जैसे ही व्यक्तिगत तौर पर मेरे मोबाईल पर डॉ. नरेंद्र कोहली के निधन की खबर मिली तो सहसा उनके उपन्यास महासमर सीरिज़ के आठवें खंड ‘निर्बध‘ के आखिर में लिखा गया एक बेहद ही महत्वपूर्ण संवाद मन में घुमड़ने लगा जहां कृष्ण, युधिष्ठिर से कहते हैं, “आप भी अपने अवसाद की तिलांजलि दीजिए, ग्लानि का त्याग कीजिए। आपको अपार निर्माण करना है। इस युद्ध में हुए विनाश की क्षतिपूर्ति करनी है। इसलिए इस हताशा से स्वयं को बंधनमुक्त करना है। जीवन में अवसाद नहीं उत्सव लाना है”। और वर्तमान की सामाजिक परिस्थितियों (कोरोना काल के संकट) से इस उपन्यास के तार जुड़ने लगते हैं। नरेंद्र कोहली खुद उस कोरोना-कालखंड में गए हैं जो स्वयं फिलहाल जाने से इनकार कर रहा है।
नरेंद्र कोहली किसी राजनीति के नहीं बल्कि पाठकों के लेखक रहे। नरेंद्र कोहली ने अनेक विधाओं में लिखा, खूब लिखा, बल्कि शायद सबसे अधिक व्यंग्य लिखे लेकिन उनकी अमर कीर्ति के पीछे रामकथा और महाभारत को आधार बनाकर लिखे गए उनके उपन्यास हैं। इसके पीछे यही कारण है कि उन्होंने मिथक-कथाओं को समकालीन संदर्भों के साथ ऐसे गूँथ दिया है कि सदियों पुरानी कथाएँ सहसा नवीन लगने लगती हैं। राम कथा के बाद महाभारत कथा को आधार बनाकर लिखी गयी उनकी उपन्यास सीरिज “महासमर‘ के आठ खंडों को हिंदी समाज के एक बड़े पाठक वर्ग ने अपनाया। जिस दौर में टेलीविजन पर “रामायण‘ और “महाभारत‘ धारावाहिकों का प्रसारण हो रहा था नरेंद्र कोहली के उपन्यास भी उस दौर में घर-घर पहुँच रहे थे।
जिस दौर में यह बहस चल रही थी कि हिंदी के पाठक टीवी की तरफ शिफ्ट हो रहे हैं, उस दौर में नरेंद्र कोहली के उपन्यासों ने पाठकों को किताब से जोड़े रखा। इस बात का व्यापक अध्ययन होना चाहिए कि 1990 के दशक में जब हिंदी की लोकप्रिय साहित्य-धारा सिमटती जा रही थी, जिस दौर में हिंदी की बड़ी-बड़ी पत्रिकाएँ बंद हो रही थीं या अपना असर खो रही थीं उस दौर में नरेंद्र कोहली ने हिंदी साहित्य में एक अलग ही धारा स्थापित की। उन्होंने मिथक कथाओं को नया रूप दिया, उनको लेकर नई बहसों का जन्म दिया। अपने आसपास के समाज से उसके तार जुड़ने लगते हैं। उन्होंने सनातन को समकालीन बना दिया।
वे अविभाजित पंजाब से हिंदुस्तान आए और जीवन का लम्बा समय उन्होंने अविभाजित बिहार के शहर जमशेदपुर में बिताया। उनके अंदर एक कस्बाई मिलनसारित हमेशा रही और शायद उसी कारण उन्होंने कस्बाई पाठकों का मन बहुत अच्छी तरह से पकड़ लिया था और वे आजीवन उनके लिए लिखते रहे। नरेन्द्र कोहली का जन्म 6 जनवरी 1940 में स्यालकोट, पंजाब (पाकिस्तान) साधारण कृषक परिवार में हुआ था। पढ़ने और लिखने का शौक होते हुए भी नरेंद्र कोहली के पिता अपनी आंखों के रोग के कारण आठवीं कक्षा में ही स्कूल में पढ़ सके। उर्दू में लिखे अपने तीन चार उपन्यासों की पांडुलिपियां अपने लेखक पुत्र के लिए विरासत स्वरूप छोड़ गए। अविभाजित पंजाब के वन विभाग में अस्थाई क्लर्क के पद पर काम करते रहे। देश के विभाजन के पश्चात् पूंजी, डिग्री तथा अन्य किसी कौशल के अभाव के कारण जमशेदपुर में सड़कों पर बैठ कर फल बेचने को बाध्य हुए। बाद में अपने पुत्र नरेंद्र कोहली के सहयोग से साकची इलाके में एक छोटी सी दुकान खोली, जहां वह अपने मृत्यु तक(1985) नियमित रूप से व्यापार किया।
1947 ई. में देश के विभाजन के पश्यचात् परिवार जमशेदपुर (बिहार) चला आया। यहां तीसरी कक्षा से पढ़ाई आरंभ हुई, धतकिडीह लोअर प्राइमरी स्कूल, चौथी से सातवीं कक्षा तक न्यू मिडिल इंग्लिश स्कूल में हुई एवं आठवीं से ग्यारहवीं कक्षा (विज्ञान) की पढ़ाई टिस्को कंपनी द्वारा संचालित विद्यालय मिसिज़ के. एम. पी. एम. हाई स्कूल, जमशेदपुर में हुई। अब तक की सारी शिक्षा का माध्यम उर्दू भाषा ही थी।
उच्च शिक्षा के लिए जमशेदपुर को- ऑपरेटिव कालेज में प्रवेश किया। 1961 ई. में जमशेदपुर को-ऑपरेटिव कॉलेज से बी. ए. ऑनर्स (हिंदी) उत्तीर्ण करने पश्चात 1963 में रामजस कॉलेज दिल्ली विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में एम. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसी विश्वविद्यालय से 1970 ई. में पी-एच. डी. की उपाधि भी प्राप्त की।
दिल्ली के पी. जी. डी. ए. वी.( सांध्य) कॉलेज में हिंदी के अध्यापक के रूप में की। दूसरी नौकरी दिल्ली के मोतीलाल नेहरू कॉलेज में 1965 में आरंभ किया और 1 नवंबर 1995 ई. को पचपन वर्ष की अवस्था में स्वैच्छिक अवकाश ले कर नौकरियों का सिलसिला समाप्त कर दिया।। इसी बीच उनका विवाह डॉ. मधुरिमा कोहली से हुआ जो दिल्ली विश्वविद्यालय के कमला नेहरू कॉलेज के हिंदी विभाग में 1964 व्याख्याता के रूप में नियुक्त हुई थी।
छठी कक्षा में कक्षा की हस्तलिखित पत्रिका में पहली रचना प्रकाशित हुई। आठवीं कक्षा में स्कूल की मुद्रित पत्रिका में एक कहानी हिंदोस्तां: जन्नत निशां उर्दू में प्रकाशित हुई। हाई स्कूल के ही दिनों में हिंदी में लिखना आरंभ हो गया था। किशोर (पटना), आवाज़ (धनबाद) इत्यादि में कुछ आरंभिक रचनाएं, बाल लेखक के रूप में प्रकाशित हुईं। आई. ए. की पढ़ाई के दिनों में एक कहानी पानी का जग, गिलास और केतली, सरिता (दिल्ली) के नए अंकुर स्तंभ में प्रकाशित हुई थी। नियमित प्रकाशन का क्रम फरवरी 1960 ई. से आरंभ हुआ। इसलिए अपनी प्रथम प्रकाशित रचना दो हाथ (कहानी, इलाहाबाद, फरवरी 1960) को मानते हैं।
1965 ई.के आस पास वे व्यंग्य लिखने लगे थे। उन की भाषा वक्र हो गई थी, और देश तथा राजनीति की विडंबनाएं सामने आने लगी थीं। सामाजिक चित्रण तथा विडंबनाओं और विकृतियों की भर्त्सना मात्र से उन्हें संतोष नहीं हुआ। वे कुछ सार्थक लेखन करना चाहते थे। उन्होंने अनुभव किया कि हीन वृत्तियों के चित्रण से हीनता तथा हीन भावनाओं की वृद्धि होगी। उनके साहित्य का लक्ष्य है, जीवन के उदात्त, महान् तथा सात्विक पक्ष का चित्रण करना।
नरेन्द्र कोहली ने रामकथा से सामग्री ले कर चार खंडों में 1800 पृष्ठों का एक बृहदाकार उपन्यास लिखा। कदाचित् संपूर्ण रामकथा को ले कर, किसी भी भाषा में लिखा गया, यह प्रथम उपन्यास है। उपन्यास है, इसलिए समकालीन, प्रगतिशील, आधुनिक तथा तर्काश्रित है। इस की आधारभूत सामग्री भारत की सांस्कृतिक परंपरा से ली गई है, इसलिए इस में जीवन के उदात्त मूल्यों का चित्रण है, मनुष्य की महानता तथा जीवन की अबाधता का प्रतिपादन है। हिंदी का पाठक जैसे चौंक कर, किसी गहरी नींद से जाग उठा। वह अपने संस्कारों और बौद्धिकता के द्वंद्व से मुक्त हुआ। इस कृति का अभूतपूर्व स्वागत हुआ और हिंदी उपन्यास की धारा की दिशा ही बदल गई। रामकथा की नई जमीन को नए मानवीय, विश्वसनीय, भौतिक, सामाजिक, राजनीतिक और आधुनिक रूप में प्रस्तुत किया गया। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, अमृतलाल नागर, यशपाल, जैनेन्द्र कुमार आदि ने नरेन्द्र कोहली की खुले शब्दों में तारीफ़ की है।
जैनेन्द्र कुमार कहते हैं – ‘मैं नहीं जानता कि उपन्यास से क्या अपेक्षा होती है और उसका शिल्प क्या होता है। प्रतीत होता है कि उनकी रचना उपन्यास के धर्म से ऊंचे उठकर कुछ शास्त्र की कक्षा तक बढ़ जाती है।‘ भगवतीचरण वर्मा लिखते हैं- ‘मैंने नरेंद्र कोहली में वह प्रतिभा देखी है जो उनको हिन्दी के अग्रणी साहित्यकारों में ला देती है। राम कथा के आदि वाले अंश का कुछ भाग उन्होंने (‘दीक्षा‘ में) बड़ी कुशलता के साथ प्रस्तुत किया है। उसमें औपन्यासिकता है, कहानी की पकड़ है।‘ यशपाल का कहना है कि नरेंद्र कोहली ने राम कथा, जिसे अनेक इतिहासकार मात्र पौराणिक आख्यान या मिथ ही मानते हैं, को यथाशक्ति यथार्थवादी तर्कसंगत व्याख्या देने का प्रयत्न किया है।
अहिल्या के मिथ को भी कल्पना से यथार्थ का आभास देने का अच्छा प्रयास है। हजारीप्रसाद द्विवेदी लिखते हैं- ‘रामकथा को नरेंद्र कोहली ने एकदम नयी दृष्टि से देखा है। ‘अवसर‘ में राम के चरित्र को नयी मानवीय दृष्टि से चित्रित किया है। इसमें सीता का जो चरित्र चित्रित है, वह बहुत ही आकर्षक है। सीता को कभी ऐसे तेजोदृप्त रूप में चित्रित नहीं किया गया था। साथ ही सुमित्रा का चरित्र बहुत तेजस्वी नारी के रूप में उकेरा है। मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि यथा-संभव रामायण कथा की मूल घटनाओं को परिवर्तित किये बिना उसकी एक मनोग्राही व्याख्या की गई है।
डॉ नगेन्द्र लिखते हैं- दीक्षा में प्रौढ़ चिंतन के आधार पर रामकथा को आधुनिक संदर्भ प्रदान करने का साहसिक प्रयत्न किया गया है। बालकाण्ड की प्रमुख घटनाओं तथा राम और विश्वामित्र के चरित्रों का विवेक सम्मत पुनराख्यान, राम के युगपुरुष/युगावतार रूप की तर्कपुष्ट व्याख्या विशेष उपलब्धियाँ हैं। धर्मवीर भारती लिखते हैं- यूं ही कुतूहलवश ‘दीक्षा‘ के कुछ पन्ने पलटे और फिर उस पुस्तक ने ऐसा परिचय कराया कि दोनों दिन पूरी शाम उसे पढ़कर ही ख़त्म किया। चार खंडों में पूरी रामकथा एक बहुत बड़ा प्रोजेक्ट है। इसमें सीता और अहिल्या की छवियों की पार्श्व-कथाएं बहुत सशक्त बन पड़ी हैं।
अमृतलाल नागर के शब्दों में उनकी कृति नायक के चित्रण में सश्रद्ध भी हैं और सचेत भी, प्रवाह अच्छा है। कई बिम्ब अच्छे उभरे, साथ साथ निबल भी हैं, पर होता यह चलता है कि एक अच्छी झांकी झलक जाती है और उपन्यास फिर से जोर पकड़ जाता है। इस तरह रवानी आद्यान्त ही मानी जाएगी। कवि बाबा नागार्जुन लिखते हैं- प्रथम श्रेणी के कतिपय उपन्यासकारों में अब एक नाम और जुड़ गया- दृढ़तापूर्वक मैं अपना यह अभिमत नरेंद्र कोहली तक पहुंचाना चाहता हूँ। रामकथा से सम्बन्धित सारे ही पात्र नए-नए रूपों में सामने आये हैं, उनकी जनाभिमुख भूमिका एक-एक पाठक-पाठिका के अन्दर (न्याय के) पक्षधरत्व को अंकुरित करेगी यह मेरा भविष्य-कथन है।
प्रसिद्ध कवि शिवमंगल सिंह ‘सुमन‘ लिखते हैं कि रामकथा की ऐसी युगानुरूप व्याख्या पहले कभी नहीं पढ़ी थी। इससे राम को मानवीय धरातल पर समझने की बड़ी स्वस्थ दृष्टि मिलती है और कोरी भावुकता के स्थान पर संघर्ष की यथार्थता उभर कर सामने आती है। व्याख्या में बड़ी ताजगी है। तारीफ़ तो यह है कि रामकथा की पारम्परिक गरिमा को कहीं विकृत नहीं होने दिया गया है। मैं तो चाहूंगा कि वह रामायण और महाभारत के अन्य पौराणिक प्रसंगों एवं पात्रों का भी उद्घाटन करें।
नरेन्द्र कोहली ने महाभारत कथा के आधार पर, अपने नए उपन्यास महासमर की रचना आरंभ की। महाभारत एक विराट कृति है, जो भारतीय जीवन, चिंतन दर्शन तथा व्यवहार को मूर्तिमंत रूप में प्रस्तुत करती है। नरेन्द्र कोहली ने इस कृति को अपने युग में पूर्णतः जीवंत कर दिया है। उन्हों ने अपने इस उपन्यास में जीवन को उस की संपूर्ण विराटता के साथ अत्यंत मौलिक ढंग से प्रस्तुत किया है। जीवन के वास्तविक रूप से संबंधित प्रश्नों का समाधान वे अनुभूति और तर्क के आधार पर देते हैं। इस कृति में आप महाभारत पढ़ने बैठेंगे और अपना जीवन पढ़ कर उठेंगे।
नरेन्द्र कोहली ने एक और उपन्यास शृंखला आरंभ कर पाठकों को चकित कर दिया। यह है, ‘तोड़ो कारा तोड़ो’। यह शीर्षक, रवीन्द्रनाथ ठाकुर के एक गीत की एक पंक्ति का अनुवाद है; किंतु उपन्यास का संबंध स्वामी विवेकानन्द की जीवनकथा से है। नरेन्द्र कोहली के इस सरस उपन्यास के प्रत्येक पृष्ठ पर, उपन्यासकार के अपने नायक के साथ तादात्म्य को देख कर पाठक चकित रह जाता है। स्वामी विवेकानन्द का जीवन बंधनों तथा सीमाओं के अतिक्रमण के लिए सार्थक संघर्ष था। बंधन चाहे प्रकृति के हों, समाज के हों, राजनीति के हों, धर्म के हों , अध्यात्म के हों। उन्हें किसी एक युग, प्रदेश, संप्रदाय अथवा संगठन के साथ बांध देना, अज्ञान भी है और अन्याय भी।” ऐसे स्वामी विवेकानन्द के साथ तादात्म्य किया है नरेन्द्र कोहली ने।
इस बात में दो राय नहीं है कि डॉ. नरेन्द्र कोहली का भारतीय लेखकों में अपनी एक खास जगह है और हिन्दी साहित्य में उनकी पहचान अप्रतिम कथा-लेखक के रूप में है जिन्होंने मिथकीय पात्रों को एक नई ध्वनि और नई रोशनी में पेश किया है। वरिष्ठ लेखक प्रेम जनमेजय ने कहा कि वर्ष 1960 में पहली प्रकाशित कहानी से लेकर अब तक विभिन्न विधाओं में उनकी 92 पुस्तकों का प्रकाशन हो चुका है, और इसलिए कोहली एक युग प्रवर्तक साहित्यकार हैं। अपने 81वें जन्मदिन 6 जनवरी 2021 को अपने पाठकों के लिए एक नई सौगात के रूप में अपने नवीनतम उपन्यास ‘सुभद्रा‘ का लोकार्पण किया था।
उनके निकट संपर्क में आने वाला कोई व्यक्ति हिंदी के प्रति उनके अतिरिक्त आग्रह को भाँपे बिना नहीं रह पाता था। उनको किसी कार्यक्रम में बुलाया जाता तो उनका आग्रह होता था कि मंच पर हिंदी ही बोला जाए। नरेन्द्र कोहली संस्कृतियों की मिलाबट के विरोधी भले न रहे हों लेकिन भाषा में किसी तरह की मिलाबट को वे बर्दाश्त नहीं करते थे।
ये ‘परम्परा‘ के सबसे आधुनिक लेखक थे लेकिन ऐसे लेखक रहे जिसकी कोई परम्परा नहीं बनी। जब उन्होंने मिथक कथाओं पर लिखना शुरू किया था तब मिथकों पर लिखना हिंदी में जोखिम का काम माना जाता था, आज मिथकों पर लिखने वाले लेखकों की तादाद बहुत बड़ी है, लेकिन नरेंद्र कोहली का लेखन सबसे अलग था, उनकी अभिव्यक्ति भी। उनका जाना एक परम्परा का लुप्त हो जाना है जिसके वे सेनापति भी थे और प्रहरी भी। हिंदी की मुख्यधारा की आलोचना ने उनको सदा ‘अन्य’ की तरह देखा लेकिन उनकी चिंता के केंद्र में हिंदी के “अन्य” रहे। डॉ. नरेंद्र कोहली जी ऐसे शब्द योगी थे जिन्होंने अपने लेखन से इस माटी की विरासत और समृद्ध परंपराओं को युगानुकूल संदर्भों में परिभाषित किया। उनके जाने से साहित्य के एक प्राज्ज्वलयमान अध्याय का अंत हो गया है।
आधुनिक तुलसी डॉ. नरेंद्र कोहली से असंख्य मुलाकातों की स्मृति शेष को नमन करते हुए उनकी एक पंक्ति को उद्धृत करते हुए दीक्षा के राम को नमन करता हूँ जो आज भी प्रासंगिक हैं- ‘राम मिट्टी में से सेनाएँ गढ़ता है क्योंकि वह केवल दमित और शोषित जन-सामान्य का पक्ष लेता है न्याय का युद्ध करता है।‘