अफगानिस्तान से अमेरिका की विदाई की आखिरी तारीख, 31 अगस्त 2021 और 9/11 की बीसवीं बरसी के बीच हम आपसे मुखातिब हैं. अमेरिकी सैनिकों ने तय तिथि से पहले अफ़गान जमीन तो छोड़ दी लेकिन साथ ही अरबों मूल्य के हथियार भी वहीं छोड़ दिए हैं. इनमें से कुछ निष्क्रिय अवश्य कर दिए गए हैं लेकिन फिर भी इनकी संख्या मानवता को थर्राने के लिए काफ़ी है. इन हथियारों एवं अन्य खर्च हुई क़ीमत का हिसाब लगाना आम इंसानों के बस की बात भले न हो पर इनसे हुए विध्वंस के साक्षी हम सब हैं. एयरपोर्ट पर हुए धमाके सबने सुने हैं. विचारणीय है कि क्या बदले की आग में धधकते अमेरिका ने पाने से कहीं अधिक खो दिया है? क्या हम यह मान लें कि अमेरिका ने वाकई बदला ले लिया? क्या वर्षों से चले आ रहे इस मसले के परिणाम सुखद दिखाई दे रहे हैं?
जो भी हो, लेकिन अगस्त 2021 का महीना अफगानिस्तान में इंसानी क्रूरता की महापदा के रूप में याद किया जाएगा. आगे क्या होने वाला है, उसकी कल्पना करते ही दिल दहल उठता है. उस पर विडंबना यह कि तालिबानियों के अन्याय के विरुद्ध चीखने वालों के सुर एन मौके पर बदल गए हैं. महाशक्तियाँ, तालिबान से दुश्मनी लेने के लायक हैं ही नहीं! तभी तो अपने घर में तमाम बुरी-भली बातें कहने के बाद भी सरकार के रूप में वे संभल कर बोल रहे हैं. इस समय शांतिप्रिय बने रहना उनकी विवशता है. वे विवश हैं इस निर्मम और क्रूर अध्याय को नजरअंदाज़ करने के लिए. तालिबान के आगे दुनिया की चुप्पी हमें ये समझा रही है कि ताकत और स्वार्थ के आगे भावनाओं और संवेदनाओं की बातें करना कितना निरर्थक है. देखिए, विज्ञान और तकनीक पर उछलती दुनिया ने अपना क्या हाल कर डाला है!
मूर्खों के हाथ में जब सत्ता आती है तो उनका व्यवहार कैसा होता है, ये जानना हो तो काबुल के मनोरंजन उद्यान एवं राष्ट्रपति भवन में घुसे तालिबानियों के चेहरे और हरक़तें याद कीजिए. अफ़गानिस्तान पर तालिबान का कब्ज़ा मात्र एक देश की ऐतिहासिक घटना नहीं है, इसने दुनिया का कच्चा चिट्ठा भी खोलकर रख दिया है. अत्याचार के विरुद्ध डटकर खड़े होने और मानवता का साथ देने वाली तमाम बातों, उपदेशों की धज्जियाँ उधेड़कर रख दी हैं.
हमें तो टैगोर का वो काबुलीवाला याद है जो बड़ा रहमदिल था. बच्चों को प्यार करता था. जिसने मिनी की झोली काजू, बादाम, किशमिश से भर दी थी. उसके हृदय में संवेदना थी, प्रेम था. बच्चों के लिए दुआएं थीं.
आज तालिबानी लाशों के ऊपर से चलते हुए काबुल पहुँचते हैं. यहाँ आने के बाद अपने सुधरने का ढोंग रचाए फिर रहे हैं कि ‘देखो, हम स्त्रियों को ये करने देंगे, वो करने देंगे’. लेकिन बीते दिनों में वहाँ स्त्रियों की क्या स्थिति है, ये किसी सी छिपी नहीं! महाशय, आप ये भी तो बताइए कि उन स्त्रियों से क्या छीन लिया गया है. क्या शेष है अब? कोई अपना जीवन कैसे जिए, ये तय करने वाले आप होते कौन हैं?
एक खूबसूरत देश की चहकती तस्वीर पर दुख और आतंक की काली स्याही कैसे पोत दी जाती है, इस निराशा और अपार भय के साये तले, अफ़गानिस्तान के निवासी जी रहे हैं. जीना तो खैर क्या ही कहें! भूखे, बेघर, रोते-बिलखते मर ही रहे हैं.निर्दोष, निरपराध बच्चे, पुरुष-स्त्रियाँ सब अमानुषिक व्यवहार के शिकार हैं. एयरपोर्ट की स्थिति हमने देखी ही है! हवाई अड्डा युद्ध भूमि की जगह ले चुका था. वहाँ चेक़ पोस्ट बन गए थे. सेनाएं तय कर रहीं थीं कि कौन जाएगा!
भगदड़ और जान बचाने की आपधापी इस हद तक भयावह रही कि लोग प्लेन को बस की तरह पकड़ रहे थे. उसके ऊपर जहाँ-तहाँ लटक जीवन छूटता रहा है. हर तरफ़ गोलियों की आवाज, चीख पुकार के बीच एक दीवार पर नज़र जाती है. एक बच्चा हवा में झूल रहा है. उसके लिए इस दीवार को फाँदना जीवन या मृत्यु के द्वार का माध्यम प्रतीत नज़र आता है. ये बच्चा और इसके जैसे तमाम बच्चों का भविष्य क्या होगा! स्त्रियों के दर्द और गुलामी की नई इबारत कितने खौफ़नाक तरीके से लिखी जाएगी! पुरुषों के एक इन्कार से कितनी क्रूरता से उनका सिर क़लम कर दिया जाएगा! हम इन्हें गिन नहीं पाएंगे. बस, शर्मिंदगी से सिर झुका रहेगा.
इनकी दर्दनाक कहानियाँ इतिहास में लिख दी जाएंगीं. साथ ही यह भी लिखा जाएगा कि एक शासक के भाग जाने से देश की जमीन कैसे खून से रंग जाती है. देशवासियों की चीखें कैसे आसमां को स्तब्ध कर देती हैं! ये निर्मम आतंकियों के काबुल पर कब्ज़े का किस्सा तो है ही पर एक राष्ट्रपति की अपने देशवासियों को उनके हाल पर छोड़ भाग जाने की शर्मनाक घटना भी है. ये इतिहास को शर्मसार कर देने वाले धोखे का वह स्याह किस्सा है. जिसे बची हुई प्रजा आने वाली नस्लों को सुनाएगी.
यह घटना, इस पृथ्वी के हर निवासी को अपना नेता चुनने से पहले हजार बार सोचने पर विवश कर देगी. हम सब इस भीषण दुखद मंज़र के साक्षी बन रहे हैं कि शासक के भाग जाने से देश की कैसी दुर्गति होती है. इसने जनता और शासक के बीच अविश्वास की गहरी खाई खोद दी है. आज अफ़गानिस्तान को उसके आकाओं सहित सारी दुनिया ने उसके हाल पर छोड़ दिया है.
लेकिन जिसका कोई नहीं होता, अब तो खुदा भी उसका साथ देता नहीं दिखता! दुनिया से क्या और कैसी उम्मीदें! वह तो सदा ही ऐसी रही है. स्वार्थी, लालची और कभी मजबूर भी.
पैसे ने सदा ही मानवता को हराया है. घर, परिवार, समाज कहीं भी देख लीजिए, पैसा ऐसे ही मुँह बंद कर देता है. जब अपनी पर आती है, तो दिन-रात सुविचार बाँटने वाले लोग ऐसे ही मौन धारण कर लेते हैं. तालिबानियों के अत्याचारी व्यवहार पर अधिकांश देशों की चुप्पी, इसी का ताजातरीन उदाहरण है. यक़ीनन यह आतंकवाद का समर्थन भी नहीं, लेकिन पूंजीवाद की विवशता है. दुनिया का कोई भी देश हो, वह स्वयं की आर्थिक हानि नहीं होने देना चाहता!
हम भी व्यक्तिगत तौर पर अन्याय और अधर्म के विरोध में जो जी चाहे बोल लें लेकिन अंततः मानना वही होगा जो देश हित में है. सरकार ही अन्य देशों से रिश्ते तय करती है और उस स्थिति में जो भी निर्णय हो, हमें स्वीकारना होगा. यह भी नहीं भूलना चाहिए कि हमारे कई नागरिक अभी भी काबुल में हैं और उनकी सुरक्षा सर्वोपरि है. हमारे हाथ में बस इतना है कि हम अपने बच्चों को नफ़रत न सीखने दें. उन्हें प्रेम और मानवता का पाठ इस उम्मीद से पढ़ाते रहें कि आने वाली पीढ़ियाँ शांतिप्रिय, न्यायप्रिय और हथियारों से दूर रहने वाली बनें. हम तमाम अफ़गानियों के लिए प्रार्थना और उनकी कुशलता की कामना करें.
ओ, प्रिय काबुलीवाले! मिनी और अफ़गानिस्तान के सारे बच्चे तुम्हें बहुत याद कर रहे हैं.तुम्हारे देश के बच्चों की आँखों की चमक खो चुकी है. उनके चेहरे का नूर चला गया है. इनकी झोली में सूखे मेवे भरने कोई नहीं आया!. आज इस दुनिया को, मिनी को, हम सबको एक और काबुलीवाले रहमत की दरक़ार है!