१. चित्ते सुखं भजति तुष्यति नित्यवाञ्छां,
ख्यातिं प्रसारयति कष्टमपाकरोति |
भद्रं वृणोति ननु पुष्यति सर्वसिद्धिं,
मिथ्यास्तुति: कथय किं न करोति पुंसाम् ||
अर्थात् झूठी प्रशंसा (चाटुक्ति) हृदय में सुख का आधान करती है, सभी कामनाओं (इच्छाओं) को सन्तुष्ट करती है, ख्याति (मान- सम्मान, यश, कीर्ति) का अच्छे से प्रचार- प्रसार करती है और सभी दु:खों को हम से दूर करती है| निश्चित रूप से कल्याण का वरण करती है और सभी सिद्धियों (अणिमा, लघिमा, काम्य, वशित्व आदि) का पोषण करती है, तो भला बताओ चापलूसी मनुष्यों का कौनसा काम नहीं करती है| अत: वर्तमान में सभी गुण चाटुकारिता में निवास करते हैं|
२. चाटुक्ते! को न जानाति तव तु महिमानं हि वाचाटकन्ये!,
पारावारे मुदादर्शकथनरसभूतासि पूता प्रियाली|
भ्रष्टानामग्रजा वैभवपतिमहिमामण्डिता छद्मरूपा,
सा मिथ्यावन्दना रक्षतु सपदि वरेण्या ध्रुवं सर्वभूतान्||
अर्थात् इस संसार में हे भाण्डों की पुत्री चाटुकारिता! तुम्हारी महिमा को कौन नहीं जानता है? आप भ्रष्ट लोगों की बड़ी बहिन (अग्रजा), आराध्य (राजनेता, धनाढ्य और महाजन) की महिमा को मण्डित करने वाली, अनेक रूप धारण करने वाली छद्मरूपा, प्रसन्न करने वाले आदर्श वाक्यों की सारभूत, पवित्र और सभी को प्रिय लगने वाली सखी हैं| ऐसी वह श्रेष्ठ चाटूक्ति शीघ्र ही निश्चित रूप से सभी प्राणियों की रक्षा करें|
३. सुबन्धुर्नेतुर्नास्मि सचिवसुतो नास्मि च धनी,
सुविज्ञोऽधिक्षिप्ते धनरहितदीनोऽस्मि भुवने|
प्रभो! नाहं जाने तु तव महिमानं कलियुगे,
पुनः साक्षात्कारे खलु सफलता प्राप्स्यति न वा ||
अर्थात् मैं न नेता का भाई- बन्धु हूँ, न मंत्री पुत्र हूँ और न ही धनवान् हूँ| मैं तो इस गर्हित (भ्रष्ट) संसार में पढा़ -लिखा धन- धान्य से रहित विपन्न हूँ| हे प्रभु! घोर कलियुग में आपकी महिमा को मैं नहीं जानता हूँ कि फिर से साक्षात्कार में सफलता प्राप्त होगी अथवा नहीं होगी| यह संशय बना हुआ है|
(क) – ईश्वर के साक्षात्कार (दर्शन) में सफलता
(ख) – नौकरी आदि के साक्षात्कार (मौखिक परीक्षा) में सफलता
४. क्रुडति सघने तेजोराशी रविर्तिमिरे ध्रुवं,
गभीरजलधिर्भीष्मक्षुब्धं कथं विदधाति हि |
स्वपिति च क्षितौ पैशाचस्य प्रचण्डविभावरी,
भवति हरणं शून्यस्थाने निराश्रययोषित:||
अर्थात् तेजोमय प्रकाश पुञ्ज सूर्य सघन अंधकार में विलीन हो रहा है| अगाध जल को धारण करने वाला सागर भयंकर विकलता को क्यों धारण कर रहा है? और डरावनी काली रात श्मशान भूमि में शयन कर रही है, क्योंकि निर्धन (दरिद्र) की पत्नी का एकान्त में अपहरण हो रहा है|
५. ध्वान्ते चौर्यधनं किल त्रिभुवने गुरोश्च निन्दा खलु,
कान्ताया अहितं ध्रुवं परिभवं मर्त्यस्य नित्यन्तथा|
साधोरुत्दलनं मलानि परमं नूनन्नृशंसानि हि,
श्रेष्ठोऽहं सभाजयामि परदारान् सज्जनानां सदा ||
अर्थात् इस अंधकारमय संसार में चोरी का धन और गुरु की निन्दा, पत्नी का अहित तथा मानव तिरस्कार एवं सन्तों का उत्पीड़न – ये निश्चित रूप से सभी नृशंसनीय पाप हैं| परन्तु सज्जनों में श्रेष्ठ मैं तो दूसरों की पत्नियों को हमेशा देखता हूँ अर्थात् उनमें आसक्त रहता हूँ|