द्रौपदी मुर्मू देश की 15वीं राष्ट्रपति चुन ली गई हैं। मुर्मू राष्ट्रपति बनने वाली दूसरी महिला और पहली आदिवासी हैं। राष्ट्रपति के रूप में माननीय द्रौपदी मुर्मु के निर्वाचन पर पूरे देश में अभूतपूर्व प्रतिक्रियाएं देखने व सुनने को मिल रही हैं। आज तक राष्ट्रपति पद के चुनावों के प्रति आम आदमी की रुचि लगभग शून्य होती थी।इसके विपरीत विगत कुछ वर्षों से देश की आम जनता का इस तरह अपनी रुचि दिखाना स्वागत योग्य बदलाव है। पिछले दो-तीन सप्ताहों से सोशल मीडिआ पर भी देश का मूड देखने को मिला।
वह संथाल आदिवासी समुदाय से आती हैं। गोंड और भील के बाद संथाल देश का तीसरा सबसे बड़ा आदिवासी समुदाय है। संथाल को संताल भी कहा जाता है। सांथा का मतलब काम और आला का मतलब मैन होता हैं। यानी शांत व्यक्ति। संथाल समुदाय के ज्यादातर लोग झारखंड, ओडिशा और पश्चिम बंगाल में रहते हैं। द्रौपदी मुर्मू ओडिशा के मयूरभंज जिले से आती हैं, जहां बड़ी संख्या में संधाल समुदाय के लोग रहते हैं।
निश्चय ही अधिकांश देशवासियों ने किसी न किसी माध्यम से द्रौपदी जी की संघर्षगाथा जान ली होगी। एक साधनहीन परिवार में जन्म लेकर द्रौपदी जी ने शिक्षा के प्रति अपना समर्पण दिखाकर सफलता की सीढ़ियां चढ़ीं। जो लोग जीवन की छोटी-छोटी त्रासदियों या हादसों से हारकर आत्महत्या कर लेते हैं या हमेशा के लिए विषाद में डूब जाते हैं- उनके लिए ज्योतिस्तम्भ है द्रौपदी मुर्मू। कैसे उन्होंने दो-तीन वर्ष के अंतराल में अपने दो बेटों और पति को खो दिया, लेकिन फिर भी योग, आध्यात्म और सद्विचारों के सहारे पर आपने अपनी सफलताओं और उपलब्धियों का रास्ता तय करना जारी रखा।
द्रौपदी मुर्मू की जीत कई मायनों में हम 140 करोड़ लोगों के लिए अविस्मरणीय और अद्भुत घटना है। यह दिवस भारत के इतिहास में सुनहरे अक्षरों से लिखा जाएगा। ऐसा नहीं है कि द्रौपदी मुर्मू की तरह देश के अन्य लाखों लोगों ने ऐसी ही या इससे भी अधिक त्रासद स्थितियों को न झेला हो- लेकिन उन्होंने द्रौपदी जी की तरह संकल्प शक्ति, धैर्य और जिजीविषा के अंशों को नहीं त्यागा। द्रौपदी मुर्मू के जीवन के बारे में आप जितना ज्यादा जानेंगे- आपके भीतर उतना ही अधिक आत्मविश्वास जगेगा। यदि आप पूरी संवेदनशीलता के साथ द्रौपदी जी के संघर्षों की गाथा को पढ़ेंगे, देखेंगे, सुनेंगे तो आप निश्चित रूप से पहले से ज्यादा बेहतरीन, पहले से ज्यादा आत्मविश्वासी और पहले से ज्यादा बेहतर इंसान बनेंगे।
हमारे देश में बीसियों सालों से एक गलत धारणा बनी हुई है कि यदि आपको किसी भी क्षेत्र में सफल होना है तो आपको या तो किसी सिफारिश की जरूरत है या घूस देनी पड़ती है या गलत तरीके अपनाने पड़ते हैं। द्रौपदी जी ने इस धारणा को गलत साबित किया।हम जिस इलाके में रहते हैं उसमें रहते हुए कल्पना भी नहीं कर सकते कि द्रौपदी जी को बचपन में कैसे–कैसे अभाव, कठिनाइयां झेलनी पड़ी होगी। आज की नई पीढ़ी कल्पना भी नहीं कर सकती कि पढ़ाई के लिए देश के दसियों लाख बच्चों को क्या-क्या करना पड़ता है। कोई नदी-नाले पार करके जाता है तो कोई जीवन को जोख़िम में डालकर क्षतिग्रस्त पुलों को पार करके जाता है। द्रौपदी जी ने अपने गांव में जब पांचवीं कक्षा उत्तीर्ण कर ली तो आगे की पढ़ाई के लिए उनके गांव में स्कूल नहीं था। अतः पास के शहर में जाना पड़ा। एक तो आदिवासी समुदाय से, दूसरे गरीब और तीसरा लड़की- आप कल्पना कीजिए कि उन्होंने कैसे-कैसे संघर्षों का सामना ही नहीं किया, बल्कि उन पर विजय भी पाई। वे पार्षद, विधायक, मंत्री और राज्यपाल जैसे सभी पद संभाल चुकी हैं और आज तक उनके राजनीतिक सफर पर कोई लेशमात्र भी दाग नहीं बता सकता। देश को वास्तव में ऐसे तपस्वियों के नेतृत्व की जरूरत है, जो हमारी नई पीढ़ी के लिए आदर्श बनें। नई पीढ़ी आधुनिकता या व्यावहारिकता के नाम पर अकसर गलत राह पर चल पड़ती है।
भारत के लोगों को एक आदिवासी राष्ट्रपति का स्वागत करना चाहिए क्योंकि आदिवासी यहां हम में से किसी से भी पहले मौजूद थे, द्रविडियनों से भी पहले। रिटेन रिकॉर्ड की कमी के चलते संथाल समुदाय की ओरिजिन की सही तारीख तो नहीं पता है, लेकिन माना जाता है कि नॉर्थ कंबोडिया के चंपा साम्राज्य से इनका ओरिजिन हुआ है। भाषाविद् पॉल सिडवेल के मुताबिक, संथाल 4000 से 3500 साल पहले भारत में ओडिशा के तट पर पहुंचे थे। 18वीं शताब्दी के अंत तक यह एक घुमंतू समूह था, जो धीरे-धीरे बिहार, ओडिशा और झारखंड के छोटा नागपुर पठार में बस गया था।
संथाल जनजाति के लोग संथाली भाषा बोलते हैं। इस भाषा को संथाल विद्वान पंडित रजुनाथ नाथ मुर्मू ने ओल चिकी नामक लिपि में लिखा है। ओल चिकी लिपि में संथाली को संविधान की 8वीं अनुसूची में शामिल किया गया है। संथाली के अलावा वे बंगाली, उड़िया और हिंदी भी बोलते हैं। आमौतर पर नार्थ ईस्ट के अलावा अन्य राज्यों में रहने वाले जनजातीय समुदायों की लिटरेसी रेट कम होती है, लेकिन संथालों में यह सबसे ज्यादा है। इसका कारण है 1960 के दशक से ही स्कूली शिक्षा के प्रति जागरूकता। यही कारण है कि ओडिशा, पश्चिम बंगाल और झारखंड की दूसरी जनजातियों की अपेक्षा संथाल की लिटरेसी रेट सबसे ज्यादा है। 55.5% संथाली लोग पढ़े लिखे हैं। इसका असर यह हुआ है कि समुदाय के कई लोग क्रीमी लेयर की सीमा से भी ऊपर उठ चुके हैं।
माननीया जब झारखंड की राज्यपाल के पद को सुशोभित कर रही थी तब भी उन्होंने आदिवासियों के हित में राज्य सरकार के कार्य पर पैनी नजर रखी थी। पूरे देश में आदिवासी आबादी अपने विकास के लिये मोदी सरकार की ओर निगाहें कर रखी है। ऐसे में सर्वोच्च पद पर अगर समाज की महिला जिनके अनुभव का लाभ ओड़िसा और झारखंड को मिल चुका है अब देश को मिलें तो पूरे आदिवासी समुदाय में एक सकरात्मक संदेश जाता है। सामाजिक अभिशाप कहें या विपदा कि जिस दिल्ली में हमारी आदिवासी बेटियों को पलायन के बाद विभिन्न कल कारखानों में कठिनाई भरी जिंदगी जीते हुए कार्य करने के लिये जाना होता है उसी दिल्ली में देश के सर्वोच्च पद अपने समाज की बेटी को पाकर निश्चित तौर पर उन्हें एक मानसिक, सामाजिक गर्व का एहसास होगा ही। कोई भी समाज अपने आप पर गर्व करके ही राष्ट्र के विकास का हिस्सा बनता है।
वैसे तो आदिवासी पूरी दुनिया में हैं लेकिन देश में भारत में आदिवासियों को प्रायः ‘जनजातीय लोग’ के रूप में जाना जाता है। आदिवासी मुख्य रूप से भारतीय राज्यों उड़ीसा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान आदि में बहुसंख्यक व गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल में भी है जबकि भारतीय पूर्वोत्तर राज्यों में यह बहुसंख्यक हैं, जैसे मिजोरम। भारत सरकार ने इन्हें भारत के संविधान की पांचवी अनुसूची में अनुसूचित जनजातियों के रूप में मान्यता दी है।
जब तक आदिवासी समाज और संस्कृति को गणतंत्र दिवस तथा अन्य आयोजनों में उन्हें एक दिखावटी वस्तु समझने की मानसिकता से ऊपर नहीं उठेंगे, उनका शोषण नहीं रुकेगा। वास्तविकता यह है कि यह समाज अपने भरण पोषण की जरूरतें पूरा करने और आत्मनिर्भर होने में शहर वालों से कहीं अधिक सक्षम है। उन्हें दिखावा करना नहीं आता, छल कपट से दूर रहते हैं, मानव धर्म का निर्वाह करने और वन्य जीवों के साथ तालमेल बिठा कर उनका संरक्षण और संवर्धन करने में उनका कोई मुकाबला नहीं कर सकता। यही नहीं वे अपने पारंपरिक अस्त्र-शस्त्रों से शत्रुओं का सामना करने में समर्थ हैं। उनकी मर्जी के बिना उनके इलाकों में प्रवेश कर पाना नामुमकिन है।
आदिवासीय समुदाय आजादी की लड़ाई से लेकर आज तक बिरसा मुंडा सहित दर्जनों वीर के साथ हर सामाजिक आंदोलन में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेता रहा है। देश का हर आदिवासी परिवार आज अपने समाज को सम्मानित महसूस करते हुए खुशियां मना रहा है। साथ ही वैश्विक मंच पर भी यह संदेश गया है कि देश में आदिवासी समुदाय का महत्व वर्तमान समय में कितना अधिक है।
पार्षद से लेकर विधायक, मंत्री और राज्यपाल तक रहीं लेकिन उनके मूल गांव में बिजली नहीं पहुंच पाई, जिसके लिए उन्होने प्रयासों की कोई कमी नहीं छोड़ी, दरअसल बात घूम फिर के वही आ जाती है कि इस समुदाय पर किसी ने ध्यान ही नहीं दिया। राष्ट्रपति बनने के बाद इस समुदाय को उनसे बहुत उम्मीदें हैं। कितना कर पाएंगे ये तो वक्त ही बताएंगा, लेकिन उनकी जीत पर समूचा आदीवासी समाज गदगद है, खुशी से झूम रहा है। साथ ही अभी से खुद को विकास को मुख्यधारा से जुड़ा देख रहा है। द्रौपदी मुर्मू उनकी आखिरी उम्मीद हैं, अगर वह भी कुछ नहीं कर सकी, तो यहीं से उनकी आखिरी ख्वाहिशें दम तोड़ देंगी। उम्मीद हैं ऐसा ना हो, नई महामहिम अपने समुदाय के लिए कुछ करें, उनके सुर्दर्घ सामाजिक, राजनीतिक, सार्वजनिक जीवन के अनुभव का लाभ लेने की प्रतीक्षा में हैं उनका अपना मूल समुदाय।
उड़ीसा के आदिवासी समाज से संबंध रखने वाली द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति बनने पर सारा देश खासकर महिलायें और पूरा आदिवासी और दलित वंचित समाज प्रसन्न हुआ है। वो देश की 135 करोड़ जनता को अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से और भी गौरवान्वित कर सकती हैं उनसे ऐसी ही अपेक्षा देश करता है ।