(भाग – 19 से आगे)
ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य (द)
(मूल शोध – श्री श्रीकांत तलगेरी)
(हिंदी-प्रस्तुति – विश्वमोहन)
४ – ‘सोम’ के सबूत
ऋग्वेद और ईरानियों के धर्म में ‘सोम’ का बड़ा ही महत्वपूर्ण स्थान था। सोम का पौधा सम्भवतः एफिड्रा नामक जड़ी-बूटी का एक विशेष प्रजाति है जो मध्य एशिया में सुदूर पश्चिमोत्तर के पहाड़ी इलाक़ों में बहुतायत में पाया जाता है। पूरब में हिमालय में पायी जाने वाली इस पौधे की प्रजाति से पर्याप्त मात्रा में उतना बढ़िया रस नहीं निकलता था जिसकी चर्चा ऋग्वेद में हम पाते हैं। इसी आधार पर भारतविदों का यह विचार है कि जिस ढंग से ऋग्वेद के वैदिक कर्मकांडों और ईरानी धर्म में सोम रस की प्रमुखता है, उससे यहीं साबित होता है कि वैदिक आर्य भारत में पश्चिमोत्तर से ही अपने साथ सोम की परम्परा को लेकर घुसे थे।
लेकिन ऋग्वेद के कुछ महत्वपूर्ण साक्ष्यों से हम मुँह नहीं फेर सकते जो इस प्रकार हैं :
क – सोम के पौधे और इससे जुड़े अनुष्ठान पूरी तरह से बाहरी चलन थे जिसका श्री गणेश काफ़ी शुरुआती दिनों में वैदिक आर्यों और उनके पुजारियों के बीच भृगु ने किया था। भृगु ईरानी अणुओं के पूजारी थे जो उत्तर-पश्चिम के उस प्रदेश के निवासी थे जहाँ सोम की पैदावार बहुत ज़्यादा होती थी।
ख – ऋग्वेद के पुराने मंडलों की बात करें तो उनके लिए सोम एक अपरिचित नाम था क्योंकि इसका उत्पादन उन क्षेत्रों में होता था जो वैदिक आर्यों की भूमि से काफ़ी दूर था। जब वे कालांतर में पश्चिम की ओर बढ़े तभी उनका परिचय इस ‘सोम’ नामक पौधे से हुआ।
ग – यह भी कहा जा सकता है कि सोम का ज्ञान होने पर इसकी खोज और प्राप्ति भी वह एक उत्प्रेरक तत्व था जिसके कारण वैदिक-आर्य तेज़ी से उत्तर-पश्चिम की ओर बढ़ने लगे और धीरे-धीरे काल-क्रम की जुड़ती कड़ियों में भारोपीय फैलाव और बिखराव की प्रक्रिया ने गति पकड़ ली।
१ – वैदिक आर्य, भरत, के प्रमुख पुरोहित अंगिरा, वशिष्ठ और विश्वामित्र थे। इन पुजारियों का सोम के प्रयोग से कोई मतलब नहीं था। सोम के प्रयोग से जुड़े रहनेवाले पुरोहितों में मुख्य रूप से कश्यप और भृगु ही थे जो सीधे तौर पर उत्तर-पश्चिम और कश्मीर के क्षेत्रों में रहने वाली अणु जनजाति के पूजारी थे। कश्यपों का तो सोम से बहुत गहरा लगाव देखने को मिलता है। उनके द्वारा रचित सूक्तों में सत्तर प्रतिशत से भी ज़्यादा सूक्त ‘सोम-पवमान’ को ही समर्पित हैं। कश्यप कुल रचित ‘अप्रि-सूक्त’ सोम को ही समर्पित है जबकि बाक़ी के नौ ‘अप्रि-सूक्त’ अग्नि को समर्पित हैं। न केवल ये कश्यप सिर्फ़ सोम की ही पूजा करते थे बल्कि साथ-साथ यह भी तथ्य है कि इनका पदार्पण ऋग्वेद में बहुत बाद में होता है। वैदिक आर्यों के सोम की पैदावार वाली भूमि में पहुँच जाने के बाद से ही कश्यप ज़्यादा सक्रिय दिखायी देने लगते हैं।
भृगुओं के बारे में भी हम बार-बार यह दुहरा चुके हैं कि जमदग्नि और उनकी संततियों की एक शाखा को यदि छोड़ दिया जाय तो वैदिक आर्यों की भूमि से उत्तर और उत्तर-पश्चिम में बसने वाले आद्य ईरानियों के पूजारी भृगु ही थे। भृगुओं की सोम से पहचान काफ़ी पुरानी और बहुत अंदर तक की है। यह पूरी तरह से साफ़ है कि न केवल सोम के चलन का अविष्कार भृगुओं ने किया, प्रत्युत वैदिक परम्पराओं और वैदिक,उज़ारियों में उसका बीजारोपण भी उन्हीं ने किया :
क – ऋग्वेद में हज़ारों बार आने वाले शब्द ‘सोम’ के बस एक ही रचनाकार दिखायी देते हैं। वह ‘सोमाहुति भार्गव’ ऋषि हैं।
ख – नौवें मंडल के ‘पवमान मंडल’ में सैकड़ों बार आने वाले शब्द ‘पवमान’ इस नौवें मंडल से बाहर बस एक जगह दिखायी देता है। वह है आठवें मंडल के १०१वें सूक्त की १४वीं ऋचा और इसके रचयिता हैं – ‘जमदग्नि भार्गव’।
ग – ऋग्वेद और अवेस्ता से मिले सबूत इस बात पर एक मत हैं कि सोम के प्रचलन की शुरुआत करने वाले ऋषि भृगु ही हैं। मकडॉनेल का विचार है कि “यहाँ तक कि ऋग्वेद और अवेस्ता भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि सोमरस तैयार करने वाले सबसे प्राचीन पुरुष एक तरफ़ विवस्वत और त्रित अप्त्य हैं तो दूसरी ओर विवनहंत, अथव्य और त्रित हैं (मकडॉनेल १८९७ : ११४)।“ अवेस्ता के मुताबिक़ सोम को बनाने वाले पहले पुरुष ‘विवनहंत (विवस्वत)’, दूसरे ‘आप्त्य’ और तीसरे ‘त्रित’ हैं। ऋग्वेद के अनुसार विवस्वत ‘मनु’ और ‘यम’ के पिता हैं। अवेस्ता में भी विवनहंत ‘यिमा’ के पिता हैं। विवस्वत और यम वैवस्वत, दोनों, की पहचान ऋग्वेद में ‘भृगु’ के रूप में है [भृगु कुल के ऋषियों का संदर्भ तलगेरी २०००:३१-३२]। आठवें मंडल के २९वें सूक्त की अनुक्रमणिका में ‘मनु वैवस्वत’ की पहचान कश्यप ऋषि के रूप में की गयी है। यद्यपि त्रित आप्त्य की ऋग्वेद में कोई स्पष्ट पहचान नहीं है, तथापि दूसरे मंडल के ११वें सूक्त से लेकर १९वें सूक्त तक घृष्टमदष (केवल भृगु) यह कहते सुने जाते हैं कि ‘त्रित आप्त्य’ ‘हमारे कुल’ के हैं (ग्रिफ़िथ का अनुवाद)।
घ – नौवें मंडल में सोम को समर्पित तक़रीबन सारी रचनाएँ ऋग्वेद की रचना के मध्य और अंतिम काल की हैं। हालाँकि सप्तर्षि सूक्त में पुराने रचनाकारों के काल्पनिक नाम से कुछ बाद में भी जोड़ दी गयी रचनाएँ भी हैं। भृगु के नाम से भी जोड़े गए १२ सूक्त हैं, जो बहुत सम्भव है कि उनकी संततियों के द्वारा भी रचित या पुनः सम्पादित हों। फिर भी, इन सूक्तों को जिन भृगुओं के नाम से जोड़ा गया है वे पुरातन और पुरखे भृगु हैं जो ऋग्वेद के काल से भी पहले के थे और यहाँ तक कि ऋग्वेद के पुराने मंडलों में भी वे पौराणिक पुरुषों के रूप में चित्रित होते हैं – ‘वेण भार्गव’ (नौवें मंडल के ८५वें सूक्त), ‘उषण काव्य’ (नौवें मंडल के ८७-८९वें सूक्त), और ‘कवि भार्गव’ (नौवें मंडल के ४७-४९वें सूक्त तथा ७५-७९वें सूक्त)। इसलिए यह साफ़-साफ़ लगता है कि सबसे पुराने सोम सूक्त भृगु के द्वारा ही लिखे गए थे।
ङ – ऋग्वेद से ऐसा पूरा संकेत मिलता है कि वैदिक आर्यों और फिर उनके पुरोहितों तथा देवताओं को सोम पिलाने वाले भृगु ही थे। कम से कम ऋग्वेद के ऐसे तीन संदर्भों {१/(११६/१२, ११७/२२ और ११९/९)} से यह बात खुलकर सामने आती है कि सोम की उत्पति का स्थान पहले गोपनीय था। इस रहस्य को ‘दध्यांक’ ने अश्विन के सामने खोला था। बताते चलें कि दध्यांक ऋग्वेद के एक पौराणिक चरित्र और अति प्राचीन भृगु ऋषि थे जो यहाँ तक कि कवि भार्गव और उषण काव्य से भी बहुत पहले के थे। दध्यांक अथर्वन के पुत्र और उस आदि भृगु के पोते थे जो अपने भृगु कुल के नामकरण का स्त्रोत थे अर्थात उन्हीं के नाम पर उनकी कुल परम्परा का नाम भृगु पड़ा था।
च – यहाँ तक कि वह गरुड़ पक्षी जो सोम लेकर आर्यों के बीच उतरा था, सांकेतिक अर्थों में भृगु को ही इंगित करता है। मकडॉनेल ( १८९७:११२) का मानना है कि “गरुड़ पक्षी का मतलब अग्नि वैद्युत या आसमान से गिरने वाली बिजली (दामिनी) से है।“ ठीक वैसे ही, बेरगैगने का सोचना है कि ‘इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि भृगु वास्तव में अग्नि का ही नाम था’ और इसमें आगे कून और बर्थ अपनी सहमति के स्वर जोड़ते हैं, ‘अग्नि का जो यह रूप है वह आकाश से गिरने वाली बिजली का ही है।‘ (मकडॉनेल १८९७:१४० और साथ में ४/७/४ में ग्रिफ़िथ की पाद टिप्पणी)
२ – सोम दूरस्थ इलाक़ों में उपजता था। इतनी दूर कि बार-बार उस जगह की उपमा स्वर्ग से दी गयी है।[४/{२६/६, २७/(३, ४)}, ८/१००/८, ९/(६३/२७, ६६/३०, ७७/२, ८६/२४ आदि):
अ – एक ही ख़ास बात बतायी गयी है वह सोम के पहाड़ों पर उपजने की बात है {१/९३/६, ३/४८/२, ५/(४३/४, ८५//२), ९/(१८/१, ६२/४, ८५/१०, ९५/४, ९८/९ आदि)}। कुल-मंडलों (२-७) में सोम के बारे में इससे ज़्यादा कोई और विशेष बात का कहीं उल्लेख नहीं है।
आ – सोम का क्षेत्र वैदिक भूमि में न तो कहीं था और न ही किसी ऐसे वैदिक क्षेत्र की ओर ऋग्वेद में लेश मात्र भी संकेत है। हाँ यह बात बार-बार दुहरायी गयी है कि ‘दूरस्थ क्षेत्रों में पाया जाने वाला सोम’ ({४/२६/६, ९/६८/६, १०/(११/४, १४४/४)}! इस क्षेत्र को ‘त्वष्ट्र की भूमि’ (४/१८/३) के नाम से जाना जाता है। ‘तवस्त्र’ के बारे में भी विद्वानों का यही कहना है कि ‘वैदिक पंथ की अवधारणाओं में सबसे धूमिल और अस्पष्ट पक्ष ‘त्वष्ट्र’ का है। इस अस्पष्टता की विवेचना हिलब्रांट ने इन शब्दों में की है कि ‘वैदिक जनजातियों की बसावट की सीमा केबाहार एक काल्पनिक और पौराणिक वृत्तिय क्षेत्र है जहाँ त्वष्ट्र पाया जाता है (मकडॉनेल १८९७:११७)।‘
इ – पौराणिक तौर पर वैदिक लोगों और उनके देवताओं को सोम कहीं बहुत दूर स्थित अपनी उत्पति स्थान से गरुड़ पक्षी के द्वारा लाये जाने की अनेकानेक चर्चाएँ हैं:
पहला मंडल – ८०/२, ९३/६
तीसरा मंडल – ४३/७
चौथा मंडल – १८/१३, २६/(४-७), २७/(३, ४)
पाँचवाँ मंडल – ४५/९
छठा मंडल – २०/६
आठवाँ मंडल – ८२/९, १००/८
नौवाँ मंडल – ६८/६, ७७/२, ८६/२४, ८७/६
दसवाँ मंडल – ११/४, ९९/८, १४४/(४, ५)
सोम के पाए जाने का यह स्थान वैदिक लोगों की जानकारी के परे था। गरुड़ पक्षी भी इस सोम को चुरा कर वहाँ के लोगों की आँख से अपने को बचाकर शीघ्रता से वहाँ से प्रस्थान कर जाता था (४/२६/५)। ऐसा भी उल्लेख (४/२७/३) मिलता है कि सोम चुराकर उड़ते गरुड़ पक्षी पर वहाँ के लोग आक्रमण तक कर देते थे।
‘त्वष्ट्र’ ही सोम का संरक्षक या सरपरस्त था और सोम को ‘त्वष्ट्र का सुरा’ कहते थे (मकडॉनेल १८९७:११६)। इस सोम को पाने के लिए इंद्र के द्वारा त्वष्ट्र को जीत लेने का भी वृतांत है।
१/४३/८ की अपनी पाद टिप्पणी में ग्रिफ़िथ ‘उन लोगों का ज़िक्र करते हैं जो अपनी भूमि से सोम ले जाए जाने का विरोध करते हैं।‘
ई – सामान्य तौर पर कुल-मंडल सोम के पैदावार की भूमि के बारे में अनभिज्ञ-से ही प्रतीत होते हैं। जो थोड़ी भी जानकारी अ-कुल नए मंडलों में है वह इस प्रकार है – आठवें मंडल के ६४/११ में सोम के पैदावार की प्रमुख भूमि के रुप में ‘सुसोम’ (सोहन) और ‘अर्जीकिय’ (हारो) नदियों के आस-पास का क्षेत्र वर्णित है। ये सिंधु की पूर्वोत्तरी सहायक नदियाँ हैं जो पंजाब के ठीक ऊपर और कश्मीर के उत्तर-पश्चिम में बहती हैं। इन दोनों नदियों के क्षेत्र में ही अवस्थित ‘सर्यणावन’ झील भी निकट में ही स्थित है। ८/७/२९ में सुसोम और अर्जीकिय पूलिंग रूप में आते हैं जो इस नाम के पहाड़ों को प्रदर्शित करते हैं और इन पहाड़ों से निकली इसी नाम की नदियाँ स्त्रीलिंग रूप में वर्णित हैं। १०/३५/२ में सर्यणावन का नाम फिर से उन पहाड़ों के लिए आता है जिनसे घिरा इन पहाड़ी क्षेत्रों में इसी नाम का झील अव्यवस्थित है।
एक अन्य सूक्त १०/३४/१ में सबसे बढ़िया सोम के उपजाने का क्षेत्र मुजावत पर्वत दिखलाया गया है। अथर्ववेद (५-२२-५, ७, ८, १४) में अफगनिस्तान के पड़ोसी क्षेत्रों में बसने वाली मुजावत एक जनजाति है जिसका संबंध गंधारी से है। ऋग्वेद में गंधारी (उत्तरी अफगनिस्तान) का सोम से रिश्ता गंधर्वों को मिली विशेष भूमिका में परिलक्षित होता है।मकडॉनेल के शब्दों में, ‘ऋग्वेद के नौवें मंडल में सोम और गंधर्व के बीच के गहरे सम्बंध उजागर होते हैं। वे सोम की निगरानी करते हैं (९/८३/४)। स्वर्ग के गुंबद से सोम के सभी नमूनों पर उनकी सतर्क दृष्टि रहती है (९/८५/१२)। पर्जन्य और सूरज की बेटियों के साथ वे सोम को निरंतर अपनी आँखों में बसाए रखते हैं (९/११३/३)। उनके ही मुख से देवता सोम का पान करते हैं (अथर्ववेद ७/७३/३)। सोम को अगोरने के अति उत्साह ने उन्हें इंद्र का शत्रु बना दिया है। वायु के सहयोग से इंद्र उन पर आक्रमण कर देते हैं (८/६६/५) या कभी कभी इंद्र को इस आक्रमण के लिए उकसाया भी जाता है (८/१/११)।‘ (मकडॉनेल १८९७ : १३६-१३७)
ये सारे नाम अ-कुल और नए मंडलों (१, ८, ९ और १०) में ही मिलते हैं। तीसरे मंडल के संशोधित सूक्त में बस एक बार गंधर्वों का ज़िक्र आता है जिसका प्रक्षेप ऐतरेय ब्राह्मण (६/१८) में मिलता है :
तीसरा मंडल : ३८/६
पहला मंडल : २२/१४, ८४/१४, १२६/७, १६३/२
आठवाँ मंडल : १/११, ६/३९, ७/२९, ६४/११, ७७/५
नौवाँ मंडल : ६५/(२२, २३), ८३/४, ८५/१२, ११३/(१-३)
दसवाँ मंडल : १०/४, ११/२, ३४/१, ३५/२, ७५/५, ८५/(४०, ४१), १२३(४, ७), १३६/६, १३९/(४, ६), १७७/२
उ – भले ही वैदिक आर्य सुदूर पश्चिम में उपजने वाले सोम से परिचित थे और अणुओं के ज़रिए इसली ख़रीद भी कर लेते थे, लेकिन इसका प्रचलन मुख्य रूप से नए मंडलों की रचना के काल में ही जाकर हुआ। और इस काल में यह सोम इतना हावी हो गया कि एक पूरा का पूरा मंडल (९) ही इस पर रच दिया गया। आगे चलकर उत्तर-वैदिक काल में जैसे-जैसे भारतीय धर्म पूरब की ओर खिसकता गया सोम के अनुष्ठान कि परम्परा का महत्व शनै:-शनै: भारतीय धर्म में विलुप्त होता चला गया और उसपर पूरब के दर्शन का रंग चढ़ता गया। फिर भी अपनी मूल भूमि में सोम अभी भी जीवित रहा। ईरानी भाषा ( पारसी, पश्तो, बलूची और अधिकांश दारदी एवं नूरिस्तानी भाषाओं) में एफिड्रा के पौधे को होम कहा जाता है तथा नेपाल सहित हिमालयी क्षेत्रों में इसे सोमलता के नाम से जाना जाता है। पारसी धर्म में यह प्रचलन आज भी जारी है।
३ – यह सोम की तलाश ही थी जिसकी बदौलत वैदिक आर्य पश्चिम और उत्तर-पश्चिम की ओर बढ़ते चले गए। सुदास के नेतृत्व में भरत राजाओं और विश्वामित्र के सतुद्री और विपाश नदियों को लाँघ जाने के साथ ही वैदिक आर्यों के पश्चिमोत्तर अभियान का श्री गणेश हुआ। उनके इस अभियान की दिशा और इसके उद्देश्य पर तीसरे मंडल के ३३वें सूक्त का पाँचवाँ मात्र समुचित प्रकाश डालता है। ३/३३/५ में विश्वामित्र के नदियों के संबोधन का अनुवाद ग्रिफ़िथ ने यूँ किया है, ‘हमारे मैत्री-वचन की सुधा के पान हेतु थोड़ी सुस्ता लो, ठहरो, पवित्र सरिता! अपने बहाव को तनिक विराम दो!’ अपनी पाद टिप्पणी में वे इस अर्थ को और खोलते है, “यास्क और सायण सरीखे विद्वानों ने ‘मे वचसे सौम्याया ( हमारे मैत्री वचन की सुधा के पान हेतु) का अर्थ ‘सोम रस के लिए मेरी वाणी’’ किया है अर्थात मेरे इस उड़बोधन का अभिप्राय सोम की प्राप्ति हेतु तुम्हें पार करना है। नदियों के पार कर जाने के पश्चात ऐसा लगता है कि सुदास और भारत राजाओं के साम्राज्य-विस्तार की लिप्सा भी लहकने लगी। शीघ्र ही विश्वामित्र सुदास के लिए अश्वमेध यज्ञ का आयोजन कर लेते हैं। इसका चित्रण ३/५३/११ में मिलता है। “आगे बढ़ो कुशिक! सुदास के अश्वों के रास खोलो! पूरब, पश्चिम और उत्तर के सारे वैभव और ऐश्वर्य को जीत लो! हे नृप! अरियों का वध करो और विश्व की इस चिर-अभिलिषित भूमि (वर आ पृथिव्या:) का वरण करो!” (ग्रिफ़िथ)
कुछ विस्तार पूरब की ओर भी हुए (किकट ३/५३/१४) लेकिन मुख्य ज़ोर पश्चिम और उत्तर-पश्चिम की ही ओर था। इस कड़ी का पहला युद्ध परश्नि के तट पर दसराज्ञ-संग्राम था और अंतिम रण सरयू के पार मध्य अफगनिस्तान में था। परश्नि के युद्ध में तो भरत राजाओं का नेतृत्व सुदास के हाथों में ही था परंतु सरयू के समर तक आते-आते ऋग्वेद का मध्य काल आ गया था और नेतृत्व भी बहुत नीचे की पीढ़ी के भरत राजा सहदेव के हाथों में आ गया था। जैसा कि चौथे मंडल के १५वें सूक्त में ७ से लेकर १०वीं ऋचा तक सहदेव के पुरोहित वामदेव का संदर्भ यह उद्घाटित करता है कि इस युद्ध में सहदेव का पुत्र भी लड़ा था और संभवतः सोम बहुल क्षेत्रों को पिता सहदेव द्वारा आधिपत्य में ले लेने के कारण उसका नाम ‘सोम-का’ पड़ गया।
इस तरह ऋग्वेद के साक्ष्य यही प्रस्तुत करते हैं कि सोम के पौधे और अनुष्ठान दोनों को अणुओं के पुरोहित भृगु पश्चिमोत्तर पर्वतीय प्रांतों से लेकर वैदिक आर्यों के पास लाए थे और वैदिक आर्य बाद में नए मंडलों के रचे जाने के युग में अपने साम्राज्य विस्तार के क्रम में उन क्षेत्रों से परिचित हुए।