“निंदारस” लेख में हरिशंकर परसाई जी ने अपनी बात क, ख तथा ग के सहारे कही है। अंग्रेज़ों के ज़माने में नाम बदलकर चिट्ठियॉं इधर उधर आती जाती थीं। प्रेम पत्र भी नाम बदल कर भेजने के समाचार भी मिलते रहे हैं | भारत की आज़ादी के अमृत महोत्सव के समय में भी बातें कहने का यह अंदाज़ बिल्कुल नया सा मालूम पड़ता है। इस तरीके से हम व्यक्ति के खिलाफ़ नहीं रह जाते व्यक्ति की सोच के खिलाफ़ हो जाते हैं। मीठे को चुपचाप नहीं निगलते उसके बासीपन पर बात करते हैं ताकि ताज़गी और मिठास एकसाथ फिर से लौट सके | इस रास्ते हम समाजालोचन ही नहीं कर सकते बल्कि आत्मालोचन भी कर सकते हैं | सुना है बार बार आत्मालोचन करना चाहिए। आत्मालोचन मायने अपनी निगाहों से अपने को तोलना। आत्ममुग्धता से बाहर निकलना | अक्सर राजा आत्ममुग्धता में जनविरोधी होते होते अपनी सत्ता खो बैठते हैं | यदि तोलना चाहें तो। आत्मालोचन से बचने वाला समय आत्मघाती होता है। पर ये बातें तो उनके लिए जो किताबें पढ़ते हैं।
1 -“बेटा कभी किसी की ऊॅंची आवाज़ से डरना मत”
2- “ये दिल्ली यूनिवर्सिटी की लाईब्रेरी नहीं है, समझे मिस्टर?”
पहला डायलॉग एक हिंदी फ़िल्म का है। गुलाम फ़िल्म का है। दूसरा डायलॉग किसी भी फ़िल्म का नहीं है। ख के जीवन की एक सुबह का है। ख के जीवन की एक सुबह का समय था , कैसे कह दू सुनहरी सुबह का समय था | साढ़े दस के आसपास का वक्त। क ने ख को डपटते हुए बोला था यह- “ये दिल्ली यूनिवर्सिटी की लाईब्रेरी नहीं है समझे मिस्टर” | यह डायलॉग तब बोला गया था जब ख ने किताबों को एक्सेसन नंबर के हिसाब से रखने की सलाह दी थी, नए संस्करण की किताबें खरीदने, पब्लिशर्स से ऑन पेपर ज्यादा छूट लेने, बड़े विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में दिए गए सन्दर्भ पुस्तकों को क्रय किये जाने संबंधी या इसी टाइप की एक आध सलाह और दे डाली थी। ख ने दिल्ली यूनिवर्सिटी का कोई संदर्भ नहीं दिया था। अच्छा हुआ ख जे0 एन0 यू० का विद्यार्थी नहीं रहा था।
ग ने पुस्तकालय के लिए किताबें आर्डर कर दीं बिना लाईब्रेरियन को बताए। इंचार्ज लाईब्रेरियन अवकाश पर था तब। जब उसने घर से बिल का मूल्य सत्यापित तो कर दिया पर किताबें सत्यापित नहीं की तो ग ने अपनी पॉवर का इस्तेमाल कई दिनों तक किया। ख ने किस्सा सुनाया था कि नेहरु से एक बार इंदिरा ने पूछा था कि पापा पहले तो आप लंबे लंबे पत्र भेजते थे, अब आपके पत्र छोटे क्यों होते जा रहे हैं? नेहरु ने कहा था- बेटी पहले मैं कच्चे अंडे की तरह था, हल्की चोट मारने पर टूट जाता था, बह जाता था, पर समय के साथ अब मैं उबले अंडे की तरह हो गया हूँ | कोई चोट मारता है तो मैं घूम जाता हूँ | उबला हुआ अंडा टूटकर बिखर नहीं जाता । ख अगर किसी नौकरी में होता कब का उबला अंडा हो चुका होता। क्या पता अंडा हो चुका हो, ख की बात तो ख का दिल जाने |
क और ग बुद्धिजीवी हैं, पर किताबें खरीदवाने का उनका अपना अंदाज़ है। बहुत बार लाईब्रेरी में एक्सेसन नंबर दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करते रहते हैं. पर किताबें काम की नहीं होती। खेत भरे हैं, पर सब कुछ अखाद्य । यदि ख मेरे मन के हिसाब से केवल एक काम कर देता तो जीवन सार्थक हो जाता । मैं चाहता हूँ कि 1- ख और ग एक नयी दुनिया में पहुच जाते । 2- किसान क और ग के लिए ऐसा अनाज उगाता जो अखाद्य होता । उन्हें दूर दूर तक दूसरा कोई अनाज नसीब न होता। ख उनसे सवाल करता कि अनाज को चुनने के मामले में तो आप बड़ी ही सावधानी रखते हैं कक्षा में अध्यापक विद्यार्थियों को किताबें बताते हैं, लाईब्रेरी में कौन सी किताब आए यह विषय अध्यापक तय नहीं करता । आखिर काम तो कार्यालय से पढ़ता ही है।
क्या व्यवस्था पब्लिक लाईब्रेरी के लिए किताब चुनते समय किसान-धर्म से किताब चुन सकेगी ? घास और गाजर घास की तरह किताब और पेजों के संकलन में फर्क कर सकेगी ? सपने देखने वाले सपनों के साथ मरते हुए पाए जाते हैं। गांधी भी सपनों के साथ मरे थे, भगत सिंह भी, आंबेडकर भी । वह भगतसिंह जिन की जेबों में किताबें ठुसी रहती थी। अंबेडकर, लोहिया, नरेंद्र देव , नेहरु आदि पुस्तकालय से बनते हैं।
कुछ दृश्यों पर थोड़ी नज़र डाली जाए तो फिर बात आगे बढ़े। इधर कुछ सालों से हॉस्पिटल में देवालय बढ़ने लगे हैं और नेशनल हाइवे पर मिलने वाली किताबों की दुकाने गायब हुई हैं। जहॉं किताबों की दुकाने होती थीं वहॉ आजकल मोबाइल एसिसीरिज़ की दुकाने हो गयी हैं। छोटे बड़े तमाम प्रकाशक व्यक्तिगत पुस्तक क्रय में दस फ़ीसदी से चालीस फ़ीसदी तक की छूट देते हैं पर वही छूट पुस्तकालय खरीद पर न जाने क्यों दस फ़ीसदी रह जाती है। जिला पुस्तकालय, उपजिला पुस्तकालय बड़े-बड़े बागीचों की तरह मौसम के हिसाब से खुलते हैं। प्रोफ़ेसर्स की टैक्सट बुक पर लाईब्रेरी का एक्सेसन नंबर क्यों दिखता है? बड़े बड़े प्रोफेसरान कॉलेज लाईब्रेरी से सालाना कितनी किताबें इश्यू कराते हैं, पुस्तकालयों के रैक्स की पहली रो को छोड़ कर बाकी रो में लगे जाले क्या कहते हैं? ताज़ा भोजन करने वाले पुराने एडिषन की बासी किताबों को बड़ी संख्या में क्यों खरीद डालते हैं? दृश्यों की श्रृंखला को यहीं विराम देते हैं।
बहुत कुछ टूटते हुए ही कुछ बनता है। धीरे-धीरे भीतर भीतर टूटकर ही यह नया समाज बनता है। इस तरह बदलाव चिंता का विषय नहीं बन पाता । हमें लगता है कि थोड़ा ही तो बदला है, पर देखते देखते बहुत कुछ बदल जाता है।
पढ़ना-लिखना शब्द का एक जोड़ा है। इस जोड़े में एक सामासिकता थी | एक युग्म की तरह आते थे, दोनों एक दूसरे पर एक दूसरे के लिए जीते थे, पर इधर बहुत कुछ बदल गया है। किताबें खूब बिक रही हैं, पुस्तकालय बड़े होते जा रहे हैं, तो तय है कि लिखने वाले बढ़ते जा रहे हैं, पर पढ़ने वाले, पढ़कर लिखने वाले, लिखने के लिए पढ़ने वाले बेहद कम हुए हैं। उनमें भी पढ़ने का दबाव कम हुआ है। पुस्तकालय आकार में बढ़ते जा रहे हैं। शोधार्थी अपने गाइड के लिए लिखते हैं, गाइड अपनी प्रमोशन के लिए लिखता है। मजा तो तब है जब दोनों ही किताबों के विमोचन कार्यक्रम में नित्य ही भाग लिया करते हैं। उनके घरों पर अपनी खरीदी किताबें कम दिखाई देती हैं। स्पेसिमेनकॉपी देने की रिवायत न होती उनके घर पर पीएच० डी० शोध ग्रंथों के अलावा कम ही किताबें होती ।
ये सब बाते तब हैं जब पुस्तकालय मॉडल बदला है। संचार मॉडल की तरह बदला है। जिस तरह मीडिया के मायने अखबार, रेडियो, टीवी ही नहीं रह गया है वेब मीडिया ने संचार मॉडल को तोड़ा है, उसे व्यापक बनाया है उसी तरह पुस्तकालय का मतलब स्कूल, कॉलेज, विष्वविद्यालय का पुस्तकालय, जिला, उपजिला पुस्तकालय, पब्लिक लाईब्रेरी, ट्रस्टों के अपने पुस्तकालय तक सीमित नहीं रह गया है। आईसीटी ने पुस्तकालय को विस्तार और गहराई दी है। ई पुस्तकालय हैं, ई ग्रंथालय हैं, ई बुक्स हैं, डिज़ीटल लाईब्रेरी हैं, किताबों के पीडीएफ़ हैं, किंडल एडिषन हैं, पीजी पाठषाला है | ओपन एजुकेषनल रिर्सोसिस हैं। शोधार्थियों के लिए शोधगंगा है, शोधगंगोत्री है। इन सबके बावजूद पाठक कम हुए हैं। पाठक जान बूझकर कम हुए हों ऐसा नहीं । अपनी इच्छा से कम हुए हों ऐसा भी नहीं । संस्कृति में ठहरने, रुकने, विचारने, मेहनत करके योजना बनाने, योजना पर बार बार विचारने का तत्व कम हुआ है। कॉफ़ी ही नहीं जब रिश्ते और मूल्य भी इंस्टैंट हो रहे हों तो पुस्तकालय और पुस्तकों के बारे में अलग से क्या कहा जाए।
विज्ञान ने आब्जैक्टिीविटी पर जोर दिया था दुनिया इतनी ऑब्जैक्टिव हो गयी कि सबजैक्टिव होना गुनाह माना जाने लगा। पाठ्यक्रम, परीक्षा और प्रतियोगी परीक्षा जब सब जगह आब्जैक्टिीविटी पर बल है, एमसीक्यूज़ हैं, ओएमओर है, कोचिंग सैंटर हैं, बहुविकल्पीय प्रश्नों पर मोटी किताबें हैं, कंट्रोल सी प्लस कंट्रोल वी है| जब मानविकी और समाज विज्ञान के व्यक्ति भी सेमेस्टर में क्विज़ खेलते हैं तो लगता है कुछ दिनों में रामचरितमानस, रागदरबारी, मैलाऑंचल आदि के वस्तुनिष्ठ संस्करण ही पाठ्यक्रम में निर्धारित किए जाएंगे। अब आप बताइए कि पुस्तकालयों पर पर लगे इस आब्जैक्टिीविटी के ताले कैसे टूटें? कौन तोड़ेगा इन तालों को?