हमारे दैनिक जीवन में कई ऐसी घटनाएँ घटती हैं या ऐसे दृश्य दिख जाते हैं जो हमें जीवन की संपूर्णता और सार्थकता पर एक बार फिर से विचार करने पर मजबूर कर जाते हैं । भगवान ने हमें दो हाथ, दो पैर और कई इंद्रियाँ दी हैं जिनसे हम में जीने की ललक बनी रहे और हम अपने जीवन के लक्ष्य को सार्थक कर सकें। पर विधि के किसी और विधान अनुरूप यह कृपा-दृष्टि सब पर हर समय नहीं रह पाती। दुर्घटना या बीमारी-वश बहुत से लोग अपंग हो जाते हैं। किसी अति महत्वपूर्ण अंग का न रहना जीवन की सार्थकता पर ही प्रश्न चिन्ह लगा देता है, और ऐसी स्थिति में बहुत से लोग तो जीवन से ही पलायन कर जाते हैं। पर क्या कोई मिथ्या महत्वाकांक्षा या थोथा लक्ष्य भी जीवन की सार्थकता हो सकता है? ऐसा लक्ष्य जो मात्र बेमाने अहं को संतुष्ट करने के लिए मनुष्य से उसकी परिपूर्णता ही छीन ले, उसको वर्षों तक अपाहिज बना दे?
बात पुरानी है जब दिल्ली के गोल मार्केट के घर से सटे बस-स्टैंड से रोज़ गुजरना होता था। पास के सरकारी क्वाटर्स में कहीं यह सज्जन रहते थे जिन्होंने किसी रिकॉर्ड बुक में नाम हासिल करने के लिए बायें हाथ के नाखून बढ़ा रखे थे। लगता था कि उनका यह प्रयास बहुत सालों से चला आ रहा था।उस स्टैंड से वह आफिस के लिए चार्टर्ड बस लेते थे। उनके कुंडल-दार नाखून जिन पर वह सुरक्षा और मजबूती के लिए प्लास्टिक की काली टेप लगा कर रखते थे, लगभग जमीन को छूते थे। भारी नाखूनों को जमीन से ऊंचा रखने के लिए उन्हें उस हाथ को मोड़ कर रखना पड़ता था। स्वाभाविक है ऐसे में उनका बायां हाथ न होने से भी बदतर स्थिति में ही था। उठने-बैठने, सोने, कहीं आने-जाने, नहाने-धोने, कपड़े बदलने और दूसरे दैनिक क्रिया-क्लाप में उनके यह नाखून बहुत बड़ी बाधा रहे होंगे और उनके टूटने-चिटखने के हर वक़्त के डर ने भी उनके मानस पर बहुत बड़ा प्रभाव डाल रखा होगा। पर उस इंसान ने भगवान द्वारा दिये अंगों को अमूल्य जीवन की सार्थक्ता का माध्यम न बना, किसी बहुत मामूली और बेमाने रिकार्ड की प्राप्ति के लक्ष्य में झोंक दिया था।
आम तौर पर ऐसी गहरी सोच के विचार कठिन हैं और हम अधिकतर ऐसे लोगों की व्यक्तिगत प्राप्ति पर प्रशंसा ही करते हैं। पर उस दिन के दृश्य ने मेरी सोच पर गहरी पैठ की जिसे मैं शायद कभी भूल नहीं पाऊँगा। हुआ यूं कि यह सज्जन हमेशा की तरह उस बस स्टैंड पर अपनी बस के इंतज़ार में थे कि वहाँ सड़क पर एक ठेला आ रुका। ठेलेवाला आलू बेच रहा था। किसी आम दुकानदार की तरह वह जवान ठेलेवाला बहुत होशियारी से पलड़ों वाले तराजू से पाँच-पाँच किलो तक एक बार में तौलता (उन दिनों आज की तरह सतह पर रखी जाने वाली तराजू का चलन नहीं था), पॉलिथीन बैग में उन्हें डालता, पैसों का लेन-देन करता और भारी ठेला भी ठेलता।
आप कहेंगे इस में क्या नई बात है?
विडम्बना यह थी कि उसका दायां हाथ कन्धे से नीचे नहीं था। इस अपंगता के होते हुये भी वह प्रत्यक्ष रूप से सब काम बखूबी से निबटाता हुआ अपने बाल-बच्चों की ज़िम्मेदारी निभा रहा था, उसके चेहरे पर एक संतुष्टि थी। मैं सोचने पर मजबूर हो गया कि कहाँ यह कम पढ़ा-लिखा गरीब इंसान जो एक अपूर्ण शरीर से ही जीवन की लड़ाई सम्मानपूर्वक लड़े जा रहा था और कहाँ यह उच्च शिक्षा-प्राप्त, सुविधाओं से सम्पन्न सज्जन जो शारीरिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से पूर्ण-सम्पूर्ण होते हुए भी अपने थोथे अहं के लिए बरसों से अपंगों सा जीवन जी रहा था और अपने परिवार पर भी अनचाहा बोझ बना हुआ था। हाय,यह कैसी विडम्बना है कि जहां अमूमन कोई दुखदायी त्रासदी ही किसी शारीरिक अपाहिजता को अनचाहा जन्म देती है, वहीं कुछ लोग बड़े अहं और चाव से इसे गोद लेते और पालते हैं!