चिह्नों को बटोरते हुए और अपने समागम–तन्तुओं के जिस अवशेष को छींटते हुए यूरोपीय बोली आगे–आगे चल रही है, पीछे–पीछे उन्ही अवशेष बिंदुओं को बटोरते–बटोरते ग़मक्रेलिज ने यह पथ–रेखा खींची है। यहाँ मिलने वाले सबूतों में एनेसियन और आल्टिक भाषाओं के यूरोपीय भाषाओं से आपसी लेन–देन वाले शब्द भी शामिल हो जाते हैं। इससे पहले प्राचीन चीनी भाषा और यूरोपीय बोली के शाब्दिक आदान–प्रदान की गाथा हम पढ़ चुके हैं। सबसे प्रमुख बात तो यह है कि ग़मक्रेलिज और इवानोव, दोनों इस परिकल्पना के प्रतिपादक हैं कि यूरोपीय भाषाओं की उत्पत्ति का मूल स्थान अनाटोलियो है। किंतु, उनकी परिकल्पना का एक महत्वपूर्ण बिंदु यह भी है कि अनाटोलियो की गर्भ–गुफा से ये भाषाएँ पहले मध्य एशिया में आयीं। फिर, वहाँ से वे यूरोप की ओर चली गयीं।
४ – ऐसे ढेर सारे अन्य तमाम सबूत भी भरे पड़े हैं जो यह साबित करते हैं कि भारोपीय भाषाओं का भ्रमण पश्चिम दिशा की ओर हुआ न कि पूरब दिशा में। उदाहरण के तौर पर –
अ – प्राचीन भारोपीय भाषाओं से लिए गए ‘टौरस’ और ‘वाइन’ जैसे अनेक सेमिटिक शब्द पश्चिम की सभी नवों शाखाओं में तो पायी जाती हैं, किंतु भारतीय आर्य, ईरानी और टोकारियन, इन तीन शाखाओं में नहीं पायी जातीं। वाइन शब्द अपने पश्चिम की ओर यात्रा के दौरान अपनी संरचनाओं में मामूली बदलाव भी लाता रहा और पश्चिमी शाखाओं में अपनी तीन नयी बनावट में शामिल हो गया। ‘वाइन (wine)’ शब्द पुरानी हित्ती या हेटाइट (अनाटोलियन) शाखा में ‘वायोनो {wi(o)no}’, यूरोपीय शाखाओं में ‘विनो (weino)’ और अंतिम शाखाओं (अल्बानी, ग्रीक और अर्मेनियायी) में ‘वोईनो(woino)’ रूप में पाया जाता है।
आ – पूर्वी यूरोप की यूरेलिक भाषाओं ने बड़े पैमाने पर भारतीय–आर्य और ईरानी भाषाओं के शब्द लिए हैं। किंतु इसकी उल्टी प्रक्रिया नहीं पायी गयी है। इससे भी यह साफ़ पता चलता है की ये दोनों पूर्वी शाखाएँ (भारतीय आर्य और ईरानी) कतई न तो पश्चिम से आयी थीं और न ही यूरेलिक भाषाओं से कभी इनका कोई सम्पर्क भी रहा। ऐसा भले संभव हो कि भारतीय–आर्य और ईरानी भाषा बोलने वाले लोगों का एक छोटा समूह यूरोपीय शाखा वाले लोगों के साथ पश्चिम दिशा में चलकर यूरेलिक भाषी लोगों की जमात में बस गया हो और अपनी बोली उनकी भाषा में उन्होंने घोल दी हों।
[ प्रसंगवश बताते चलें कि फ़िनलैंड के विद्वान परपोला इस अवधारणा के प्रबल प्रतिपादक हैं कि भारतीय–ईरानी पूरब की अपनी ऐतिहासिक रिहाईशी भूमि में अवतरित होने से पहले मूल रूप से सुदूर पश्चिम में यूरेलिक से दक्षिण पूर्व बसे, ‘फ़िन्नो–युग्रिक’ लोग थे। वह अक्सर इस बात को दुहराते रहते हैं कि फ़िन्नो युग्रिक आबादी में इस संबंध में अनेक भारतीय–ईरानी, ईरानी या भारतीय–आर्य तत्व पाए जाते हैं। इसी आधार पर वह इस नतीजे पर पहुँच जाते हैं कि भारतीय ईरानी यूरेलिक भूभाग से विस्थापित होकर आए थे।]
यह अपने आप में अधकचरे ज्ञान से निकले उलटफेर का नायाब नमूना प्रतीत होता है। सही मायने में तो भारतीय–ईरानी या ईरानी या भारतीय आर्य भाषाओं के प्रचुर मात्रा में ऐसे प्राचीन शब्द–भंडार हैं जो फ़िन्नो–युग्रिक भाषा में उधार लिए गए हैं। “भारतीय–ईरानी भाषा में प्रयुक्त ऐसे शब्दों की प्राचीनतम परत साझे रूप से आद्य–भारातीय–आर्य और आद्य–ईरानी भाषा में तीन तरह के सांस्कृतिक संदर्भों में प्रयुक्त हुए हैं – आर्थिक उत्पादन के संदर्भ में, सामाजिक संबंधों के संदर्भ में और धार्मिक मान्यताओं के संदर्भ में। आर्थिक संदर्भ में पालतू जानवरों के नाम हैं। यथा – भेड़, मेमना, बैक्ट्रियायी ऊँट, बिना बधिया किए घोड़े, बछड़े, सुअर के बच्चे आदि । देहाती काम–काज और उत्पादों के संदर्भ में थन, चमड़ा, ऊन, कपड़ा, चरख़ा आदि। खेती–बाड़ी के संदर्भ में अन्न, अन्न की बाल, मद्य, दरांती, हँसिया आदि। औज़ार के संदर्भ में आरा, सुआ, सुतरी, कोड़ा, सींग, हथौड़ा, गदा आदि। ढेर सारे शब्द सामाजिक संदर्भों और रिश्तों से संबंधित हैं। जैसे – मनुष्य, बहन, अनाथ, नाम आदि। इसमें कुछ ऐसे शब्द भी शामिल हैं जो भारतीय–ईरानी भाषा में मुख्य स्थान रखते हैं। जैसे – अनार्यों के लिए ‘दास’, असुर आदि। कुछ शब्द धार्मिक विधि–विधान, रिवाज और कर्म–कांडों के संदर्भों से संबंधित अर्थों में प्रयुक्त हुए हैं। जैसे – स्वर्ग, नरक, ईश्वर, देवता, ख़ुशी, इंद्र का अस्त्र वज्र, मृत, नश्वर, आर्यों के दफ़न–संस्कार में प्रयुक्त होने वाला अंग किडनी आदि।कुछ ऐसे नशीले पेय पदार्थ जो भारतीय–ईरानी और फ़िन्नो–युग्रिक पुजारियों द्वारा समान रूप से प्रयोग में लाए जाते थे उनको इंगित करने वाले शब्द हैं। जैसे – शहद, भांग आदि। (कुज़मीना २००१:२९०–२९१)”
लेकिन कई दशकों के अथक अध्ययन और अनुसंधानिक प्रयास के बावजूद एक भी ऐसा शब्द नहीं खोजा जा सका जो फ़िन्नो–युग्रिक भाषा से उधार के तौर पर पूरब के भारतीय–ईरानी भाषाओं में प्रवेश किया हो।
तर्क और तथ्य से छत्तीस का आँकड़ा रखने वाले उन कतिपय पूर्वाग्रही विद्वानों की ओर से यदि आँखें मूँद लें तो ऐसे कोई भी संकेत नहीं मिलते जो यह साबित कर सकें कि ये पूरबिया भारतीय–ईरानी कहीं पश्चिम से चलकर आए थे। हाँ, प्राचीन काल में पूरब से चलकर फ़िन्नो–युग्रिक पश्चिमी क्षेत्र में समाने वाले मिट्टी भारतीय–आर्य जैसे कुछ ख़ास भारतीय ईरानी समुदाय ज़रूर थे जो अब इतिहास की करवटों में लुप्तप्राय हो गए हैं।
बाहर से आकर बसने वाले अप्रवासी हमेशा स्थानीय भाषा में कुछ नए शब्दों का योगदान करते हैं। भारतीय भाषाओं में भी बड़ी मात्रा में ऐसे शब्दों का वजूद है जो मुग़ल शासन के दौरान अरबी–फ़ारसी से आए। दक्षिण–पूर्व एशिया और उत्तरी एशिया के औस्ट्रिक और चीनी–तिब्बती भाषाओं ने संस्कृत से शब्द ग्रहण किए। गोआ की कोंकड़ी बोली में पुर्तगाली शब्दों का विलय हुआ। बाल्टी के लिए ‘बालदे’ और रोटी एक लिए ‘पाव’ शब्द तो भारत की दूसरी भाषाओं में भी घुस गए। इंग्लैंड पर नौरमन आक्रमण के फलस्वरूप अंग्रेज़ी भाषा में ढेर सारे फ़्रांसीसी शब्द प्रवेश कर गए। पुद्दुचेरी की तमिल बोली में भी ढेर सारे फ़्रांसीसी शब्द हैं। उसी तरह ब्रिटेन के पुराने उपनिवेशों की भाषाओं में भी अंग्रेज़ी शब्दों का अनवरत प्रवाह दिखता है।
हर हाल में ऐसा भी होता है कि अप्रवासी अपनी भाषा में भी स्थानीय बोली के शब्दों को आत्मसात कर लेते हैं। किंतु, ऊपर दिये गए दृष्टांतों में एक भी ऐसा अवसर नहीं दिखायी देता है जहाँ अप्रवासियों ने उस स्थानीय बोली के शब्दों को अपने मूल स्थान में प्रेषित कर दिया हो। कोई भी भारतीय शब्द अरबी या फ़ारसी में घुलता नहीं दिखायी देता है। थाई, कंबोडियाई या इंडोनेशियाई शब्द संस्कृत भाषा में नहीं मिलते हैं। इसके अपवाद वहीं दिखायी देते हैं जहाँ उपनिवेशवादियों ने अपने उपनिवेश की भूमि को छोड़ दिया हो और वापस अपनी मूलभूमि में लौटकर अपने साथ लाए वहाँ के स्थानीय शब्दों को अपने साहित्य में पिरो दिया हो। उदाहरण के तौर पर अंग्रेज़ी भाषा में ऐसे उदाहरण दिखायी देते हैं।
इसलिए उपलब्ध प्रामाणिक साक्ष्य इस बात को पूरी तरह से नकारते हैं कि भारतीय–ईरानी पश्चिम से पूरब की ओर आए थे। उलटे, हम यह देखते हैं कि भारतीय–ईरानी शब्द फ़िन्नो–युग्रिक भाषा में तो पाए जाते हैं, लेकिन फ़िन्नो–युग्रिक शब्द भारतीय–ईरानी भाषा में नहीं पाए जाते। यह निस्संदिग्ध रूप से इस बात को साबित करता है कि भारतीय–ईरानी समुदाय का यदि कोई अप्रवासी वर्ग था तो वह विस्थापित होकर फ़िन्नो–युग्रिक भूमि की ओर गया था न कि फ़िन्नो–युग्रिक भूभाग से भारतीय–ईरानी क्षेत्र में आया था।
सबसे ज़्यादा अचरज तो परपोला के इस तर्क पर होता है जब वह कहते हैं कि फ़िन्नो–युग्रिक भाषा ने इन शब्दों को भारतीय–आर्य और ईरानी लोगों के पूर्वजों से शुरू में ही दक्षिण रूस के आस–पास ले लिया था। संक्षेप में कहा जाय तो इतनी दूर दक्षिण रूस में और इतना पहले अर्थात वैदिक युग से भी पहले भारतीय–ईरानियों के पूर्वजों द्वारा ‘आर्य’, ‘दास’ ‘मेधु (लेकिन मेलिथ नहीं)’ और यहाँ तक की बैक्टरियायी ऊँटों के नाम प्रयोग किए जाते थे!
इ – आद्य–भारोपीय और आद्य– औस्ट्रोनेसियायी ( इंडोनेशिया, मलयेसिया और प्रशांत महासागर के द्वीपों की भाषाओँ के पुरातन स्वरूप) भाषाओं के बीच आद्य भारोपीय काल से भी बहुत पहले से आपसी संपर्क थे। इसिडोर डायन ( डायन : १९७०) ने इन दोनों भाषाओं के बीच उल्लेखनीय समानताओं को ढूँढ निकाला। उदाहरण के तौर पर पहले चार अंकों के लिए शब्द, व्यक्तिवाचक सर्वनाम के अधिकांश शब्द और पानी तथा ज़मीन के लिए शब्द। डायन (१९७०:४३९) यह बतलाते हैं कि “ऐसी तुलनाओं या समानताओं को हम कम–से–कम इतना कम और यहाँ तक कि इतनी अधिकतर मात्रा में हम ढूँढकर तो निकाल ही सकते हैं जहाँ तक अर्थों की गुणवत्ता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। और यदि कोई ऐसा संपर्क वाक़ई था तो यह भारत के अलावा और कहाँ हो सकता है?
प्रसिद्ध भाषविद श्री एस के चटर्जी स्वतंत्र रूप से अपने शोध का यह नतीजा रखते हैं कि भारत ही वह केंद्र–बिंदु था जहाँ से औस्ट्रिक बोलियाँ पूरब के भूभाग और प्रशांत महासागर के टापुओं पर फैलीं ( चटर्जी १९५१/१९९६:१५६)। और, औस्ट्रिक बोलियाँ अपने मूल रूप में अर्थात औस्ट्रो–एशियायी तथा औस्ट्रोनेशियायी शाखाओं के परमोद्भव बिंदु के रूप में अपनी असली पहचान भारत की माटी में ही तलाशती हैं (चटर्जी १९५१/१९९६:१५०)।
आज के ज़माने में वर्तमान सभी भारोपीय भाषा समुदायों में मात्र यूरोपीय बोलियाँ ही ऐसी हैं जिनके अपनी ऐतिहासिक बसावट की ज़मीन ( अधिकांशतः यूरोप में ही) में पहुँचने की यात्रा के पुरातात्त्विक साक्ष्य मौजूद हैं। जैसा कि विन का कहना है, “एक ‘साझे यूरोपीय क्षितिज’ का विकास ३००० ईसापूर्व के बाद ही होता है। यह तक़रीबन पिट ग्रेव संस्कृति के विस्तार का समय था (कुरगन संस्कृति का तीसरा चरण)। चीनी–मिट्टी से बने पदार्थों के ख़ास शिल्प के आधार पर इसे सामान्यतः कौरडेड वेयर होरिज़ोन कहते हैं। इस संस्कृति के भिन्न–भिन्न स्वरूपों के मध्य, पूर्वी एवं उत्तरी यूरोप में फैलने से उत्पन्न परिदृश्य को ही आद्य–भारोपीय भाषा और संस्कृति के आस्तित्व में आने के के कारण के रूप में व्याखायित किया गया है। जिस भूभाग में कौरडेड वेयर या बैटल ऐक्स संस्कृति का विस्तार हुआ, भौगोलिक रूप से उसी की कोख से पश्चिमी या यूरोपीय भाषा–शाखाओं, जर्मन, बाल्टिक, स्लावी, सेल्टिक और इटालिक भाषाओं का जन्म हुआ (विन १९९५:३४३, ३४९–३५०)।“
कौरडेड वेयर संस्कृति की उत्पति के बीज दक्षिण रूस के मैदानी भाग में कुरगन संस्कृति से पूरब की ओर, कौकेसस के उत्तर और यूराल के दक्षिण में भी मिले हैं। और बहुत हाल के शोधों में तो कुरगन संस्कृति की प्राचीनतम जड़ों के अवशेष मध्य एशिया में भी पाए गए हैं।
जहाँ तक पुरातात्विक सबूतों की बात है तो उनसे एशिया, ग्रीस और अनाटोलिया में भारोपीय तत्वों की उपस्थिति की बात बिलकुल नहीं बन पाती, लेकिन यूरोपीय शाखाओं के वहाँ होने की बात का ख़ुलासा ज़रूर मिलता है। फिर वहीं से उन यूरोपीय शाखाओं के पूर्वी यूरोप होते हुए यूरोप के उत्तरी और पश्चिमी भाग तक पहुँच जाने की बात सही बैठ जाती है।
क्रमशः..