(भाग – 7 से आगे)
ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य (च)
(मूल शोध – श्री श्रीकांत तलगेरी)
(हिंदी–प्रस्तुति – विश्वमोहन)
चौथे मंडल में सुदास के वंशज सहदेव और उसके बेटे सोमक के पश्चिम दिशा में और अंदर तक प्रवेश कर जाने का वृतांत है। उनके पश्चिमोत्तर प्रसार के प्रारंभिक दिनों के मध्य क्षेत्र की नदियों, विपास [४/३०/(११)] और परश्नि [४/२२/(२)] का भी ज़िक्र इस चौथे मंडल में मिलता है। इन दो सूक्तों में से एक में इस युद्ध की परिणती का वृतांत पश्चिमी नदी सरयू [४/३०/(१८)] के तट पर मिलता है। ‘हरिरुद’ या ‘हेरात’ के नाम से जाने जाने वाली यह नदी सिंधु [४/५४/(६) और ४/५५/(३)] के पश्चिम में अवस्थित है। चौथा मंडल पूरब की नदियों पर पूरी तरह चुप है। पूरब की एक भी नदी का वर्णन इसमें नहीं आता। यहाँ तक कि सरस्वती तक का नाम इसमें नहीं आता है जो बाक़ी मंडलों की एक प्रमुख नदी है। लेकिन अन्य सूक्तों में पश्चिम की नदियों का वर्णन आता है, जैसे – रसा [४/४३/(६)] और सिंधु [४/५४/(६) और ४/५५/(३)]।
पश्चिम की नदियों के चौथे मंडल में जहाँ तक वर्णन का सवाल है वह इस बात में अपने समकालीन दूसरे मंडल से बिल्कुल अलग है कि दूसरे मंडल में मात्र पूरब की नदी सरस्वती [ दूसरे मंडल में १/(११), ३/(८), ३०/(८), ३२/(८), ४१/(१६, १७, १८)] का ही वर्णन है। इससे यह विदित होता है कि पुराने मंडलों की रचना के उस काल में दो क्षेत्र रहे। पहला पुरुओं के पाँव फैलाने के क्रम में पश्चिम की भूमि पर रचित मंडल संख्या चार और दूसरा सरस्वती के पूरब उनके गृह क्षेत्र में रचित मंडल संख्या दो।
आर्य आक्रमण सिद्धांत के ढेरों पैरोकार चौथे मंडल में वर्णित नदियों के पश्चिमोन्मुख होने का फ़ायदा उठाते हुए यह तर्क प्रस्तुत कर देते हैं कि चौथा मंडल सबसे पहले उस काल में रचा जाने वाला सबसे पुराना मंडल है जब आर्य अपने हमले को पश्चिम में अंजाम दे रहे थे। कुछ विद्वान तो ऐसी ही कुछ राय दूसरे मंडल के बारे में देते दिखायी देते हैं कि उसमें वर्णित सरस्वती अवेस्ता में वर्णित अफ़ग़ानिस्तान की हरोयु नदी ही है। उनका यह तर्क दो मूलभूत तथ्यों को नज़रंदाज़ कर देता है। एक, उन पुराने भरत राजा जिनकी पूरब की भूमि की समस्त गतिविधिययों का हमने ऊपर छठे, तीसरे और सातवें मंडल के संदर्भ में ज़िक्र किया, उनकी ही संतान वे भरत राजा थे जिनकी पश्चिम की भूमि की गतिविधियों का ज़िक्र चौथे और दूसरे मंडल में है। और दूसरे, उनके पूरब से पश्चिम की ओर की विजय-यात्रा के ऐतिहासिक वृतांत को पूरी तरह से विस्मृत कर दिया जाना। उनके तर्कों में एक और बड़ी विसंगति यह है कि दूसरे और चौथे दोनों मंडलों में नदियों से इतर जो भी भौगोलिक चरित्र हैं वे सारे-के-सारे पूरब के भौगोलिक तत्व है, उनमें पश्चिम के चरित्र का कोई चिह्न भी नहीं है। ‘नभ-पृथिव्या: [२/३/(७)], इलास्पद [२/१०/(१)], इभा/हस्तिन हाथी [४/४/(१)], महिष, भैंस [२/१८/(११)], ग़ौर, भारिय जंगली भैंस [४/२१/(८), ५८/(२)], प्रस्ती, चीतल [२/३४/(३, ४), ३६/(२)]। बस एक ही पश्चिमी जानवर का ज़िक्र चौथे मंडल में आया है। वह है एक अफ़ग़ानी भेड़, अवि की चर्चा [४/२/(५)]। अन्यथा केवल नए मंडलों, पाँचवें, पहले और दसवें, में ही इन पश्चिमी जानवरों की चर्चा है।
छठे, तीसरे और सातवें, इन पुराने मंडलों के सम्पूर्ण पूर्वी चरित्र के पक्ष में एक और मज़बूत तर्क है कि सप्त+सिंधु की पश्चिम में बहने वाली सातों नदियों में से किसी एक का भी ज़िक्र इन तीनों मंडलों में कहीं नहीं आया है। बाद में रचे जाने वाले पुराने मंडलों, चौथे और दूसरे, से इनकी चर्चा का शुभारम्भ होता है और आगे के नए मंडलों तक जारी रहता है। [चौथा: २८/(१), दूसरा: १२/(३, १२), पहला: ३२/(१२), ३५/(८), आठवाँ: ५४/(४), ६९/(१२), नौवाँ: ६६/(६), दसवाँ: ४३/(३), ६७/(१२)]। दूसरी ओर मध्य पंजाब में एक क्षेत्रीय पहचान के रूप में सप्तसैंधव का ज़िक्र केवल एक बार आठवें मंडल [२४/(१७)] में ही आता है।
ऋषिकुल द्वारा रचित स-कुल मंडलों में सबसे अंतिम और नवीन मंडलों में सबसे प्राचीन, पाँचवाँ मंडल, बहुत मायनों में पुराने स-कुल मंडलों और नए अ-कुल मंडलों में बीचों-बीच की स्थिति रखता है। इसमें सूक्तों के गठन का शिल्प तो पुराने मंडलों की व्यवस्था के अनुरूप है, लेकिन सूक्तों का अपने रचयिता की विरासत से जुड़ने की व्यवस्था नए मंडलों की परम्परा में है। इसमें प्रत्येक सूक्त का सम्बंध अपने वास्तविक रचयिता से है न कि पुराने मंडलों के समान उस ऋषि-परिवार या ऋषिकुल से जो विरासत में अपने पूर्वज ऋषि विशेष का ही नाम ढोते चले आ रहे हैं। हम देख चुके हैं कि ऋग्वेद और मिती -अवेस्ता ग्रंथों के जो साझे सांस्कृतिक तत्व हैं, वे अपने सर्वोच्च विकसित रूप में पाँचवें मंडल में प्रकट होते हैं। और यह भी उतना ही स्पष्ट हो चुका है कि इस पाँचवें मंडल की आधारभूमि पूर्वी क्षेत्र में ही गड़ी-पनपी है।
इस मंडल के दो सूक्त पश्चिमी नदियों का बखान करते हैं। सूक्त ४१/(१५) में रसा नदी का उल्लेख है और सूक्त ५३/(९) में छः नदियों, सरयू, कुभा, क्रमु, अनिताभा, रसा और सिंधु की चर्चा है। पाँचवें मंडल के ५३वें सूक्त में स्यवस्व ने पश्चिम की अधिकांश नदियों का उल्लेख किया है। इसी सूक्त के क्रमशः नौवें और सत्रहवें मंत्र में उन्होंने मध्य क्षेत्र की नदी परश्नि और पूरब की नदी यमुना का उल्लेख किया है। इस आधार पर विजेल का यह मत है कि रचनाकार ऋषि ने अपने जीवनकाल में ढेर यात्रायें की हैं और वह घुमक्कड प्रकृति के कवि हैं। “भिन्न-भिन्न सूक्तों में बिखरे ये भौगोलिक चरित्र बस एक ही ऋषि, स्यवस्व, के द्वारा रचित हैं। यह ऋषि की यायावर प्रकृति की ओर संकेत करता है” (विजेल १९९५ बी :३१७)। ठीक वैसे ही पाँचवें मंडल के ४१/(१५) में अत्रि ऋषि ने रसा का उल्लेख किया है। बाक़ी जगहों यथा – ४२/(१२) और ४३/(११) में उन्होंने पूरब की नदी सरस्वती का वर्णन किया है। इसी मंडल में दो अन्य रचनाकार ऋषियों ने ५/(८) और ४६(२) में सरस्वती का वर्णन किया है।
पाँचवाँ मंडल पश्चिमी नदियों का ज़िक्र तो करता है लेकिन नदियों को छोड़कर पश्चिम के बाक़ी किसी भी भौगोलिक चरित्र का उसमें नामो-निशान तक नहीं है। बस अपवाद के रूप में मात्र अफ़ग़ानी भेड़ ‘अवि’ का उल्लेख अत्रि ऋषि के द्वारा हुआ है। इसका उल्लेख चौथे मंडल में भी आया है। लेकिन, पाँचवे मंडल में नदियों को छोड़कर पूरब के अन्य भौगोलिक चरित्रों का चित्रण मौजूद है। ५५/(६), ५७/(३), ५८/(६) और ६०/(२) में स्यावस्व ने प्रस्ती अर्थात चीतल का वर्णन किया है। अत्रि ने भी इसका वर्णन ४२/(१५) में किया है। एक दूसरे ऋषि ने २९/(७, ८) में महिष अर्थात भैंस का वर्णन किया है।
पहले और आठवें मंडल की रचना ऋषि-कुल द्वारा नहीं की गयी। ऋग्वेद के काल-क्रम में इन अ-कुल मंडलों का स्थान दूसरे चरण में आता है। पहले मंडल के कुछ सूक्त आठवें मंडल से पहले रचे गए हैं और कुछ सूक्त उसके बाद में भी रचे गए। इन दोनों मंडलों के बाद रचना-काल-क्रम में नौवें मंडल का स्थान आता है। इसकी रचना करने वाले ऋषि का नाम है – सोम पवमान। मशहूर भारतविद विजेल के शिष्य प्रोफेरस का मानना है कि पवमान का यह संकलन बाद के रचनाकारों द्वारा रचित मंडल १, ५, ८ और बहुत थोड़े अंशों में दसवें मंडल से ली गयी ऋचाओं का संकलन है [प्रोफेरस १९९९:६९]। दसवें मंडल का समय बहुत बाद का है। जहाँ तक पहले भाषा और उनके सांस्कृतिक तत्व का सवाल है, दसवाँ मंडल शुरू के नौ मंडलों से बिल्कुल अलग-थलग है। हालाँकि उन नौ मंडलों में भी भाषा और सांस्कृतिक तत्वों के स्तर पर उतनी एकरूपता नहीं है। उनके शब्दों की एक लम्बी सूची तैयार कर और उनकी व्याकरण-संबंधी विशेषताओं का गहन अध्ययन करने के बाद घोष ने अपना मंतव्य दिया है कि “ शुरू की बोलचाल की भाषा की थोड़ी बहुत भिन्नताओं के बावजूद कुल मिलाकर पहले के नौ मंडलों की भाषा को हम एक ही प्रकार का मान सकते हैं। लेकिन दसवें मंडल में यह स्थिति बदल जाती है। इसकी भाषा निश्चित तौर पर थोड़ी अलग है और यह ऋगवैदिक भाषा के परवर्ती स्वरूप का प्रतिनिधित्व करती है [घोष १९५१/२०१०:२४०-२४३]।“
इससे यह बात और महत्वपूर्ण हो जाती है कि अ-कुल मंडल और साथ में पाँचवाँ मंडल भी दसवें मंडल के साथ मिलकर एक अलग वर्ग में रखे जा सकते हैं। पाँच पुराने मंडलों की अपेक्षा नए मंडलों में व्याप्त मिती और अवेस्ता की शब्दावली से संबंधित समानता के तत्व भी इस वर्गीकरण के कारणों में शामिल हैं। इससे दो बातें खुलकर सामने आती है। पहली बात कि नए मंडलों ने अपने पूरे आकार को पाने में एक बहुत लम्बे कालानुक्रमिक अंतराल की यात्रा तय की है। और दूसरी बात कि, उनकी यह दीर्घकालिक यात्रा पुराने मंडलों से बिल्कुल पृथक है।
चार अ-कुल मंडलों का भौगोलिक क्षितिज ऋग्वेद की समूची भूमि में फैला हुआ है। चौथे और पाँचवें मंडल में हमें पश्चिम की झलकी मिलती है। लेकिन, चार अ-कुल मंडल पश्चिम के साथ एक नयी तरह की व्यापक घनिष्टता दिखाते हैं जो कि पुराने मंडलों और यहाँ तक कि पाँचवें मंडल में भी दूर-दूर तक नहीं दिखायी देता।
क – पहली बार इन मंडलों में पश्चिमोतर के निम्नांकित तत्वों का प्रवेश होता है:
‘गांधार’ नामक दक्षिण अफ़ग़ानिस्तान की सीमा पर एक जगह – १/१२६/(७)
‘सर्यनावत’ नामक पश्चिमोतर की एक झील – १/८४/(१४), ८/[६/(३९), ७/(२९), ६४/(११)], ९/[६५/(२२), ११३/(१)],१०/३५/(२)
‘अर्जिक’, ‘सुसोम’ और ‘मुजवत’ नामक पश्चिमोतर के पहाड़ – ८/७/(२९, २९), ९[/६५/(२३), ११३/(२)], १०/१३४/(१)
उत्तर-पश्चिम की एक हिमाच्छादित पर्वत चोटी हिमवंत का उल्लेख – १०/१२४//(४)
ख – इन चार मंडलों में उत्तर-पश्चिम के ढेर सारे नए पशुओं का उल्लेख मिलता है। मेष (मेमना), छाग (पहाड़ी बकरी), ऊरा (भेड़), ऊष्ट्र (ऊँट), मथ्र (अफ़ग़ानी घोड़ा), वराह/वराहु (सुअर) –
१/[४३/(६,६), ५१/(१), ५२/(१), ६१/(७), ८८/(५), ११४/(५), ११६/(१६), ११७/(१७, १८), १२१/(११), १३८/(२), १६२/(३)]
८[२/(४०), ५/(३७), ६/(४८), ३४/(३), ४६/(२२, २३, ३१), ६६/(८), ७७/(१०), ९७/(१२)]
९/[८/(५), ८६/(४७), ९७/(७), १०७/(११)]
१०/[२७/(१७), २८/(४), ६७/(७), ८६/(४), ९१/(१४), ९५/(३), ९९/(६), १०६/(५)] इनमेंसे अधिकांश नाम ईरानी भाषा और अवेस्ता में पाए जाते हैं।
ग – पश्चिम की नदियों, सिंधु, सरयू, रसा, कुभा और क्रमु के अतिरिक्त चौथे और पाँचवें मंडल में पश्चिम की कुछ और नदियों के नाम पहली बार मिलते हैं – त्रस्तमा, सुश्रतू, श्वेत्य, गोमती, महत्नु, श्वेत्यवारी, सुवत्सु, गौरी, सुसोमा, आर्ज़िक्य।
१/[४४/(१२०, ८३/(१), ११२/(१२), १२२/(६), १६४/(४), १८६/(५)]
८/७/(२९), १२/(३), १९/(३७), २०/(२४,२५), २४/(३०), २५/(१४), २६/(१८), ६४/(११), ७२/(७, १३),
९/[४१/(६), ६५/(२३), ९७/(५८)],
१०/[(६४/(९), ६५/(१३), ६६/(११), ७५/(१, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९), १०८/(१, २), १२१/(४)]
घ – नए मंडल विशेषकर आठवें मंडल की मिती सांस्कृतिक तत्व और अवेस्ता के साथ अद्भुत समानता मिलती है। यहाँ हमें संरक्षक राजाओं के ऐसे नाम मिलते हैं जिनके बारे में पश्चिमी भारतशास्त्रियों, विशेषकर विजेल का कहना है की ये सारे नाम वास्तव में ‘प्रोटो-ईरानी’ नाम हैं। जैसे – व्रच्या, कुरुंग, चैत्य, त्रिन्दिरा, परशु, वरोसुसामन, अनर्शनि, कणित। [१/{५१/(१३)}, ८/{४/(१९), ५/(३७, ३८, ३९)}, ६/{४६/(२३, २८), २४/(२८), २५/(२), २६/(२), ३२/(२), ४६/(२१, २४)}, (१०/८६}]
यहाँ [१/{४५/(३, ४)), १३९/(९)}, ८/{३/(१६),४/(२०), ५/(२५), ६/(४५), ८/(१८), ३२/(३०), ६९/(८, १८)}, १०/{३३/(७), ७३/(११))} और रचनाकारों के नाम ५/{२४}, ८/{२, ४, ६८, ६९}, ९/{२८}, १०/{५७, ५८, ५९, ६०, ७५}] पर भी हमें मिती और ऋगवैदिक नाम दोनों एक ही तरह के मिलते हैं।
ऋगवैदिक नाम : मित्रतिथि, देवातिथि, सुबंधु, इंद्रोता, प्रियंदा
मिती नाम : मित्रतिथि, देवातिथि, सुबंधु, इंद्रोता, ब्रियंसदा
ङ – नए मंडलों में और उसमें भी अठारहवें मंडल में बड़े विस्तार में हमें जो वर्णन मिलता है वह हड़प्पा संस्कृति के उन्नत दिनों के सांस्कृतिक तन्तुओं से मेल खाता है। ठीक दूसरी तरफ़, दसवें मंडल के वृतांतों में हड़प्पा के बाद की झलकियाँ मिलती हैं। यदि हड़प्पा की खुदाई में मिले अवशेषों और निष्कर्षों का सहारा लें तो आठवें मंडल में दो ऐसे शब्द मिलते हैं जो बेबिलोनिया के शब्द हैं और उनका ज़िक्र भार की मापांक ईकाई (मन), [८/{७८/(२)}] और साहूकार (बेकनाता), [८/{६६/९२)}] के रूप में हड़प्पा और बेबिलोनिया के आपसी व्यापार में हुआ है।
इस हड़प्पन-काल में द्रसद्वती, आपया, हरियुपिया, याव्यवती आदि इस क्षेत्र की कुछ अति प्राचीन पूर्वी नदियाँ थीं, जो आज के खाँटी हरियाणा में बहती थी। इन नदियों के नाम ऋग्वेद के नए मंडलों से ग़ायब हैं। इससे यही अनुमान लगता है कि सरस्वती की पूर्वी सहायक नदियाँ इस काल तक आते-आते सूख गयी होंगी।
इन चार ऐतिहासिक नदियों की चर्चा यहाँ तक कि ‘नदी-सूक्त [१०/{७५}]’ में भी नहीं मिलती है। यद्यपि, इसी सूक्त में गंगा अभी भी ऋगवैदिक क्षितिज के पूर्वी छोर की महत्वपूर्ण नदी के रूप में वर्णित है। सबसे पुराने मंडलों में तीन सूक्त (छठे मंडल का ६१वाँ और सातवें मंडल का ९५वाँ और ९६वाँ सूक्त) पूरी तरह से सरस्वती को समर्पित हैं। लेकिन नदी सूक्त (नया मंडल १०वाँ) में सिंधु सबसे प्रमुख नदी बन गयी है जिसको यह सूक्त पूर्णतया समर्पित है। पहले मंडल ( नया मंडल) के भी अनेक सूक्तों {९४ से ९६, ९८, १०० से १०३, १०५ से ११५} में भी अन्य देवी-देवताओं के साथ सिंधु की स्तुति की ऋचाएँ मिलती हैं। इसके अलावा नए मंडलों में और भी कई जगह छिट-पुट रूप में सिंधु नदी का उल्लेख मिलता है।
अब यदि हम समय (टाइम) के सापेक्ष स्थान (स्पेस) के विस्तार का अवलोकन करें तो हमें यह सबसे पुराने मंडल, छठे मंडल, से शुरू कर सबसे नए, दसवें मंडल, की रचना की अवधि के मध्य आर्यों की अपने मौलिक रिहायिश, पूरब में हरियाणा, से लेकर दक्षिणी अफ़ग़ानिस्तान की सीमा तक की यात्रा दिखायी देती है। छठे मंडल की रचना का काल ३००० ईसापूर्व से पहले का ही लगता है जैसा कि ऊपर के प्रमाण इंगित करते हैं।
जैसा कि हम शुरू में ही देख चुके हैं कि कुछ ऐसी मौलिक बातों की अवहेलना हमारे इन प्रकांड भारतविदों ने कर दी जिससे ‘आर्य-आक्रमण-अवधारणा’ को बल मिला। पहली बात तो यही है कि ऋग्वेद में कहीं भी उस भूमि से इतर जहाँ इसकी रचना हुई, ऐसी किसी भी विदेशी ज़मीन की कोई चर्चा नहीं है। साथ ही ऐसे किसी पुराने भूभाग का जो रचनाकारों की स्मृति में अपने पुरखों की ज़मीन हो, का कोई वृतांत नहीं मिलता। ऋग्वेद में ऐसे किसी पुराने युद्ध या आक्रमण की चर्चा भी नहीं मिलती जिसमें फ़तह हासिल कर ऋषियों के पूर्वज आर्यावर्त की इस भूमि पर आ बसे हों और यहाँ से उन्होंने किसी और को मार भगाया हो।
दूसरी बात कि भाषा-विज्ञान की दृष्टि से, ऋग्वेद के समूचे ग्रंथ में द्रविड़ या औस्ट्रिक उद्भव के किसी भी शब्द के दर्शन किंचित-मात्र नहीं होते।
और, तीसरी सबसे महत्वपूर्ण बात कि ग्रंथ में नदियों और पशुओं के जो भी नाम आए हैं, वे सभी भारतीय-आर्य तत्व के नाम हैं।
पुराने मंडलों के रचे जाने की तिथि ईसा से कम-से-कम तीन हजार साल पहले की तो लगती ही है, साथ में यह भी स्पष्ट दिखता है कि पूरब में हरियाणा के मूल निवासी इन आर्यों ने अपने क़दम न केवल पश्चिम की ओर बढ़ाए, बल्कि अपनी पूरब की जन्मभूमि से अपने अटूट भावनात्मक लगाव को बड़ी स्पष्टता से व्यक्त भी किया, ‘हे माँ सरस्वती, आप हमें आशीष दें कि हमारी जन्मभूमि न छूटे और इसे छोड़ हम कहीं दूर न भटक जाएँ!’ {छठे मंडल में ६१/(१४)}। छठे मंडल के ४५/(३१) में गंगा के किनारे फैली लंबी द्रुम-लताओं और झाड़ियों की सघनता को उनके इस गांगेय माटी से अद्भुत लगाव के घनत्व के उपमेय के रूप में प्रदर्शित किया गया है। और, तीसरे मंडल के ५८वें सूक्त की छठी ऋचा में जाह्नवी के तट को ‘देवताओं की प्राचीन मातृभूमि’ की संज्ञा दी गयी है। अपने उद्गम के पास गंगा जाह्नवी के नाम से जानी जाती है। इन सभी वृतांतों की काल-गणना ईसा से ३००० वर्ष पीछे चले जाने से ‘आर्य-आक्रमण सिद्धांत’ की परिकल्पना ही खटाई में पड़ जाती है।
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