मित्रों “भीतर सांकल बाहर सांकल “का गीतकार और “शामियाने कांच के “का ग़ज़लगो बिंबो के टटकेपन , प्रतीकों की घर आंगन वाली पहचान और अपनी सघन संवेदना की सरस अभिव्यक्ति लिए नई कविता के विभिन्न सरपंचों द्वारा नवगीत को बचाने में अग्रगण्य हस्ताक्षर रहा। उन्होंने अपने संग्रह “पिन बहुत सारे” (1972 )से नव- गीतकार के रूप में प्रतिष्ठा पाई” पिन बहुत सारे” में सारे शब्द की सार्थकता के साथ उनके द्वारा संवेदना के सप्त सोपानों का विभाजन जिस विविधा को लेकर आता है! उस में लगभग 65 गीत, घुटन, आक्रोश, व्यंग ,एकांत ,दिशा-दशा, बिंब और श्रंगार शीर्षकों में प्रायः आनुपातिक ढंग से रखें हुए हैं! चेतना और अनुभूति के संस्पर्श में मंत्र दृष्टा ऋषि, कैसे जीवन- जगत, कर्म -भाग्य ,ईश्वर -मनुष्य, कल्पना -यथार्थ, पेट -ह्रदय, पदार्थ -चेतना ,को संवेद्य शब्दों में उतारता है उसका अप्रतिम उदाहरण हैं कुंवर बेचैन!
उनके कवि में करुणा सहानुभूति यथार्थ के भोगे- अनुभोगे स्वर गुंजन, विवश आक्रोश के मौन अभाव की दयनीय छटपटाहट, मानवीय मूल्यों की छीछालेदर करती निर्दयी सामंती व्यवस्था के विरोध में अशक्त प्रदर्शन की दशा, प्रियतमा के सुकुमार स्पर्श के प्रकम्प, सभी को पकड़ने का माद्दा है ।
तभी तो अपने प्रथम संग्रह “पिन बहुत सारे “में ही उनके बहुआयामी काव्य संवेदना की सिद्धि हुई है !संग्रह के पहले प्रभाग “घुटन “के अंतर्गत यथार्थ जीवन की विवश होगी गई जटिलताओं की घुटन तथा दूसरे प्रभाग ‘आक्रोश’ में विसंगतियों से जूझने को उद्यत आक्रोश है! तीसरे प्रभाग ‘व्यंग ‘शीर्षक में वह ऊंची राजनीति, स्वार्थी संबंधों ,भ्रष्ट बाबू गिरी ,और भौंड़ी पाश्चात्य नकल पर व्यंग करते हुए दिखते हैं !चौथे प्रखंड ‘एकांत’में जहां उनका कवि हर ओर से ठगा हुआ मोहभंग के अनंत संत्रास में दिखता है !वहीं पांचवे में प्रभाग ‘दिशा’ में वह यथार्थ बोध के साथ भविष्य की दिशा निर्धारित करते हुए दिखाई देता है! छठवें खंड ‘बिम्ब ‘ में उन्होंने समसामयिक जीवन की विसंगतियां दिखाते हुए ,टटके बिम्बों के गीत लिखे हैं! जबकि अंतिम, सातवें, प्रखंड श्रृंगार शीर्षक में तो जैसे हिंदी नवनीत का चरम सृजन हुआ हो! सटीक बिंब ,नवीन उपमायें , साझा घरेलू प्रतीक और प्रौढ़ शिल्प के साथ हृदय-मस्तिष्क के साम्य की आंतरिक बुनावट लिए डॉ कुंवर बेचैन के नवगीत, नई कविता के समान आधुनिक संदर्भ वहन करने में सक्षम युग की उपलब्धि हैं।
काव्य में औज, माधुर्य और प्रसाद में प्रसाद को मुख्य मानने वाले बेचैन जी भाषा और शिल्प के दृष्टिकोण से अपनी स्वयं राह बनाने वाले हैं! सांस्कृतिक परिवेश का द्वैतपन ,परिवार, समाज और रिश्तो की टूटन ,आदमी से बड़ी होती लाचारी ,गरीबी और भूख के साथ, मध्यमवर्गीय यथार्थ को साझा घरेलू अनुभूतियों, बिम्बों व प्रतीकों में नए ढंग से जीवंत भाषा में जीवित कर देने वाले डॉ कुंवर बेचैन की संप्रेषण इयत्ता बेहद पुरअसर रही है !
नैसर्गिक प्रेम ,उसके मिलन -बिछुड़न और जीवन को ,जिस अधूरे वाक्य के आगे पूर्णविराम लगाकर आपने शब्दायित किया है वह आप जैसे गिर ते ऊंचे रसिक के लिए ही संभव था!
“उर्वशी हो तुम “की उर-बसी ,’उर्वशी’ का रूप वर्णन ,सौंदर्य चित्रण और प्रेम प्रकरण ‘नवगीत’ की रचना प्रक्रिया के मानकों को स्थापित करता हुआ युग का सशक्त हस्ताक्षर बनता है और स्वयं संग्रह को संग्रहणीय बनाता है!
‘गद्यं कविनां निकषं बदंति’ को मस्तिष्क व हृदय की युग्म चौपाल पर अपने लिए सत्य सिद्ध करता हुआ डॉ कुंवर बेचैन का कवि अपने पहले ही संग्रह की भूमिका के बहाने जो कहता है वह कवि की कविता की और युग-काव्य-बोध की स्वयं अतीव सुंदर कविता है-अथ में ही इति से आगे की बात है!
उनकी सप्तवर्णी कविता अपने में संवेदना का सद्यः स्नात ,ह्रदय कैशोरी संकोची वृत्ति की भाव-त्वरा ,लाज का घूंघट पहन कर, शब्दों की पगडंडियों में पूरी अल्हड़ता के साथ खेली है !गंव्ई सारल्य का अबोध मन,”कुछ घुंघराली अलकों के ,कुछ कजरारी आंखों “के कुछ मधुर मधुर सपनों तथा इंद्रधनुषी भौहों के सम्मोहन में फंसा कवि, कैसे हर चित्र को गीत बनाता है वह स्वयं लिखते हैं -“कुछ घुंघराली अलकों, कुछ कजरारी आंखों के ,कुछ मधुर मधुर सपनों तथा इंद्रधनुषी भौहों के” चित्र लिए कल्पना अपने किसलयी होठों से स्मित की स्निग्धता बिखेरती रही।
मन रीझ गया उसकी इस तरह मुस्कान पर और मुट्ठी में कसकर बंद कर लिए वह सारे चित्र, इस डर से कि कोई फिसल न जाए !मुट्ठी खोली तो हर चित्र गीत बन गया था!
पर “नीली आंखों की जादुई खींच” के व्यामोह में हंसी डॉ बेचैन की आंखों में किसी मजबूरी पर पाशविकता को देखते ही रक्त उतर आता है। भूख ,गरीबी ,अत्याचार के यथार्थ ने उनके चित्र को आकुल व्याकुल किया है और घुटन, आक्रोश व्यंग के रूप रंग में उनके गीतों में छटपटाती वेदना ,आवेगित क्रोध और विषाक्त शर बनकर आए हैं !पर उनका कवि मात्र वर्णन का कवि नहीं है वह एकांत चिंतन करता है और भविष्य की दिशा भी देता है !इस तरह पूरे कवि कर्म के दायित्व का निर्वहन करते हुए डॉक्टर बेचैन आगे भी सभी अर्गलायें खोलते हैं! क्योंकि वे आरोपित और स्वयं निर्मित बंधनों से जकड़े मनुष्य की “भीतर सांकल बाहर सांकल” में बंधी वेवश जिंदगी को पहचानते हैं।
सार्थक परंपरा को ग्राह्य और रूढ़ियों को सांकल मानने वाले डॉ बेचैन की कल्पना आकाश की वायु में नहीं, धरती की उबड़ खाबड़ जमीन पर ठोकरों में संभलकर आगे बढ़ती है! सहज और अंतः स्फूर्त गीत ,बोलचाल की भाषा में रस उड़ेल जाते हैं !डॉ कुंवर बेचैन के गीत के सरोकार जितने वैयक्तिक हैं ,उससे अधिक राजनीतिक व सामाजिक ।उनके गीत संवेदना की जिस ऊंचाई से शुरू होते हैं उनके संग्रह उतने ही पूर्व नियोजन और भूमिका से बंधे होते हैं ! “पिनबहुत सारे “की भांति “भीतर सांकल बाहर सांकल “के गीत भी 5 शीर्षकों में विभक्त होकर उतरते हैं पहले…” कच्ची दीवारें , टाइयां और शहर “वाले प्रभाग में गांव के गुड़ चने व शहर की बाजारू जिंदगी का अंतर! दूसरे खंड में “घर में बहने वाली नदी और रेगिस्तानी नाव” में झुठलाते नाते ,बिखरते विश्वास और घर के बीच उठती दीवारों की बातें हैं !तीसरे भाग का” मुखड़ा अलग अंतरा अलग “में वैयक्तिक सामाजिक दोहरी जीवन प्रणाली पर क्षोभ व्यक्त हुआ है !चौथे प्रखंड में “मौसम तो माध्यम है “के सहारे प्रकृति के नए ढंग से मानवीय संवेदना के साथ उतारे बहु विधि चित्र हैं तो अंतिम 5 वें भाग में शीर्षक “पिंजरा बोलता है “से जातीय, आर्थिक ऊंच-नीच पर आक्रोश व्यक्त हुआ है! उनकी भूमिका व संग्रह के शिष्य विभाजन स्वयं तुलसीदास के बालकाण्ड की तरह एक बहुत बड़े उद्देश्य की सिद्धि का सोपान और कविता के दायित्व की पूर्ति कर देते हैं! उनकी सृजनधर्मिता बुद्धि और संवेदना का जो साम्य बिठा के चलती है ,वहां सारी व्याख्यायें ,समीक्षायें, लकीर पीटने के अलावा और क्या कर सकती हैं! उनके जैसे महान साहित्यकार अपने हिस्से का सारा कार्य स्वयं कर जाते हैं अन्य को तो बस यही कहना शेष रह जाता है उनके नवगीत हिंदी नवगीत के इतिहास में स्वयं एक इतिहास है,
और फिर,इस कोरोना काल में, 30अप्रैल को,उनका,यूँ जाना,सबको ही बेचैन कर गया,,
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