स्मृति शेष: दिलीप कुमार
दिलीप कुमार एक अभिनेता से कहीं ज्यादा थे। कहने को तो वह अभिनेता थे, मगर अभिनय से दिलों पर राज करना किसे कहते हैं, दुनिया को यह दिखाया था दिलीप कुमार ने। अपनी फिल्मों में विद्रोही से लेकर प्रेमी तक, जिंदगी का कोई पन्ना या किस्सा ऐसा नहीं था जिसे दिलीप ने पर्दे पर नहीं जिया।
दिलीप साहब के अभिनय की जीवन रेखा पीढ़ियों की स्मृतियों में किस्सों के रूप में दर्ज है। फिल्मों के अनगिनत रंग हर आंखों का दृश्य है। हर दृश्य एक धड़कन है और हर धड़कन में एक देवदास है, देवेंदर है, राम-श्याम है, शहजादा सलीम है और कोई शमशेर सिंह है तो कोई सांगा है। दरअसल, हर एक के हिस्से के दिलीप कुमार अलग हैं और फिल्मों के हर छोटे से हिस्से में एक कतरा दिलीप कुमार है।
आज सिनेमा जगत में अमिताभ बच्चन को लोग सदी का महानायक मानते हैं। लेकिन हिन्दी सिनेमा में अगर सबसे सफल और चर्चित कलाकार का नाम तलाशा जाए तो शायद एक ही नाम उभर कर आए और वह हैं दिलीप कुमार। हिन्दी सिनेमा के स्वर्ण काल में दिलीप कुमार ने हिन्दी सिनेमा को सबसे अधिक सफल फिल्में दी थीं। भले ही बाद के दिनों में राजेश खन्ना सुपर स्टार बने हों या अमिताभ बच्चन महानायक या फिर शाहरुख खान बन गए हों बॉलीवुड के बादशाह, लेकिन सच तो यह है कि यूसुफ खान यानि दिलीप कुमार की ऊंचाई को छूना इन सबके लिए सपना ही रहा। इंडस्ट्री में आने वाला हर नया कलाकार उन्हें अपने आदर्श के रूप में देखता है। इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि अभिनय में सबसे ज्यादा नकल दिलीप कुमार के अभिनय की ही हुई है।
दिलीप कुमार का जन्म पेशावर में फल बेचने वाले लाला गुलाम सरावर खान के घर में 11 दिसंबर 1922 को हुआ था। 12 भाई-बहनों के साथ पलने वाले युसूफ खान ने देवलाली में स्कूलिंग की। वो राज कपूर के साथ बड़े हुए जो उनके पड़ोसी भी थे। बाद में दोनों ने फिल्म इंडस्ट्री में दो भिन्न स्तंभों के रूप में अपनी पहचान को स्थापित किया।
1940 के दशक में पिता से झगड़ा होने के बाद युसूफ खान ने घर छोड़ दिया और पुणे चले गए। एक पारसी कैफे ओनर की मदद से उनकी मुलाकात एक कैंटीन कॉन्ट्रैक्टर से हुई। फिर अच्छी अंग्रेजी बोलने की वजह से पहला काम मिला। उन्होंने आर्मी क्लब में सैंडविच का स्टॉल लगाया और जब कॉन्ट्रैक्ट खत्म हुआ तो वो 5000 कमा चुके थे। इसके बाद वो बॉम्बे अपने घर वापस आ गए, 1943 में डॉक्टर मसानी के सलाह पर बॉम्बे टॉकीज में काम करना स्वीकार किया, जहां उनकी मुलाकात देविका रानी से हुई। देविका रानी ने उन्हें 1250 रुपये की मासिक वेतन पर इस कंपनी में नौकरी दी। यहां उनकी मुलाकात अशोक कुमार और सशाधर मुखर्जी से भी हुई जिन्होंने उनसे नेचुरल एक्टिंग करने को कहा। कुछ ही सालों में ये दोनों उनके दोस्त बन गए। शुरूआत में युसूफ खान यहां पर स्टोरी लिखने और स्क्रिप्ट को सुधारने में मदद करते थे क्योंकि उनकी उर्दू अच्छी थी। बाद में देविका रानी ने उन्हें नाम बदलकर दिलीप कुमार रखने को कहा।
ज्वार भाटा के बाद दिलीप कुमार ने कई और फ्लॉप फिल्में कीं। 1947 में रिलीज हुई फिल्म जुगनू से उन्हें पहचान मिली। इस फिल्म में उनके साथ अभिनेत्री नूरजहां थीं। ये फिल्म बॉक्स ऑफिस पर बहुत सफल रही। इसके बाद 1948 में उन्होंने शहीद और मेला जैसी बड़ी हिट फिल्में दीं।
1949 में रिलीज हुई फिल्म अंदाज ने उनके कॅरियर को बड़ा ब्रेक दिया। इस फिल्म को महबूब खान ने बनाया जिसमें उनके साथ नरगिस और राज कपूर थे। इसके बाद इसी साल शबनम रिलीज हुई ये फिल्म भी सफल रही।
1950 में भी भी दिलीप कुमार ने बहुत सारी सफल फिल्में दीं। जोगन (1950),बाबुल (1950), हलचल (1951), दीदार (1951), तराना (1951), दाग (1952), संगदिल (1952), शिकस्त (1953), अमर (1954), उड़न खटोला (1955), इंसानियत (1955) इसमें देवानंद थे, देवदास (1955), नया दौर (1957), यहूदी (1958), मधुमती (1958) और पैगाम (1959)। दिलीप कुमार पहले एक्टर थे जिन्होंने अपनी फीस एक लाख कर दी थी. 1950 के दशक में ये रकम बहुत ज्यादा थी।
भारतीय सिनेमा के इतिहास में दर्ज किए गए मुट्ठी भर महान लोगों में से एक, दिलीप कुमार ने “देवदास”, “अंदाज” और “मुगल-ए-आज़म” जैसी क्लासिक फिल्मों से ऐसी छाप छोड़ी कि आज तक उसे कोई मिटा नहीं सका। दिलीप ने भारत की आजादी से तीन साल पहले 1944 में ‘ज्वार भाटा‘ से डेब्यू किया था और आखिरी फिल्म ‘किला’1998 में की। वह नेहरूवादी नायक थे, जो 40 और 50 के दशक के अंत में सिनेमा में एक युवा भारत की समस्याओं से जूझ रहे थे, विशेष रूप से “शहीद” और “नया दौर” में उन्होंने इसकी झलक भी दिखाई। उस आदर्शवाद ने 60 के दशक में “गंगा जमुना” जैसी फिल्मों के साथ एक नया मार्ग प्रशस्त किया। बाद में वह चरित्र भूमिकाओं में चले गए। राज कपूर और देव आनंद के साथ हिंदी सिनेमा की प्रसिद्ध तिकड़ी का हिस्सा कुमार ने दिलों को झकझोर कर रख दिया, उनके चाहने वालों की कमी नहीं थी।
इनमें से कुछ फिल्मों में उन्होंने ऐसा अभिनय किया कि उन्हें “Tragedy King” का नाम मिल गया। ट्रेजेडी किंग बनने के बाद वो काफी परेशान हुए। मनोचिकित्सक की सलाह पर उन्होंने हल्की फुल्की फिल्में करनी शुरु कर दीं. 1952 में महबूब खान की फिल्म आन में उन्होंने कॉमेडी रोल किया जिसे पसंद किया गया। इसके बाद उन्होंने 1955 में आजाद और 1960 में कोहिनूर जैसी फिल्मो में कॉमेडी रोल्स किए।
1960 में के. आसिफ की फिल्म “मुगल-ए-आज़म” में दिलीप कुमार ने प्रिंस सलीम का रोल किया था और इस फिल्म ने इतिहास रच दिया। 11 साल तक कोई इसका रिकॉर्ड नहीं तोड़ा पाया। 1971 में रिलीज हुई हाथी मेरे साथी और 1975 में रिलीज हुई शोले ने इस फिल्म को पीछे छोड़ा। ये फिल्म ब्लैक एंड ह्वाइट में शूट की गई थी, जबकि इस फिल्म के कुछ हिस्से कलर्ड भी थे। फिल्म की रिलीज के 44 साल बाद इसे पूरी तरह कलर्ड फिल्म की तरह 2004 में फिर से रिलीज किया गया।
अपने बेहतरीन फिल्मी कॅरियर के बावजूद भी दिलीप कुमार ने मात्र 54 फिल्मों में ही काम किया जिसकी वजह वह फिल्मों में बेहतरीन प्रदर्शन को बनाए रखना बताते हैं। एक समय ऐसा था जब बॉलिवुड में देवानंद, राजकपूर और दिलीप कुमार की त्रिमूर्ति को सफलता की कसौटी माना जाता था। आज भी दिलीप कुमार अभिनेताओं के लिए प्रेरणा का स्त्रोत हैं। उन्होंने हिन्दी सिनेमा में ऐसे कई मानक तय किए हैं जिन पर चलकर आज युवा अभिनेता अपना कॅरियर तय करते हैं।
बॉलिवुड में अपनी फिल्मों से भी ज्यादा दिलीप कुमार ऑफ स्क्रीन लव अफेयर के लिए भी चर्चा में रहते थे/ दिलीप कुमार की प्रेमिकाओं में पहला नाम मधुबाला को याद किया जाता है, इसके साथ ही उनका नाम वैजयंती माला के साथ भी जुड़ा। दिलीप कुमार ने 1966 में ब्यूटी क्वीन सायरा बानो से शादी की थी। जिस समय दिलीप कुमार और सायरा बानो की शादी हुई थी उस समय सायरा बानो 22 और दिलीप साहब 44 साल के थे। आज यह जोड़ी बॉलिवुड की सबसे प्रसिद्ध जोड़ियों में से एक है.
दिलीप कुमार पहले अभिनेता हैं जिन्होंने फिल्म दाग के लिए फिल्मफेयर बेस्ट एक्टर का अवॉर्ड जीता। इसके बाद लगातार सात बार ये अवॉर्ड उन्होंने अपने नाम किया। सबसे अधिक अवार्ड जीतने वाले दिलीप कुमार का नाम गिनीज बुक ऑफ रिकॉर्डस में भी दर्ज है। अपने जीवनकाल में दिलीप कुमार कुल आठ बार फिल्म फेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार पा चुके हैं और यह एक कीर्तिमान है जिसे अभी तक तोड़ा नहीं जा सका। 1993 में उन्हें फिल्मफेयर लाइफटाइम अचिवमेंट अवार्ड से भी नवाजा गया था। 1995 में फिल्म का सर्वोच्च राष्ट्रीय सम्मान ‘दादा साहब फाल्के अवॉर्ड‘ भी प्रदान किया।
भारत सरकार ने उन्हें 1991 में पद्म भूषण की उपाधि से नवाजा था पाकिस्तान सरकार ने भी उन्हें 1997 में ‘निशान-ए-इम्तियाज‘ (Nishan-e-Imtiaz,) से नवाजा था, जो पाकिस्तान का सर्वोच्च नागरिक सम्मान है।
1990 के दशक की शुरुआत में, जब मुंबई सांप्रदायिक तनाव से त्रस्त था, दिलीप कुमार शांति दूत के रूप में उभरे। शहर में 1993 के दंगों के दौरान, कहानियों की भरमार है कि कैसे उन्होंने अपना घर खोला और इसे राहत कार्य के लिए एक कमांड सेंटर बनाया।
कुमार बहुभाषाविद थे। पेशावर में जन्में दिलीप कुमार उर्दू, हिंदी, पंजाबी, अवधी, भोजपुरी, मराठी, बंगाली और अंग्रेजी में पारंगत थे। उनकी पत्नी, एक्ट्रेस सायरा बानो ने कहा कि वह कुरान के साथ ही भगवत गीता के साथ अच्छी तरह से वाकिफ थे और उनकी स्मृति से छंदों का पाठ कर सकते थे। उन्होंने अभिनेता की आत्मकथा “द सबस्टेंस एंड द शैडो” की प्रस्तावना में लिखा, “उनकी धर्मनिरपेक्ष मान्यताएं सीधे उनके दिल से और सभी धर्मों, जातियों, समुदायों और पंथों के प्रति उनके सम्मान से निकलती हैं।”
दिलीप साहब ने हमें तब अलविदा किया जब मृत्यु से ज्यादा जिंदगी अफवाह बन गई है, और देखिए ना उनकी विदा में भी जीवंतता है। एक विराम के बीच, दिलीप साहब को उतना तो याद किया ही जा सकता है जितना उससे ज्यादा याद किया जाता। दिलीप साहब आज जिंदगी के पर्दे पर कहीं नहीं हैं। दिलीप साहब एक नये सफर पर हैं। भारतीय सिनेमा पर दशकों तक छाया रहा यह अभिनेता इस फना जमाने में वे भरपूर जिंदगी जीकर विदा हो गया।
यहूदी फिल्म के उन पर फिल्माए गए मेरे एक पसंदीदा गीत से उन्हें अलविदा, जिसे शहरयार ने लिखा और शंकर – जयकिशन साहेब अपने संगीतबद्ध से उसे दिलीप साहब की तरह ही अमर कर दिया।
दिल को तेरी ही तमन्ना, दिल को है तुझसे ही प्यार / चाहे तू आए न आए, हम करेंगे इंतज़ार / ये मेरा दीवानापन है … ऐसे वीराने में इक दिन, घुट के मर जाएंगे हम / जितना जी चाहे पुकारो, फिर नहीं आएंगे हम / ये मेरा दीवानापन है …