संदर्भ: उषा प्रियंवदा की ‘वापसी’ कहानी
आधुनिक भाव-बोध के परिप्रेक्ष्य में जीवन को समझना न केवल चुनौतीपूर्ण है बल्कि इसे किसी आदर्श या मूल्य की कसौटी पर कसना उतना ही असंभव है। निरंतर परिवर्तित होते मानदंडों और नज़रिए के कारण किसी एक स्वरूप में किसी एक चीज़ को देखना प्राय: अपूर्ण विश्लेषण का परिचायक है। व्यक्ति और समाज के अंतर्संबंध और इनके ताने-बाने में असंख्य ख्वाहिशें है तो उससे भी ज्यादा उम्मीदें। आधुनिक समय की ख़ास बात यह है, अब व्यक्ति न केवल अपने मनोरागों, सुख-दुःख या पसंद-नापसंद के लिए बौद्धिक स्तर पर पहले से अधिक संवेदनशील और संचेतन हुआ बल्कि मनुष्य होने के नाते चीज़ों में परिपक्वता के साथ-साथ उपयुक्त विशेषताओं के प्रति उन्मुख हुआ। वस्तुनिष्ठता की तुलना में विषयनिष्ठता को अधिक महत्त्व दिया जाने लगा। विकल्पों की अधिकता और चयन की स्वतंत्रता ने व्यक्ति के अपेक्षाओं को और भी उंचा कर दिया जिसे कभी-कभी प्राप्त करना कठिन हो गया। आधुनिकता के भाव-बोध की इस विशेष दृष्टि ने व्यक्ति की आत्मीयता और सहज-भाव युक्त मानवीय सरोकारों को धीरे-धीरे समाप्त करना शुरू कर दिया। इसी भाव-बोध से युक्त अस्तित्त्ववादी दर्शन का उद्भव 18वीं शताब्दी में होता है। ‘वापसी’ कहानी को यदि इस दर्शन के धरातल पर समझा जाए तो इसके कथानक की परतें बड़े साफ़ तौर पर जीवन की अंतर्धारा की वैचारिकी और सैद्धांतिकी को परखा जा सकता है।
उषा जी की कहानी नई कहानी के बाद हिंदी कहानी की यथार्थवादी विषय-वस्तु का प्रतिनिधित्व करती हैं। ‘वापसी’ कहानी में जो द्वंद्व उपस्थित हुआ है, वह आधुनिक भाव-बोध के आस्था-अनास्था युक्त नज़रिए का प्रतिफलन है। आधुनिकता के इस दौर में पीढ़ियों के बीच हो रहे बदलाव व टकराव तथा संवेदनहीन स्वतंत्र-संस्कार में टकराव का यथार्थ चित्र ‘वापसी’ के द्वारा दिखाई देता है।
परिवार एक स्थाई और सार्वभौमिक संस्था है। समाज में परिवार की भूमिका प्रमुख होती है। परिवार सदस्यों का समाजीकरण करता है साथ ही सामाजिक नियंत्रण भी रखता है। व्यक्ति के विकास में परिवार की अहम भूमिका है। परिवार मनुष्य को मनोवैज्ञानिक सुरक्षा प्रदान करता है जिसमें प्रेम-ममता, सहानुभूति, धैर्य, आदर-सम्मान इत्यादि सम्मिलित होते हैं तथा ये तत्त्व किसी भी व्यक्ति को एक स्वस्थ व्यक्तित्व के निर्माण में सहायक होते हैं। एक स्वस्थ परिवार ही समाज को भी एक सुदृढ़ दिशा दे पाता है। परिवार के सभी सदस्य एक दूसरे को भावनात्मक सहारा प्रदान करतें हैं। वे सभी परस्पर शक्ति-ऊर्जा का संचार करते हैं। वास्तविकता यह है कि जो हम परिवार से पाते हैं वही हम समाज को भी प्रदान करते हैं। प्लेटो के अनुसार भी परिवार मनुष्य की प्रथम पाठशाला है। बिना परिवार के समाज की कल्पना नहीं की जा सकती है। ऑगस्ट काम्टे भी मानते हैं कि परिवार समाज की आधारभूत इकाई है।
आज के समय में परिवार की परिकल्पना काफी भिन्न हो गई है। आज यह संस्था आदर्श पर नहीं बल्कि बौद्धिकता तथा स्वार्थ पर अधिक टिकी है। संतान की आवश्यकता से लेकर संतानों की माँ-पिता से अपेक्षा-आकांक्षा तक व्यवहारिक रूप से भौतिकवादी मानसिकता से प्रभावित है। अब संतानों की उम्मीदें बहुत हद तक अर्थ पर टिक गयी हैं। बचपन से ही उन्हें महंगे खिलौनों से लेकर बाकी सुविधाएँ मुहैया करवाई जातीं हैं। इसीलिए उनकी मानसिकता भी केवल इसी दिशा में निर्मित होती है जिसके अंतर्गत उनके लिए चाहे अभिभावक हो या शिक्षक, वे सभी को मात्र प्रोवाइडर के रूप में देखते और आकलन करते हैं। यही नहीं, उनके जीवन के बाकी संबंधों को भी वे इसी नज़र से देखते हैं। इसलिए‘वापसी’ कहानी में अब तक की कई समीक्षाओं में जहाँ बार-बार इस बात को रखा जाता रहा है कि आधुनिक समय में नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी के प्रति संवेदनहीन है तब तस्वीर के दूसरे पहलू पर भी नज़र डालना अत्यंत आवश्यक हो जाता है।
आज के समय में विभिन्न कारणों के कारण, कभी समय की कमी के कारण या तनावयुक्त जीवन शैली के कारण या एकल परिवार के प्रचलन के कारण माँ-बाप बच्चों को अपेक्षित स्नेह नहीं दे पाते। वे शॉर्ट-कट अपनाते हुए धन के माध्यम से अपने बच्चों के लिए प्लास्टिक खुशियाँ उपलब्ध करवाते हैं।
आज के दौर में ज्यादातर मां-बाप दोनों कामकाजी होते हैं। वे अर्थ कमाने हेतु परिवार, बच्चों पर ध्यान नहीं दे पाते जिसके कारण बच्चे वस्तुओं में अपनी खुशी तलाशते हैं। यह आज का दौर है कुछ यदि अटपटा सा कहे तो गलत होगा। अपनी धुरी पर सब सही खड़े हैं। परंतु इसका निष्कर्ष प्रत्येक व्यक्ति का अकेलापन, संत्रास, ऊब, अविश्वसनीयता के रूप में उपस्थित होता है जो किसी भी व्यक्ति या समाज के लिए हानिकारक है। पैसा एक जरूरी संसाधन है परंतु उसका पागलपन एक कैंसर के भांति मस्तिष्क पर हावी होता जाता है। जहां इंसान की आवश्यकता है वहां पर पैसा नहीं खड़ा हो सकता एक बहुत बड़ा सत्य है। मोहन राकेश के नाटक ‘आधे-अधूरे’ में भी यही समस्या है। काशीनाथ सिंह की कहानी ‘अपना रास्ता लो बाबा’ में भी इसी अनैतिकता को रेखांकित किया गया है।
उषा प्रियंवदा ने आधुनिक जीवन की इसी ऊब, छटपटाहट, संत्रास, डिप्रेशन को पहचाना है उसे अनुभव किया है। यही कारण है कि उनकी रचनाओं में एक ओर आधुनिकता का प्रबल स्वर मिलता है तो दूसरी ओर उसमें चित्रित प्रसंगों तथा संवेदनाओं के साथ हर वर्ग का पाठक तादात्म्य का अनुभव करता है। उषा जी स्वयं भी एक संयुक्त परिवार में रही हैं। उनकी अनुभूति ही उनकी रचनाओं में झलकती है।
इस कहानी की प्रेरणा उन्हें इलाहाबाद में मिली। उनके एक निकट के संबंधी, पत्नी और बच्चों से दूर पूर्वोत्तर प्रांत में चीनी मिल में इंजीनियर थे। पत्नी और बच्चे दूसरे शहर में रहते थे। उनका जीवन अलग था। उनके लिए पिता केवल धन और धनोपार्जन के साधन थे। अकेले रहते-रहते संबंध एकदम शुष्क और लड़ाके से हो गए थे; पर उषा जी की मां पर उनका सहज स्नेह और आदर था और प्रियंवदा देवी भी उनके एकाकी जीवन को समझती और सहानुभूति देती। अक्सर बच्चों को लेकर अलग शहर में रहने वाली पत्नी को दोष देती क्योंकि यह बात सही थी कि जहां वह रहते थे उसके आसपास स्कूल भी थे और बाद में तीन कॉलेज भी। वह अपने परिवार की रूचि के अनुसार खरीदारी करते और चीजें घर ले आकर उषा जी के परिवार वालों को दिखाते और परिवार की पसंद का अनुमोदन चाहते। फिर वह जाकर महीने डेढ़ महीने परिवार के साथ रहते और पुनः नौकरी पर चले आते। फिर एक दिन खबर आई कि उनका देहांत हो गया यह सुनकर उषा जी के घर-भर में उदासी छा गई और प्रियंवदा देवी भी काफी दिनों तक रोती रहीं क्योंकि उनके यह निकट संबंधित थे।)
उषा प्रियंवदा की ‘वापसी’ कहानी भी इन्हीं बिंदुओं के आधार पर समझी जा सकती है। यह कहानी वस्तु और शिल्प में नयेपन को दर्शाता है । मानवीय संबंधों की आत्मीयता और आज के जीवन की बदलती हुई परिस्थितियों में से उपजी वास्तविकता का रचनात्मक साक्षात्कार इस कहानी के द्वारा बखूबी हो जाता है। आदर्श पर आधारित रूमानियत का सामना जब अप्रिय यथार्थ से होता होता है तब किस प्रकार के द्वंद्व और अलगाव की अनुभूति होती है, यह कहानी इसे सजीव करती है। आधुनिक समय में मानवीय सम्बन्ध के परिवर्तित आयाम और प्रेम के बदलते स्वरूप की रूपरेखा इसमें प्रस्तुत हुई है।
गजाधर बाबू का व्यक्तित्व आधुनिक परिवेश की ज़मी पर निर्मित होता है। आज़ादी के बाद मध्य वर्ग बड़ी तेज़ी से उभरा और पनपा है। जिसका अधिकाँश हिस्सा नौकरीपेशा है। सरकारी नौकरी की तलाश से लेकर नौकरी करने तक वह संघर्षशील रहता है। 1960 में लिखी गयी इस पुरुषप्रधान कहानी में गजाधर बाबू के रूप में एक ऐसे व्यक्ति की दास्ताँ है जो रेलवे की 35 साल की नौकरी के बाद रिटायर होकर अपने घर-परिवार के स्नेह की आशा और उमंग लिए हुए अपने घर वापस जाने से प्रसन्न होता है। ट्रेन के पहियों की खट-खट उनके लिए रूमानी संगीत था जो उन्हें घर जाने के सपनो को और भी सुखद बना देता था। परन्तु घर पहुँचने पर उन्हें एकदम ही विपरीत स्थितियों का सामना करना पड़ता है। घर में किसी भी सदस्य के पास उनके लिए वक्त नहीं होता। यह प्रसंग आगे आदर्शवादी रूमानियत से यथार्थवाद की ओर अग्रसर होने का कठिन द्वंद्व है। गजाधर बाबू का यह स्वप्न टूटता है तार-तार होता है। परिवार में उनका अस्तित्व न के बराबर है। परिवार के इस विघटन के विषय में पुष्पपाल सिंह लिखते हैं- “आज मानवीय रिश्ते उसी रूप में मान्य नहीं है जैसे पहले थे। संयुक्त परिवार का विघटन और रोजी-रोटी की तलाश में परिवार के सदस्यों का बाहर जाकर बस जाना आदि के परिणामस्वरूप परिवार के सदस्य अपनी छोटी-छोटी इकाइयों तक ही अपने को सीमित रखने लगे। मानवीय संवेदना पर अर्थ हावी हो कर बहुत सारे आत्मिक संबंधों को बेमानी बना रहा है। मां-बाप, भाई-बहन, पति-पत्नी, भाई-भाई के बीच अनेक दूरियां आ गई हैं जिनके कारण संबंध दरकने लगे”।
गजाधर बाबू की वापसी आधुनिक परिवार में टूटते पारिवारिक संबंधों के साथ परिवार के बूढ़े व्यक्ति की लाचारी की झांकी प्रस्तुत करती है। “नरेंद्र ने बड़ी तत्परता से बिस्तर बांधा और रिक्शा बुला लिया। गजाधर बाबू का टिन का बक्स और पतला सा बिस्तर उस पर रख दिया गया। एक दृष्टि उन्होंने परिवार की ओर डाली और दूसरी ओर देखने लगे। रिक्शा चल पड़ा”। जाते-जाते वह सोच रहे थे कि क्या यही उनका परिवार है जिसके लिए उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी होम कर दी अपने ही परिवार में वह अजनबी हो गए।
इस तरह से यह कहानी पुरुष के अकेलेपन और उसके प्रति दर्शाए अजनबीपन के भाव को चित्रित करती है। क्षमता समाप्त होने पर जैसे मशीन को बेकार समझा जाता है। गजाधर बाबू को भी मशीन समझा गया परंतु मशीन में भावना नहीं होती, संवेदना नहीं होती। गजाधर बाबू मशीन नहीं हैं। वे आत्मग्लानि से, दुःख से भर जाते हैं और पुनः काम पर चले जाते हैं अपनी झूठी-टूटी आशाओं को बिस्तर में बांधकर। इस बार की वापसी गजाधर बाबू के लिए दुखद स्मृतियों का भण्डार थी। पीढ़ी –संघर्ष एवं नवीन पीढ़ी की हृदयहीनता का चित्रण लेखिका ने सफलतापूर्वक किया है। गजाधर बाबू नयी पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी के संघर्ष के संदर्भ में विवशतापूर्ण अकेलापन चुनने के लिए बाध्य हैं। पुराने संस्कारों के कारण वह नये के साथ सामंजस्य नहीं कर पाए, यदि ये कहें तो सार्थक न होगा क्यूंकि नए के पास वह सहृदय ही नहीं है जो उन्हें सामंजस्य का अवसर भी प्रदान करता। घर से नौकरी पर पुनः लौटने की घटना ही उनकी ‘कैसी’ वापसी थी? इस पर विचार होना चाहिए।
दूसरी और उनकी पत्नी के अकेलेपन को उषा जी ने उसके विकल्प के रूप में घर गृहस्थी में खुद को पूरी तरह समर्पित कर देने के रूप में प्रस्तुत किया है। सिद्धेश्वरी देवी अपने उस अकेलेपन को भी ज़ाहिर नहीं होने देना चाहती। ऐसा लगता है कि ऐसा करने से कही उनका अस्तित्व बिखर ही न जाए। अपने निजी स्पेस की जैसे उन्हें बिलकुल आवश्यकता ही नहीं रही। शायद वे उस माहौल में (जो लगभग सभी मध्यमवर्गीय परिवारों की स्त्रियों की मानसिकता बन जाती है) सिर्फ एक मशीन की भांति अपने हिस्से का काम किये जा रही हैं। एक और कारण यह भी हो सकता है कि अब उनके पति सेवानिवृत हो चुके हैं और इसलिए अब वे दोनों अपने बच्चों पर आश्रित हैं और अब उन्हें अपने जीवनयापन के लिए उनकी ज़रूरत है। इन स्थितियों में निर्मित व्यक्ति की मानसिकता अब यह दर्शाती है जैसे अब उनके अस्तित्व को बनाए रखने की चिंता पूरी तरह से संवेदनाओं को नष्ट किये जा रही हैं। इस कहानी का शीर्षक अपने आप में इस बात का संकेत है कि गजाधर बाबू जिन उन्मुक्त और स्नेहिल भाव से अपनी नौकरी के लिए विदा हुए थे, उनका अभाव उन्हें हमेशा खलता रहा। जैसे उनके जीवन के वे पल वहीं ठहर गए। जैसे वे उसके आगे बढे ही नहीं। न उम्र में, न इच्छाओं में और न ही भावनाओं में। जिस परिपक्वता को व्यक्ति जीवन के अनुभव के साथ सामान्य रूप में ग्रहण कर लेता है वे उससे अनभिज्ञ ही रहे। दूसरी और उनकी पत्नी भी अपने दायित्वों के बीच अपने को भुला कर एकाकी जीवन बिताने की अभ्यस्त हो गयी।
आधुनिक परिस्थितियों में सबसे बड़ी चिंता रोज़ी-रोटी और अस्तित्व कायम रखने की होती है। जीवन की मूलभूत सुविधायें उपलब्ध करा पाना दिनों दिन बहुत विषम होता जा रहा है। इसके लिए कई समझौते और बड़े कठिन संघर्ष करने पड़ते हैं। धर्म, राजनीति और व्यवस्था के प्रपंच में यह और दुरूह होता चला जा रहा है। इसका सीधा असर संवेदनाओं और संबंधों पर पड़ता है। जब जीवन से सुविधाएं कम हो जाएँ तो व्यक्ति किसी भी सकारात्मक भाव को ज्यादा देर तक अपने में नहीं संजो सकता। न ही उसके पास बौद्धिक और भावनात्मक स्तर को ऊंचा उठाने के अवसर आसानी से मिलतें हैं। परन्तु उसकी अपने अस्तित्व को बनाये रखने की अदम्य भावना बनी रहती है जिसके चलते वह जीवन के यथार्थ का पूरी तरह से सामना नहीं कर पाता और कई बार उसे पूर्णत: समझ भी नहीं पाता। अस्तित्ववाद भी इसी धरातल पर उपजा हुआ दर्शन है सार्त्र ने अस्तित्ववाद को मानववाद माना। उनका मानना था कि मनुष्य स्वयं का निर्माता है। वह जैसा स्वयं को बनाता है उसके अतिरिक्त वह कुछ नहीं है। ‘अस्तित्ववाद और मानववाद’ में वह लिखते हैं- ‘‘सीधी बात यह है कि मनुष्य है। वह अपने बारे में जैसा सोचता है, वैसा नहीं होता। बल्कि वैसा होता है, जैसा वह संकल्प करता है, अपने होने के बाद ही वह अपने बारे में सोचता है- वैसे ही अपने अस्तित्व की ओर बढ़ने के बाद ही वह अपने बारे में संकल्प करता है। मनुष्य इसके अतिरिक्त कुछ भी नही है जैसा खुद को बनाता है कि वह स्वयं का निर्माण करता है। यही अस्तित्ववाद का पहला सिद्धांत है।’’ इस कहानी में भी सभी पात्र अपनी स्वतंत्रता को बनाए रखते हैं यहाँ तक कि गजाधर बाबू भी। यदि पीढ़ियों के विचारगत मतभेद से अलग होकर सोचा जाए तो उनमें भी अपनी विचारधारा के प्रति प्रबल आग्रह साफ़ झलकता है।
’वापसी’ एक रिटायर्ड रेलवे कर्मचारी की कहानी है। गजाधर बाबू पैंतीस वर्ष की नौकरी के पश्चात् अत्यन्त उत्साह के साथ घर लौटते है। उन्हें अपने परिवार से बहुत स्नेह था। स्त्री और बच्चों को उन्होंने बच्चों की पढ़ाई की सुविधा की दृष्टि से शहर छोङ दिया था तथा स्वयं रेलवे कर्वाटर में रहते थे। जिस समय रिटायर होते है, तो उन्हें एक परिचित संसार को छोड़ने का दुख होता है, किन्तु उन्हें अपने परिवार के साथ रह सकने की प्रसन्नता भी होती है, लेकिन अपने घर में आकर इसके विपरीत होता है। नौकरी करते वक़्त जिस अकेलेपन को वे हमेशा महसूस करते थे वह अहसास अपने घर पहुँच कर और भी गहरा हो जाता है। इस मार्मिक तत्व को विशेष रूप से समझने की ज़रूरत है। गजाधर बाबू जैसे व्यक्ति की इच्छाएं और आकांक्षाएं जिन ताने-बाएँ से बुनी हुई हैं वे नितांत कल्पित हैं क्योंकि वे अपनी परिस्थितियों के चलते यथार्थ से लगभग अपरिचित हैं और यहीं से जन्म होता है अकेलेपन और फिर अजनबीपन का भी।
वे अपने घर में अपनी व्यर्थता का अनुभव करते है जैसे किसी मेहमान के लिए अस्थाई चारपाई का प्रबंध कर दिया जाता है वैसे ही उनके लिए बैठक में एक पतली-सी चारपाई डाल दी गयी। वे अपनी पत्नी से भी बातचीत में स्नेह और समझदारी का अभाव पाते है और अनुभव करते हैं कि उनकी लड़की, पुत्र, पुत्रवधू को किसी भी बात में उनका हस्तक्षेप सहन नहीं है। उनकी उपस्थिति पर घर में ऐसी लगने लगी जैसे बैठक में उनकी चारपाई थी। उन्होंने अनुभव किया कि वह अपनी पत्नी और बच्चों के लिए धनोपार्जन का साधन मात्र थे।
अन्त में वह किसी दूसरी नौकरी पर चले जाते है तब भी पत्नी उनके साथ नहीं जाती और उनकी उपस्थिति की प्रतीक चारपाई कमरे से बाहर निकाल दी जाती है। यह सम्पूर्ण कथा बहुत प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत की गयी है। रोचकता आद्यन्त बनी रहती है। पीढ़ी का संघर्ष नयी पीढ़ी में हृदयहीनता एवं पुरानी पीढ़ी के प्रति उदासीनता और पुरानी पीढ़ी में नयी चीज़ों को समझने का अभाव के रूप में दिखाई देता है। आदर्शवादी रूमानियत का कठोर यथार्थ के धरातल पर चोट खाना इसी बात को दर्शाता है।
इस प्रकार उषा प्रियंवदा ने ’वापसी’ कहानी में विघटित होते हुए मानवीय मूल्यों को उकेरा है। संयुक्त परिवार का एक चित्र इन पंक्तियों में मिल जायेगा-’’अमर और उसकी बहू की शिकायतें बहुत थीं। उनका कहना था कि गजाधर बाबू हमेशा बैठक में ही पड़े रहते है। कोई आने जाने वाला हो तो बैठाने की जगह नहीं। अमर को अब भी वह छोटा सा समझते थे और मौके बेमौक टोक देते थे। बहू को काम करना पङता था और सास जब तक फूहड़पन पर ताने देती रहती थी। इन पक्तियों के अनुसार संयुक्त परिवार के बिखरने के कारण परिवार के सभी सदस्य होते हैं क्योंकि उनमें से कोई भी अपनी बात को कम नहीं मानता। बड़े लोग अपने अनुसार आदर्शवादी स्थिति चाहते हैं तो नयी पीढ़ी नए तौर-तरीकोंसे रहना चाहती है। आधुनिक समय की सबसे बड़ी समस्या यही है। जिसके कारण अलगाव और अजनबीपन जैसे भाव उत्पन्न होते हैं और अंतत: व्यक्ति इन सबसे कतरा कर अलग रहने का निश्चय कर लेता है जैसे गजाधर बाबू फिर से नौकरी करने का निर्णय करके करते हैं।
इस कहानी में पीढ़ियों का संघर्ष अनेक कारणों से होता है। लगभग पैंतीस वर्ष तक अपने परिवार से दूर रहते हुए न केवल गजाधर बाबू अपने बच्चों और अपनी पत्नी के साथ भावनात्मक और वास्तविक रूप में जुड़ पाए बल्कि उनका परिवार भी उन्हें नहीं समझ पाया। वे एक बंधे बंधाये पैटर्न पर अपने परिवार को चलाना चाहते थे जबकि उनके परिवार की ज़रूरते कुछ और थी जिन्हें समझना और स्वीकार करने के लिए शायद गजाधर बाबू भी सक्षम नहीं थे। दरअसलकहानी में केवल नई और पुरानी पीढ़ी का द्वंद्व नहीं बल्कि कुछ और भी है। उनकी पत्नी भी उन्हें उस रूप में स्वीकार नहीं कर पातीं। स्पष्ट है कि कहानी का उद्देश्य आधुनिक भाव बोध में निर्मित अस्तित्व की चिंता में रत व्यक्ति की उहा-पोह से परिचित करना है। उसकी निराशा, बेचैनी और पीड़ा को बताना है जो केवल नई पीढ़ी की उदासीनता से नहीं बल्कि स्वयं से भी उपजता है, परिस्थितियों से, संघर्षों से, समझौतों से उपजता है।इसी कारण गजाधर बाबू नयी पीढ़ी व पुरानी पीढ़ी के संघर्ष मेंविवशतापूर्ण अकेलापन चुनने के लिए बाध्य है। पुराने आदर्शवादी संस्कारों के कारण वह नये के साथ सामंजस्य नहीं कर पाये और नए के पास वह समझदारी और संवेदना ही नहीं है जो उन्हें सामंजस्य का अवसर भी प्रदान करता। अपने अस्तित्व की तलाश में आदर्शवादी रूमानियत और कठोर यथार्थ के द्वंद्व में डूबे हुए व्यक्ति की ‘वापसी’ फिर से अकेलेपन में ही होती है।