(भाग – 8 से आगे)
ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य (छ)
(मूल शोध – श्री श्रीकांत तलगेरी)
(हिंदी–प्रस्तुति – विश्वमोहन)
अन्य भारोपीय शाखाओं के अपनी जगह छोड़ने का इतिहास
जैसा कि भाषायी आँकडें यह दिखाते हैं क़ि अपनी मूल मातृभूमि में भारोपीय–भाषी बोलियाँ बोलने वाले समूहों में से ही एक भारतीय आर्य भी थे। इस तरह की अलग–अलग बोलियाँ बोलने वाले अन्य समूह भी ३००० वर्ष ईसा पूर्व निवास करते थे और आज का ज्ञान यह बतलाता है कि इस भारोपीय भाषा परिवार में अलग–अलग ११ शाखाएँ विकसित हो गयी थीं।
पौराणिक इतिहास से यह भी पता चलता है कि उस समय उस क्षेत्र में निवास करने वाली भारतीय-आर्यों की अनेक जनजातियों में से एक थी – ‘पुरु’ जनजाति। ऋग्वेद के मंडलों में उनकी पहचान पुरुओं के एक ख़ास वंश की उपजाति ‘भरत–पुरु’ के रूप में है। ये ‘भरत–पुरु’ ईसा से ३००० साल पहले पश्चिमोत्तर उत्तर–प्रदेश और हरियाणा के मूल निवासी थे। उनके आस–पास रहने वाली अन्य जन–जातियाँ भी थीं। इस आशय की तार्किक परिणति तो इसी बात में होती है कि ईसा से ३००० साल पहले अपने हरियाणा और उत्तर–पश्चिमी उत्तर प्रदेश की मातृभूमि में पुरु जनजाति रहती थी और इनके परित: अन्य बोलियाँ बोलने वाली जो जनजातियाँ निवास करती थीं, उनकी ही बोलियों ने भारोपीय भाषा– परिवार की अन्य शाखाओं को जन्म दिया।
अगर उत्तर भारत को भारोपीय लोगों का मूल–स्थान मान लिया जाय, तो इर्द–गिर्द रहने वाली जनजातियों के अपनी जगह से खिसककर अगर किसी दिशा की ओर बढ़ने की संभावना जाती है तो वह दिशा है – ‘पुरुओं’ के पश्चिम की ओर । ऐसा इसलिए भी सही है कि भारोपीय भाषाओं की शाखाओं की बहुलता भारत के सुदूर पश्चिम में ही पायी जाती है। और सबसे अधिक यदि कोई सम्भावना जगती है तो इन ‘अणु’ और ‘दृहयु’ जनजातियों पर जाकर आँखें टिकती हैं। आइए इस तथ्य की जाँच करें:
दोनों जनजातियों की भौगोलिक स्थिति
पौराणिक आख्यानों के आधार पर ‘अणु’ जनजाति मूलतः ‘पुरुओं’ के उत्तर में आज के कश्मीर से ठीक पश्चिम या इसके आस–पास के क्षेत्रों में रहती थीं और ‘दृहयु’ जनजाति ‘पुरुओं’ के पश्चिम वृहत पंजाब के क्षेत्र में रहती थी। यहीं क्षेत्र आज का उत्तरी पाकिस्तान है। ऋग्वेद से भी थोड़ा पहले के समय में कुछ ऐसी पौराणिक घटनाओं का पता चलता है जिसके कारण इन दोनों जनजातियों के रिहायशी इलाक़ों में थोड़े फेर–बदल की आहट मिलती है। ‘दृहयु’ अपने विजय अभियान में पूरब और दक्षिण की ओर बढ़ने लगे और इस क्रम में उनकी अन्य जनजातियों से अनेक मुठभेड़ें हुई। इसका नतीजा यह निकला कि सब विरोधी जनजातियाँ एकजुट होकर उनसे टक्कर लेने लगी और उन्हें खदेड़ते–खदेड़ते पूरब से ही वापस कौन कहे, बल्कि अपनी मूल भूमि से भी दूर और पश्चिम में अर्थात आज के पाकिस्तान में उन्हें फेंक दिया। इस भाग में ‘अणु’ जनजाति की एक बड़ी शाखा रहती थी जो अब पश्चिम और दक्षिण दिशा की ओर खिसक गयी। “उसिनर के नेतृत्व में एक शाखा ने पंजाब की पूर्वी सीमा के क्षेत्र तक कई साम्राज्यों की नींव डाल दी। उसके लोकप्रिय पुत्र ‘शिवि’ ने शिवपुर में शिवि साम्राज्य की स्थापना की। इसे ही ऋग्वेद के सातवें मंडल के १८/(७) में ‘शिव’ कहा गया है। पश्चिम की ओर शिवि के साम्राज्य विस्तार का अभियान चालू रहा और उत्तर–पश्चिमी कोने को छोड़कर उसने क़रीब–क़रीब समूचा पंजाब जीत लिया और इस राज्य का नाम ‘गांधार’ रखा ।“ (पार्जिटर १९६२–२६२)
इस तरह से ‘अणु’ अब दो स्थानों में बस गये – पहला उत्तर की ओर कश्मीर और कश्मीर के पश्चिमी क्षेत्र में, तथा दूसरे ‘पुरु’ के पश्चिम अर्थात आज के उत्तरी पाकिस्तान के क्षेत्र में।
दूसरी तरफ़, अपने मूल स्थान में कुछ बचे–खुचे अवशेषों को छोड़कर बाक़ी सारे ‘दृहयु’ पश्चिम और उत्तर–पश्चिम की ओर ठेल दिए गए, जो कि पंजाब का पश्चिमोत्तर कोना और आज का अफ़ग़ानिस्तान है।
अप्रवासी शाखाओं का भाषायी वर्गीकरण
अपनी मूल भूमि (जहाँ कहीं भी हो) से हटने के कालक्रम के अनुसार बारहों भारोपीय शाखाओं की भाषिक विशिष्टताओं के विश्लेषण करने के उपरांत उन्हें लगभग तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है।
१ – शुरू की शाखाएँ, अनाटोलियन (हिटायट/हित्ती) शाखा और टोकारियन शाखा।
२ – यूरोपीय शाखाएँ, इटालिक, सेल्टिक, जर्मन, बाल्टिक और स्लावी शाखाएँ।
३ – अंतिम शाखाएँ, अल्बानी, ग्रीक, अर्मेनियायी, ईरानी और भारतीय–आर्य। इनके अपनी मातृभूमि से बाहर निकलने का कालक्रम बिल्कुल स्पष्ट नहीं है, इसलिए इन्हें अपने उन स्थानों के पश्चिम से पूरब की ओर के क्रम में यहाँ रखा गया है जहाँ के इतिहास की ये शाखाएँ सांस्कृतिक पहचान हैं।
भाषा के आधार पर विश्लेषण किए जाने के मुख्य आधार बिंदु निम्नलिखित हैं :
अ – अनाटोलियन शाखा की अपनी मातृभूमि से शुरू में ही विदायी हो जाने के बाद वहाँ बची बाक़ी शाखाओं में कुछ ऐसी साझी भाषिक लक्षणों का उदय हुआ जिससे अनाटोलियन शाखा वंचित रह गयी । ये भाषिक लक्षण इस प्रकार हैं :
क़ – ‘आ’, ‘ई’ और ‘ऊ’ से अंत होने वाले शब्दों में स्त्रीलिंग का भाव। (गमक्रेलिज १९९५:३५)
ख – ‘ओईस’ से अंत होने वाले बहुवचन पुल्लिंग कर्ता। (गमक्रेलिज १९९५:३४५)
ग – स्थिति को दर्शाने वाले संकेतवाचक निश्चयात्मक सर्वनाम में *सो, *सा, तो (बहुवचन थो) (गमक्रेलिज १९९५:३४५)
आ – शुरू की और अंत की शाखाओं में वृहत पैमाने पर कोई साझे भाषायी लक्षण नहीं दिखते हैं। केवल ऊपर वर्णित लक्षण ही टोकारियन और अन्य सभी ग़ैर–अनाटोलियन भाषायी शाखाओं में पाए जाते हैं। इससे यह पता चलता है कि अपने मूल स्थान से निर्वसन के पश्चात भाषा परिवार की इन प्रारम्भिक और अंतिम शाखाओं में आपसी मेल–मिलाप नहीं के ही बराबर रहा।
इ – प्रारम्भिक भाषा–शाखा (अनाटोलियन और टोकारियन) के निकल जाने के बाद बची यूरोपीय और अंतिम शाखाओं में अपनी मातृभूमि में गहरा मेल–मिलाप रहा। इसी कारण इन दोनों शाखाओं के भाषायी लक्षणों में काफ़ी साझेदारी दिखती है।
१ – *ओई, *म्वॉ में मध्य। जर्मन–बाल्टिक–स्लावी, अल्बानी– ग्रीक–अर्मेनियायी–ईरानी–भारतीय आर्य। (गमक्रेलिज १९९५:३४५)
२ – *त्तर और *इष्ट में विशेषणों की तुलना। जर्मन, ग्रीक–ईरानी–भारतीय आर्य। (गमक्रेलिज १९९५:३४५)
३ – संकेतवाचक एकवचन पूलिंग *ओ। जर्मन–बाल्टिक, ईरानी–भारतीय आर्य। (गमक्रेलिज १९९५:३४५)
४ – सीटी–सी ध्वनिकारी तालव्य शब्द। बाल्टिक–स्लावी, अर्मेनियायी–ईरानी–भारतीय आर्य। (हॉक १९९९ a :१४– १५)
५ – ‘स’ और ‘श’ की ध्वनियों का ‘रुकी का नियम’। बाल्टिक–स्लावी, अर्मेनियायी–ईरानी–भारतीय आर्य। (हॉक १९९९ a :१४–१५)
६ – कंठ के पास नरम तालु और होठ से निकलने वाली ध्वनियों का मिश्रण। बाल्टिक–स्लावी, अर्मेनियायी–ईरानी–भारतीय आर्य। (हॉक १९९९ a :१४–१५)
७ – स्थानिक विभक्ति (उदाहरणार्थ संस्कृत में सप्तमी विभक्ति) *सु/षु बाल्टिक–स्लावी, गीक–ईरानी–भारतीय आर्य। (गमक्रेलिज १९९५:३४५)
८ – संबंधवाचक सर्वनाम *योस। स्लावी, ग्रीक–अर्मेनियायी–ईरानी–भारतीय आर्य। (गमक्रेलिज १९९५:३४५)
९ – संबंध–अधिकरण द्वैत *ओस। स्लावी, भारतीय आर्य। (गमक्रेलिज १९९५:३४५)।
१० – उत्तम पुरुष एकवचन सर्वनाम: कर्ता, संबंध और कर्म कारक। स्लावी,ईरानी–भारतीय आर्य। (गमक्रेलिज १९९५:३४५)
ई – कुछ भाषायी लक्षण यूरोपीय शाखा और शुरू की दो सदस्यों वाली शाखाओं में समान रूप से विद्यमान हैं:
संबंधवाचक सर्वनाम *खोईस। अनाटोलियन–टोकारियन, इटालिक–सेल्टिक। (गमक्रेलिज १९९५:३४५)
संबंधवाचक एकवचन *इ। टोकारियन, इटालिक–सेल्टिक। (गमक्रेलिज १९९५:३४५)
संयोजक *अ, *ए। टोकरियाँ, इटालिक–सेल्टिक। (गमक्रेलिज १९९५:३४५)
कर्मवाच्य मध्यक *र। अनाटोलियन–टोकरियाँ, इटालिक–सेल्टिक। (गमक्रेलिज १९९५:३४५)
अपूर्ण काल *मो। अनाटोलियन बाल्टिक–स्लावी। (गमक्रेलिज १९९५:३४५)
रूपात्मक भाव या क्रिया भाव द्योतक *ल। अनाटोलियन–टोकारियन। (गमक्रेलिज १९९५:३४५)
उ – कुछ ऐसे भाषिक लक्षण हैं जो यूरोपीय शाखायें बाद की शाखाओं के साथ तो साझा करती हैं लेकिन भारतीय आर्य भाषाओं से यहाँ वह दूरी बनाए हुए हैं।
१ – मूल प्रोटो–भारोपिय का ‘त्त’ बाल्टिक–स्लावी और ग्रीक–अल्बानी=ईरानी में बदलकर ‘स्स’ हो गया है। (भारतीय आर्य शाखा का यही ‘त्त’ अनाटोलियन में ‘त्स्त’ फिर इटालिक–सेल्टिक–जर्मन में त्स’ हो गया।)
२ – अल्पप्राण और महाप्राण व्यंजनों के उच्चारण। जर्मन–बाल्टिक–स्लावी। (लुबोत्सकी २००१:३०२)
ऊ – शुरू की शाखाओं और यूरोपीय शाखाओं के अपने मूल स्थान से प्रस्थान कर जाने के बाद अंतिम शाखाओं के आपसी मेलजोल और पारस्परिक प्रभावों ने उनके भाषिक लक्षणों और विशेषताओं में बड़े आमूल–चूल प्रभाव और प्रमुख परिवर्तन देखे।
१ – विरासत में मिली ‘क्रियापदों’ की संरचना स्वरों के गण, वृद्धि या पुनरुक्ति के कारण पूरी तरह से बदल गयी। ग्रीक, अल्बानी, अर्मेनियायी, ईरानी, भारतीय आर्य। (गमक्रेलिज १९९५: ३४०–३४१, ३४५)
२ – कर्म कारक ‘-भि-‘। अल्बानी, ग्रीक, अर्मेनियायी, ईरानी, भारतीय आर्य। (गमक्रेलिज १९९५: ३४०–३४१, ३४५)
३ – नकारात्मक या निषेधात्मक क्रियापद *मे । अल्बानी, ग्रीक, अर्मेनियायी, ईरानी, भारतीय आर्य। (मिलेट १९०८/१९६७:३९)
ओ – अंतिम शाखाओं की भाषाओं में से कुछ ने स्वरों के उच्चारण संबंधी कतिपय भाषिक लक्षण विकसित कर लिए जो भारतीय आर्य भाषाओं में अनुपस्थित रहे। जैसे स्वर के पहले आनेवाले ‘स’ का उच्चारण ‘ह’ हो जाना। ग्रीक–अर्मेनियायी–ईरानी। (मिलेट १९०८/१९६७:११३)
इतिहास में दर्ज प्रवास
‘अणु’ और ‘दृहयु’ जनजातियों का अपना मूल स्थान छोड़कर दूसरे जगह पर बस जाने की घटना इतिहास में अप्रवासन के दृष्टांत के रूप में दर्ज है। पुराणों में वर्णित पाँच ‘ऐला’ जनजातियों के निवास–स्थान के आधार पर, ‘दृहयु’ जातियों का मूल स्थान ‘पुरुओं’ के पश्चिम वृहत पंजाब के क्षेत्र में था, जो सप्त–सिंधु प्रदेश का आज का उत्तरी पाकिस्तान है। बाद में जब ‘अणुओं’ ने उन्हें वहाँ से ठेल दिया तो ऋग्वेद की रचना से पहले ही ‘दृहयु’ खिसक कर और पश्चिम की तरफ़ अफ़ग़ानिस्तान में घुस गए जिसे गांधार देश कहा जाता था। (परजाइटर १९६२:२६२)।
बाद में वे और भी आगे उत्तर की ओर खिसकते–खिसकते मध्य एशिया के और भीतर तक घुस गए। “भारतीय परम्पराओं में भी इस बात के स्पष्ट संकेत मिलते हैं कि दृहयु लोग ऐला जनजातीय क्षेत्रों से उत्तर–पश्चिम दिशा की ओर निकलकर काफ़ी दूर के देशों में चले गए, जहाँ उन्होंने कई साम्राज्यों को बसाया। (परजाइटर १९६२:२९८)।
पाँच पुराण इस गाथा से गुंजित हैं कि प्रचेता के वंशज उत्तर की ओर भारत से बाहर म्लेच्छों के देश तक फैल गए थे और वहाँ पर उन्होंने अपने साम्राज्य स्थापित कर लिए। (भार्गव १९५६/१९७१:९९)
कुछ समय बाद, जनसंख्या के दवाब के काफ़ी बढ़ जाने से दृहयु जाति के लोग भारत की सीमा के पार उत्तर में म्लेच्छों के क्षेत्र में घुस गए थे और वहाँ अपनी ढेर सारी प्रशासनिक इकाइयाँ स्थापित कर ली थीं। इस तरह अपनी आर्य–संस्कृति को भी वे अपने साथ अपनी सीमाओं से बाहर जाकर रख आए थे। (मजूमदार १९५१/१९९६:२८३)
पौराणिक ठिकानों के अनुसार ‘अणु’ कश्मीर के उत्तर और पश्चिम के इलाक़ों के मूल निवासी थे। ऋग्वेद की रचना से पहले उसिनर के नेतृत्व में उनकी एक शाखा ने पंजाब की पूर्वी सीमाओं पर अपना साम्राज्य बसा लिया था। अनंतर, जब तक ऋग्वेद के सबसे पुराने मंडलों (६, ३ और ७) की रचना पूरी हुई, उनका विजय–अभियान पश्चिम की ओर बढ़ते–बढ़ते समूचे पंजाब को पार कर इसकी उत्तरी–पश्चिमी सीमा को छू गया। (परजाइटर १९६२:२६४)
प्राचीनतम मंडलों के रचे जाने के समय, भरत–पुरु राजा सुदास और उसकी संततियों की विस्तारवादी हरकतों ने ‘अणु’ जाति के अधिकांश को पश्चिम की ओर धकेल दिया था। दसराज्ञ युद्ध में ‘भरत’ लोगों ने ‘अणुओं’ को लगभग बेदख़ल कर दिया। हम पहले भी देख चुके हैं हैं कि उनका (अणुओं का) वर्णन [७/{१८/(१३)}] ऐसे पराजित लोगों के रूप में किया गया है जो अपना सबकुछ छोड़कर पश्चिम दिशा [७/[६/(३)}] में भागे और परदेश [७/{५/(३)}] में जाकर बिखर गए।
साफ़ तौर पर दो महत्वपूर्ण अप्रवासन नज़र में आते हैं। पहला, उत्तर की तरफ़, मध्य एशिया में थोड़ा अंदर पश्चिम की ओर बढ़कर, ‘दृहयु’ जाति के लोगों का जाकर बस जाना और दूसरे, पश्चिम दिशा में अफ़ग़ानिस्तान के अंदर कुछ और पश्चिम में घुसकर, ‘अणु’ जाति के लोगों का जाकर बस जाना।
यह भारोपीय शाखाओं के दो वर्गों की पहचान करता है। पहला तो पुरानी शाखाओं के साथ मिलकर एक संगठित जातीय समुदाय वाली यूरोपीय शाखा द्वारा बनायी गयी भारोपीय भाषाओं की उत्तरी पट्टी। और दूसरे, अंतिम शाखाओं द्वारा निर्मित दक्षिणी पट्टी।
इसलिए, दृहयु की पहचान कम–से–कम यूरोपीय शाखाओं के साथ होती है ( नामकरण से संभव हो कि शुरू की शाखाएँ भी उनमें शामिल हों)। और अणु की पहचान अंतिम शाखाओं के साथ होती है, जिनमें पुरु भारतीय आर्य शामिल नहीं हैं।
ऋग्वेद के ग्रंथ और उसकी भाषा से निकले साक्ष्य
प्रचलित सिद्धांत के अनुसार मूलस्थान को दक्षिण रूस में बताते हैं। क्रमशः अनाटोलियन शाखा को सबसे पहले दक्षिण दिशा में, फिर टोकारियन शाखा को पूरब दिशा में और यूरोपीय शाखाओं को पश्चिम दिशा में विस्थापित हुआ मानते हैं। बहुत बाद में अल्बानी और ग्रीक शाखाएँ दक्षिण–पश्चिम दिशा की ओर, अर्मेनियायी शाखा दक्षिण दिशा की ओर और ईरानी तथा भारतीय–आर्य शाखाएँ पूरब की ओर चल पड़ीं।
भारत में इनके मूल–स्थान होने के सिद्धांतकारों का यह मानना है कि जहाँ तक अनाटोलियन और टोकारियन शाखाओं के अप्रवासन का संबंध है तो वे अफ़ग़ानिस्तान से निकलकर उत्तर की ओर मध्य एशिया के क्रमशः पश्चिमी और पूर्वी भागों की ओर बढ़ गयीं। बाद में उसी क्रम में इटालिक, सेल्टिक, जर्मन, बाल्टिक और स्लावी शाखाओं ने मध्य एशिया में अपने पैर फैला दिए। पहली दो शाखाओं का वजूद मध्य एशिया में काफ़ी दिनों तक बना रहा। टोकारियन भाषा तो अपने लुप्त होने तक वहीं बनी रही। अनाटोलियन शाखा भी बहुत बाद में वहाँ से पश्चिम की ओर खिसककर कजकिस्तान के रास्ते दक्षिण दिशा में कैस्पियन सागर के आस–पास अनाटोलियो (तुर्की) में समा गयी। यूरोपीय शाखाएँ उत्तर–पश्चिम की ओर बढ़कर अंततः यूरोप में प्रवेश कर गयीं।
अल्बानी, ग्रीक, अर्मेनियायी और ईरानी शाखाएँ अफगनिस्तान से पश्चिम की ओर बढ़ चलीं। इस विस्थापन में ईरानी शाखा तो पहले पिछड़कर अफ़ग़ानिस्तान में ही छूटी रही, लेकिन बाद में यह भी उत्तर की ओर चलकर मध्य एशिया में पसर गयी। भारतीय आर्य शाखा अपने मूल–स्थान से लेकर अफगानिस्तान के पूरब तक बनी रही। भारत के मूल–भूमि होने के सिद्धांत से संबंधित जो साक्ष्य पुरातन ग्रंथों में मिलते हैं उनसे रूस की मूल–भूमि वाली अवधारणा पर न केवल ग्रहण लग जाता है, बल्कि उनका वजूद एक कपोल–कल्पित कल्पना से ज़्यादा कुछ नहीं बचता। और तो और, भाषिक लक्षणों के आधार पर हुई विवेचनाएँ भी इस बात को बल देती हैं कि भारतीय मूल–स्थान की बात इन विवेचनाओं के ढाँचे में जहाँ एक ओर बिल्कुल फ़िट बैठती है वहीं दूसरी ओर दक्षिणी रूस वाली बात बिल्कुल असंगत। जैसे कि :
१ – भारतीय मूल–स्थान की अवधारणा इस विवेचना में खरी उतरती है कि सभी शाखाओं की यात्रा की दिशा एक ही तरफ़ रही। दूसरी ओर, दक्षिण रूस की अवधारणा में सारी शाखाएँ सारी दिशाओं में बिखर जाती हैं।
२ – यह बात भी उतनी ही तार्किक है कि मूल–स्थान तो वहीं रहा होगा जहाँ अंतिम पाँच में से एक शाखा बाक़ी चार के वहाँ से प्रस्थान कर जाने के बाद भी वहीं बची रही होगी। इस बात की भारतीय मूल–स्थान की अवधारणा के साथ पूरी तरह से संगति बैठती है। दूसरी ओर दक्षिण रूस के मूल स्थान वाली अवधारणा में सारी की सारी शाखाएँ वहाँ से प्रस्थान करती पायी जाती हैं।
३ – अपने मूल स्थान से निकलने वाली शाखाओं में से सबसे पहली शाखा अनाटोलियन शाखा थी। बाक़ी अन्य शाखाएँ एक समूह के रूप में एक साथ किंतु अलग–अलग अनाटोलियन और सम्भवतः टोकारियन शाखा से भी निकलीं। एक और दिलचस्प बात हमें इन शाखाओं के आपसी भाषिक लक्षणों का अध्ययन करने पर पता चलती है। सबसे पुरानी और यूरोपीय भाषा–शाखाओं के भाषिक लक्षणों में हमें कई जगह समानता के तत्व मिलते हैं। वैसे ही, यूरोपीय और परवर्ती अंतिम शाखाओं के बीच भी ऐसे दृष्टांत मिलते हैं। लेकिन सबसे पुरानी और सबसे बाद की शाखाओं के भाषायी लक्षणों में ऐसी समानता के कोई तत्व नहीं पाए जाते। रूसी मूल–भूमि की अवधारणा में अनाटोलियन शाखा दक्षिण की ओर, टोकारियन पूरब की और यूरोपीयन शाखा पश्चिम की ओर निकलती हैं। आगे चलकर अल्बानी और ग्रीक दक्षिण–पश्चिम, अर्मेनियायी दक्षिण और ईरानी तथा भारतीय–आर्य शाखाएँ पूरब की ओर निकल गयीं। भिन्न–भिन्न दिशाओं में पसरने वाली इन शाखाओं के परस्पर भाषिक लक्षणात्मक समानता या असमानता के संबंध में कोई भी प्रामाणिक व्याख्या न तो मौजूद है और न ही जुट पाती है। अब देखें कि :
अ – भाषिक लक्षणों के मामले में क्रमशः दक्षिण और पूरब की ओर जानेवाली पहले की शाखायें पश्चिम की ओर जानेवाली यूरोपीय भाषाओं के संग कतिपय महत्वपूर्ण समानताओं के तत्व स्थापित कर लेती हैं।
आ – पश्चिम दिशा की ओर विस्थापित होने वाली यूरोपीय शाखा ने भाषिक लक्षणों में अपनी समानता दक्षिण–पूर्व, दक्षिण और पूरब दिशा की ओर बढ़ने वाली बाद की शाखाओं के साथ कर ली है।
इ – लेकिन यदि आप दक्षिण और पूरब की ओर निकली पहले की शाखाओं के भाषिक लक्षणों की तुलना यदि दक्षिण–पूर्व, दक्षिण और पूरब की ओर जाने वाली बाद की शाखाओं से करें तो समानता के ऐसे कोई तत्व दोनों में नहीं मिलते हैं।
अब यदि एक नज़र हम भारतीय मूल–स्थान वाले सिद्धांत पर डाल कर देखें तो वहाँ इस प्रकार की कोई विसंगति नहीं दिखायी देती और भाषायी लक्षणों में परस्पर समानता या असमानता के इन तत्वों की बड़ी सरल व्याख्या भी मिल जाती है। वहाँ शुरू की शाखाएँ अफ़ग़ानिस्तान की उत्तर दिशा की ओर बढ़कर मध्य एशिया में जम गयीं। बाद की शाखाएँ अपने उद्भव काल में कभी उत्तर की ओर बढ़ी ही नहीं। इसका परिणाम यह हुआ कि उनकी संगति उत्तर में शुरू की शाखाओं से कभी बैठ ही नहीं पायी। दूसरी तरफ़ यूरोपीय शाखाएँ लम्बे समय तक अफ़ग़ानिस्तान में थमी रहीं। इसका परिणाम यह हुआ कि इस अति दीर्घ कालमें भाषा के उद्भव और विकास यात्रा में इसने बाद की शाखाओं वाली भाषा के साथ ढेर सारे लाक्षणिक तत्वों की साझेदारी कर लीं। अनंतर, जब यूरोपीय शाखाएँ अफ़ग़ानिस्तान को छोड़कर उत्तर दिशा में मध्य एशिया की ओर बढ़ीं तथा आगे भी मध्य एशिया से पश्चिमोत्तर बढ़कर यूरोप में घुस गयीं, तो इस क्रम में उन्होंने पहले से मध्य एशिया में जमी पहले की शाखाओं के भी अनेक भाषिक लक्षण समेट लिए।
४ – रूसी मूल–स्थान सिद्धांत में ‘भारतीय–आर्य’ और ‘ईरानी’ शाखाओं को एक साथ ‘भारतीय–ईरानी’ शाखा के रूप में लिया गया है। इसे दक्षिण रूस से पूरब की ओर चलता माना गया है। यह शाखा अन्य शाखाओं से काफ़ी अलग है। फिर भी जहाँ तक अकेले में ईरानी शाखा का सवाल है इसके कुछ भाषिक लक्षण बाद की शाखाओं से और कुछ लक्षण तो संयुक्त रूप से बाद वाली और यूरोपीय दोनों ही शाखाओं से मिलती है। भारतीय–आर्य शाखा के साथ ऐसी कोई बात नहीं है। अब इसके कारणों का कोई जवाब ‘रूसी मूल–स्थान’ सिद्धांत में नहीं मिल पाता है। इसका बड़ा सीधा जवाब ‘भारतीय मूल–स्थान’ सिद्धांत में मिल जाता है कि ईरानी शाखाओं की उपरोक्त समानता वाले तत्व उसे अफ़ग़ानिस्तान के पश्चिम प्रवास काल में मिले जो भारतीय आर्य शाखा को वहाँ नहीं जाने के कारण नसीब नहीं हो सका। भारतीय आर्य शाखा पूरब में ही पड़ी रही। अतः हिमाच्छादित पर्वतीय प्रदेश के कुछ ‘पश्चिमोत्तर अफ़ग़ानी’ शब्दों की उपस्थिति समान रूप से यूरोपीय शाखाओं और ईरानी अवेस्ता और ओस्सेटिक में तो पायी जाती हैं, लेकिन भारतीय आर्य शाखाओं में ये अनिवार्य रूप से अनुपस्थित हैं।
अवेस्ता – ऐक्षा – (शीत तुषार, फ़्रॉस्ट आइस) – स्लावी, बाल्टिक और जर्मन भाषाओं से सजातीय।
ओस्सेटिक – ताज्यं – (पिघलना, थव, मेल्ट) – स्लावी, जर्मन, सेल्टिक, इटालिक, ग्रीक तथा अर्मेनियायी भाषा में सजातीय क्रिया शब्द।
अवेस्ता – उद्र – ( ऊद, ऑटर) – स्लावी, बाल्टिक और जर्मन से सजातीय।
अवेस्ता – बावरा/बावरी – (ऊद बिलाव, बेवर) – स्लावी, बाल्टिक, जर्मन, सेल्टिक और इटालिक से सजातीय।
ओस्सेटिक – व्य्ज़्य्न – (काँटेदार जंगली चूहा, हेज़हॉग) – स्लावी, बाल्टिक, जर्मन, ग्रीक और अर्मेनियायी से सजातीय।
ओस्सेटिक – लेसेग़ – (सालमन, मछली का एक प्रकार) – स्लावी, बाल्टिक, जर्मन और अर्मेनियायी से सजातीय।
अवेस्ता – थ्बेरेस – (सूअर, बोअर) – सेल्टिक से सजातीय।
अवेस्ता – पेरेसा – (सूअर का बच्चा, पिगलेट) –स्लावी, बालटक, जर्मन, सेल्टिक और इटालिक से सजातीय।
अवेस्ता – स्ताओरा – (बैल, स्टियर) – जर्मन से सजातीय।
ईरानी – वब्ज़ – (हड्डा, वास्प) – स्लावी, बाल्टिक, जर्मन, सेल्टिक और इटालिक से सजातीय।
ऊपर वर्णित मूलभूत तत्वों से अलग हटकर भी ऐसे तमाम भाषिक और शाब्दिक सबूतों की भरमार है जो इन तीनों समूहों के भारत भूमि से दूर चले जाने की पुष्टि करते हैं।
क्रमशः..