सन् 1935 में जब बेल्जियम से एक युवा ईसाई धर्म प्रचारक रांची पहुंचा, तो स्टेशन से मिशनरियों के आवासीय परिसर मनरेसा हाउस के समूचे रास्ते में अधिकतर संकेत-पट्ट अंग्रेजी में देख वह अचंभित हुआ। औपनिवेशिक भाषा के इतने व्यापक वर्चस्व से उसका आश्चर्य शीघ्र ही रोष में बदल गया। आगे चलकर वह युवा रामकथा के अप्रतिम अन्वेषक तथा हिंदी भाषा और भारत विद्या (इंडोलॉजी) के प्रकांड विद्वान फादर कामिल बुल्के के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
फादर कामिल बुल्के का जन्म 1 सितम्बर, 1909 को बेल्जियम के पश्चिमी फ्लैंडर्स स्टेट के रम्सकपैले नामक गांव में हुआ। उनके पास सिविल इंजीनियरिंग में बी.एस.सी डिग्री थी, जो उन्होंने लोवेन विश्वविद्यालय से प्राप्त की। फादर कामिल बुल्के, बेल्जियम के रहने वाले थे जहां फ्लेमिश भाषा बोली जाती। यह डच भाषा का ही स्थानीय रूप थी। लेकिन वहां के कई प्रमुख स्थानों पर फ्रेंच का दबदबा था। जो शासकों तथा संभ्रांत लोगों की भाषा थी। अतः स्थानीय भाषा फ्रेंच के सामने उपेक्षित रहती बुल्के जब कालेज में थे तब फ्रेंच भाषा के इस दबदबे को लेकर वहां बडा आंदोलन हुआ इस आंदोलन में उन्होंने बढ चढ़ कर हिस्सा लिया जिससे छात्र-नेता के रूप में उनकी पहचान बनी। इससे उनमे अपनी भाषा और संस्कृति के प्रति प्रेम जागा। इसी प्रेम ने भारत आने पर उनके जीवन की दशा और दिशा निर्धारित की। उन्होंने निश्चय किया कि भारत ही उनकी कर्मभूमि रहेगा, यहां की भाषा को सीखने और उस पर अधिकार पाने के लिये कोई कसर नहीं छोडी।
वे ईसाई थे, लेकिन मन से भारतीय हो गए। 1935 से 1947 का वह दौर, जब भारतीय पहले सविनय अवज्ञा आंदोलन और फिर भारत छोड़ो आंदोलन के साथ स्वतंत्रता संघर्ष कर रहे थे, भारत छोड़ो आंदोलन के अशांत रूप ले लेने पर रेल, डाकघर, स्टेशन और थाने तोड़े और जलाए जा रहे थे, स्वतंत्रता सेनानी जेलों में ठूंसे जा रहे थे, उन पर गोलियां बरसाई जा रही थीं, उन्हीं दिनों हमारे पास फादर कामिल भी थे जो भारत आए तो मिशनरी धर्म के प्रचार के लिए थे, लेकिन भारतीय संस्कृति से इस तरह प्रभावित हुए कि न सिर्फ भारतीयों के पक्ष में खड़े रहे बल्कि कई ऐसे उल्लेखनीय और महत्वपूर्ण कार्य किए।
बुल्के ने एक स्थान पर लिखा है, “जब मैं 1935 में भारत पहुंचा तो मुझे ये देखकर आश्चर्य और दुख हुआ कि बहुत सारे शिक्षित लोग अपनी सांस्कृतिक विरासत और परंपराओं से अनभिज्ञ हैं। उन्हें अंग्रेजी में बोलने में गौरव का अनुभव होता है।’
भारत की संस्कृति उन्हें इतनी पसंद आई कि वे न सिर्फ यहीं के होकर रह गए बल्कि उन्होंने कई अद्वितीय कार्य किए। उन्होंने निश्चय किया कि आम लोगों की इस भाषा में महारत हासिल करूंगा। इस प्रयास में उन्होंने हिंदी सीखना आरंभ किया और गुमला स्थित संत इग्नासियुस विद्यालय में, जहां वे गणित और भौतिकी के शिक्षक थे, हिंदी की कक्षा में अपने ही विद्यार्थियों के सहपाठी बने। अंततः फादर कामिल बुल्के से बाबा कामिल बुल्के कहलाए जाने लगे। फादर कामिल बुल्के ने पंडित बद्रीदत्त शास्त्री से हिंदी और संस्कृत की शिक्षा प्राप्त की और 1940 में ‘विशारद’ की परीक्षा ‘हिंदी साहित्य सम्मेलन’, प्रयाग से उत्तीर्ण की। उन्होंने 1942-1944 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से संस्कृत में मास्टर्स डिग्री हासिल की। बुल्के ने पांच वर्षों में न केवल हिंदी अपितु भाषाओं की जननी संस्कृत पर पूरा अधिकार पाया। अवधी, बृज, पाली और प्राकृत भाषाओं की जानकारी हासिल की।
1949 में ही वह सेंट जेवियर्स कॉलेज, रांची में हिंदी और संस्कृत विभाग के विभागाध्यक्ष नियुक्त किए गए। कामिल बुल्के सन 1950 में ‘बिहार राष्ट्रभाषा परिषद’ की कार्यकारिणी के सदस्य चुने गए। वह सन 1972 से 1977 तक भारत सरकार की ‘केन्द्रीय हिंदी समिति’ के सदस्य रहे।
‘रामकथा उत्पत्ति और विकास’ ग्रंथ की रचना में कितना परिश्रम किया होगा, यह पुस्तक के अध्ययन से ही समझ में आ सकता है। रामकथा से संबंध रखने वाली किसी भी सामग्री को उन्होंने छोड़ा नहीं है। प्रथम भाग में ‘प्राचीन रामकथा साहित्य’ का विवेचन है, जिसके पांच अध्यायों में वैदिक साहित्य और रामकथा, वाल्मीकिकृत रामायण, महाभारत की रामकथा, बौद्ध रामकथा और जैन रामकथा संबंधी सामग्री की पूर्ण समीक्षा की गई है। द्वितीय भाग में रामकथा की उत्पत्ति है तो इसके चार अध्यायों में दशरथ जातक की समस्या, रामकथा के मूल स्रोत के संबंध में विद्वानों के मत, प्रचलित वाल्मीकीय रामायण के मुख्य प्रक्षेपों और रामकथा के प्रारंभिक विकास पर चिंतन किया गया है।
ग्रंथ के तृतीय भाग में ‘अर्वाचीन रामकथा साहित्य का सिंहावलोकन’ है। इसमें भी चार अध्याय हैं। पहले और दूसरे अध्याय में संस्कृत के धार्मिक तथा ललित साहित्य में पाई जाने वाली रामकथा सम्बन्धी सामग्री की परीक्षा है। तीसरे अध्याय में आधुनिक भारतीय भाषाओं के रामकथा संबंधी साहित्य का विवेचन है। चौथे अध्याय में विदेश में पाये जाने वाले रामकथा के रूप में सार दिया गया है, जिसमें तिब्बत, खोतान, हिंदेशिया, हिन्दचीन, श्याम, ब्रह्मदेश आदि में उपलब्ध सामग्री का पूर्ण परिचय एक ही स्थान पर मिल जाता है। अंतिम और चतुर्थ भाग में रामकथा संबंधी एक-एक घटना को लेकर उसका पृथक-पृथक विकास दिखलाया गया है। घटनाएं कालक्रम से ली गई हैं। उपसंहार में रामकथा की व्यापकता, विभिन्न रामकथाओं की मौलिक एकता, प्रक्षिप्त सामग्री की सामान्य विशेषताएं, विविध प्रभाव तथा विकास का सिंहावलोकन है।
यह ग्रंथ वास्तव में रामकथा संबंधी समस्त सामग्री का विश्वकोश कहा जा सकता है। वास्तव में यह खोजपूर्ण रचना अपने ढंग की पहली ही है और अनूठी भी। हिंदी क्या संभवतः किसी भी यूरोपीय अथवा भारतीय भाषा में इस प्रकार का कोई दूसरा अध्ययन उपलब्ध नहीं है। हिंदी पट्टी में इस लोकप्रिय विषय पर ऐसे वैज्ञानिक अन्वेषण से धर्म और राजनीति के अनेक मिथक खंडित हो जाते हैं और शोधकर्ताओं को एक दिशा भी मिलती है।
बुल्के के प्रस्तुत शोध-‘रामकथा उत्पत्ति और विकास’ की विशेषता थी कि यह मूलतः हिंदी में प्रस्तुत पहला शोध प्रबंध है। फादर बुल्के जिस समय इलाहाबाद में शोध कर रहे थे, उस समय सभी विषयों में शोध प्रबंध केवल अंग्रेजी भाषा में ही प्रस्तुत किए जाते थे। फादर बुल्के ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय की उच्च शिक्षा परिषद से सादर आग्रह किया कि उन्हें हिंदी में शोध प्रबंध प्रस्तुत करने की अनुमति दी जाए। इसके लिए अंततः शोध संबंधी नियमावली में परिवर्तन किया गया।
इस शोध में संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, हिंदी, बांग्ला, तमिल आदि समस्त प्राचीन और आधुनिक भारतीय भाषाओं में उपलब्ध राम विषयक विपुल साहित्य का ही नहीं, वरन तिब्बती, बर्मी, सिंघल, इंडोनेशियाई, मलय, थाई आदि एशियाई भाषाओं के समस्त राम साहित्य की सामग्री का भी अत्यंत वैज्ञानिक रीति से उपयोग हुआ है।
तुलसीदास उन्हें उतने ही प्रिय थे, जितने अपनी मातृभाषा फ्लेमिश के महाकवि गजैले या अंग्रेजी के महान ड्रेमेटिस्ट विलियम शेक्सपियर। अपनी तुलसी भक्ति के बारे में उन्होंने लिखा है, “1938 में मैंने ‘रामचरितमानस’ और ‘विनयपत्रिका को प्रथम बार आद्योपान्त पढ़ा. उस समय तुलसीदास के प्रति मेरे हृदय में जो श्रद्धा उत्पन्न हुई और बाद में बराबर बढ़ती गई, वह भावुकता मात्र नहीं है. साहित्य तथा धार्मिकता के विषय में मेरी धारणाओं से इस श्रद्धा का गहरा संबंध है।”
रामकथा और तुलसी की भक्ति के बारे में कामिल बुल्के ने लिखा है, “वास्तव में रामकथा आदर्श जीवन का वह दर्पण है, जिसे भारतीय प्रतिभा शताब्दियों तक परिष्कृत करती रही। इस प्रकार रामकथा भारतीय आदर्शवाद का उज्जवलतम प्रतीक बन गई है। वाल्मीकि के परवर्ती रामकाव्य के कवियों में तुलसी का स्थान अद्वितीय है। उन्होंने वाल्मीकि और लोकसंग्रह का पूरा-पूरा निर्वाह किया है और उस रामकथा के सोने में भगवद्भक्ति की सुगंध जगा दी है।
बुल्के के इस शोध ग्रंथ के उद्धरणों ने पहली बार साबित किया कि रामकथा केवल भारत में नहीं, अंतर्राष्ट्रीय कथा है। वियतनाम से इंडोनेशिया तक यह कथा फैली हुई है। इसी प्रसंग में फादर बुल्के अपने एक मित्र हॉलैंड के डाक्टर होयकास का हवाला देते थे। डा० होयकास संस्कृत और इंडोनेशियाई भाषाओं के विद्वान थे। एक दिन वह केंद्रीय इंडोनेशिया में शाम के वक्त टहल रहे थे। उन्होंने देखा एक मौलाना जिनके बगल में कुरान रखी है, इंडोनेशियाई रामायण पढ़ रहे थे।
होयकास ने उनसे पूछा, मौलाना आप तो मुसलमान हैं, आप रामायण क्यों पढते हैं। उस व्यक्ति ने केवल एक वाक्य में उत्तर दिया- और भी अच्छा मनुष्य बनने के लिये! रामकथा के इस विस्तार को फादर बुल्के वाल्मीकि की दिग्विजय कहते थे, भारतीय संस्कृति की दिग्विजय!
प्रेमचंद के पुत्र के और साहित्यकार अमृत राय ने उनके बारे में लिखा है, “बार-बार यही एक बात मुझे हैरान करती रहती है देखो, हिन्दुस्तान में और इस हिंदी देश में वाल्मीकि को अगर छोड़ भी दें तो गोस्वामी तुलसीदास और उनके मानस और भगवान रामचंद्र का नाम जपने वाले कितने असंख्य लोग हैं, लेकिन रामकथा का सांगोपांग अध्ययन करने के लिए सात समुंदर पार से बेल्जियम के एक कैथोलिक मिशनरी को आना पड़ा। जिस अपूर्व परिश्रम से फादर कामिल बुल्के ने रामकथा पर यह शोध किया है, वह सबके बस की बात नहीं है। उनका ग्रंथ हिंदी का गौरव है।’
‘रामकथा-वैश्विक सन्दर्भ में’ का लोकार्पण करते प्रसिद्ध साहित्यकार केदारनाथ सिंह ने एक बार कहा था, फादर कामिल बुल्के के शोध ग्रन्थ ‘राम कथा’ की सर्वत्र चर्चा है। वास्तव में इस ग्रन्थ से हिंदी के संग-संग विदेश में भी रामकथा के तुलनात्मक साहित्य अध्ययन की शुरुआत हुई।
देश-विदेश के कई विद्वानों ने रामकथा को अपनी लेखनी से हमेशा से समृद्ध किया है। इसी क्रम में फादर कामिल बुल्के का नाम सम्मान के साथ आता है। फादर कामिल बुल्के की यह खोजपूर्ण कृति अपने ढंग की पहली और अनूठी भी है। हिंदी क्या, किसी भी यूरोपीय व भारतीय भाषा में इस प्रकार का कोई दूसरा अध्ययन उपलब्ध नहीं कामिल बुल्के का यह शोध ग्रंथ विश्व राम कथा साहित्य का एक अनुपम संग्रह माना जाता है। उन्होंने दुनिया में रामायण के 300 रूपों की पहचान की। कामिल बुल्के का मानना था कि मनुष्य ईश्वर का प्रतिरूप है।”
बुल्के का अपने समय के हिंदी भाषा के सभी चोटी के विद्वानों से संपर्क था। डॉ. धर्मवीर भारती, डॉ. जगदीश गुप्त, डॉ. रामस्वरूप, डॉ. रघुवंश, महादेवी वर्मा आदि से उनका विचार-विमर्श और संवाद होता रहता था। डॉ. धीरेन्द्र वर्मा को अपना प्रेरणा स्रोत मानते हुए वे अपनी आत्मकथा ‘एक ईसाई की आस्था, हिंदी-प्रेम और तुलसी-भक्ति 2’ में लिखते हैं- “1945 में डॉ. धीरेन्द्र वर्मा की प्रेरणा से मैंने एम.ए. के बाद इलाहाबाद से डॉ. माता प्रसाद के निरीक्षण में शोध कार्य किया। इलाहाबाद के प्रवास को वे अपने जीवन का ‘द्वितीय बसंत’ कहते थे। महादेवी वर्मा को वे ‘दीदी’ और इलाहाबाद के लोगों को वे ‘मायके वाले’ कहते थे।
उनकी पांच पुस्तकें प्रसिद्ध हैं मुक्तिदाता, न्याय वैशेषिक की आस्तिकता , नया विधान न्यू टेस्टामेंट, राम कथा उत्पत्ति और विकास, बाइबिल का हिंदी अनुवाद तथा अंग्रेजी-हिंदी शब्द कोश। अपने शब्दकोश में 40 हज़ार शब्द जोड़े और उसे सदा अद्यतन भी करते रहे। भारतीय साहित्य और संस्कृति को उसकी संपूर्णता में देखा और विश्लेषित किया जाने माने लेखक इलाचंद्र जोशी ने उनके कोश के महत्व के बारे में लिखा कि “यह कोश न केवल हिंदी और अंग्रेजी के पाठकों के लिये उपयोगी सिद्ध होगा वरन नये व अनुभवी लेखकों तथा अनुवादकों के लिए भी उपयोगी साबित होगा मुझे स्वयं अपने निबंधों के लेखन में इससे बडी सहायता मिली “। शब्दकोश निर्माण में उनका योगदान अमिट रहेगा क्योंकि उन्होंने इससे शब्दज्ञान के नये संदर्भों व सोपानों को स्थापित किया।
उनका विश्वास था कि ज्ञान विज्ञान के किसी भी विषय में सक्षम अभिव्यक्ति हिंदी में हो सकती है, और अंग्रेजी पर निर्भर रहने की धारणा निरर्थक है। उनका दृढ विश्वास था कि हिंदी निकट भविष्य में समस्त भारत की सर्वप्रमुख भाषा बन जाएगी अत; हिंदी में कार्य करने और अन्य भाषा भाषियों के हिंदी सीखने की विधाओं के विस्तार के निमित्त निर्माण के क्षेत्र में कार्य किया इस दिशा में उनका पहला कार्य “ए टेक्निकल इंग्लिश-हिंदी ग्लॉसरी” है। उनका अंग्रेज़ी-हिन्दी कोश विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा सरकारी कामकाज का प्रामाणिक कोश बन गया है। भारत सरकार के सभी कार्यालयों तथा उपक्रमों में भी आधिकारिक कोश के रूप में इसका उपयोग होता हैं। फादर कामिल बुल्के ने शोध और कोश निर्माण के क्षेत्र में ही नहीं अनुवाद के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय कार्य किया। मारिस मेटलिंक के विश्व प्रसिद्ध नाटक “ द ब्लू बर्ड “ का फ्रेंच से हिंदी में “ नील पंछी “ शीर्षक से अनुवाद किया।
उन्होंने साहित्य पर कुल 29 पुस्तकें लिखीं। 60 शोध निबंध हैं। 100 छोटे-बडे निबंध भी हैं, बहुत सी रेडियो वार्ताएं हैं जिन्हें वह महत्वपूर्ण मानते थे। कामिल बुल्के की हिंदी सेवाओं के लिए 1974 में भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्मभूषण’ की उपाधि से नवाजा। पद्म भूषण विजेता और मधुशाला के रचयिता हरिवंशराय बच्चन बाबा कामिल बुल्के के श्रीराम स्नेह से इतने अभिभूत थे, उन्होंने बाबा कामिल बुल्के पर खुद ही कविता लिखी। इस महान विद्वान ने 17 अगस्त 1982 को अंतिम सांस ली। उन्होंने लिखा था “ईश्वर के प्रति धन्यवाद ,जिसने मुझे भारत भेजा और भारत के प्रति धन्यवाद जिसने मुझे इतने प्रेम से अपनाया।”