हिंदी साहित्य में सर्वाधिक लिखी जाने वाली विधा कविता है। फिर कहानी का नंबर आता है जिसमें उपन्यास भी शामिल हैं। व्यंग्य भी लिखे जाते हैं, नाटक भी और आत्मकथ्य भी। निबंध, संस्मरण, यात्रा वृतात, रेखाचित्र, डायरी आदि कम देखने में आते हैं। इन कथेतर विधाओं पर बात भी अत्यल्प होती है। जबकि ये रोचक और ज्ञानवर्धक विधाएं हैं। इनका संज्ञान लिया जाना चाहिए। इनकी चर्चा और मूल्यांकन होना चाहिए। आज के समय में इनका प्रभाव क्षेत्र विस्तृत होने की पर्याप्त संभावनाएं हैं। आज का पाठक साहित्य की प्रचलित विधाओं से इतर कुछ पढ़ना चाहता है। इसलिए हमारा दायित्व है कि इनकी जानकारी हिंदी साहित्य के पाठकों तक पहुंचाई जाए।
संस्मरण :
स्मृति के आधार पर किसी विषय पर अथवा किसी व्यक्ति पर लिखित आलेख संस्मरण कहलाता है। यात्रा साहित्य भी इसके अन्तर्गत आता है। संस्मरण को साहित्यिक निबन्ध की एक प्रवृत्ति भी माना जा सकता है। ऐसी रचनाओं को ‘संस्मरणात्मक निबंध’ कहा जा सकता है। व्यापक रूप से संस्मरण आत्मचरित के अन्तर्गत लिया जा सकता है। किन्तु संस्मरण और आत्मचरित के दृष्टिकोण में मौलिक अन्तर है। आत्मचरित के लेखक का मुख्य उद्देश्य अपनी जीवनकथा का वर्णन करना होता है। इसमें कथा का प्रमुख पात्र स्वयं लेखक होता है। संस्मरण लेखक का दृष्टिकोण भिन्न रहता है। संस्मरण में लेखक जो कुछ स्वयं देखता है और स्वयं अनुभव करता है उसी का चित्रण करता है। लेखक की स्वयं की अनुभूतियाँ तथा संवेदनायें संस्मरण में अन्तर्निहित रहती हैं। इस दृष्टि से संस्मरण का लेखक निबन्धकार के अधिक निकट है। वह अपने चारों ओर के जीवन का वर्णन करता है। इतिहासकार के समान वह केवल यथातथ्य विवरण प्रस्तुत नहीं करता है। पाश्चात्य साहित्य में साहित्यकारों के अतिरिक्त अनेक राजनेताओं तथा सेनानायकों ने भी अपने संस्मरण लिखे हैं, जिनका साहित्यिक महत्त्व स्वीकारा गया है।
संस्मरणों को साहित्यिक रूप में लिखे जाने का प्रचलन आधुनिक काल में पाश्चात्य प्रभाव के कारण हुआ है। किन्तु हिन्दी साहित्य में संस्मरणात्मक आलेखों की गद्य विधा का पर्याप्त विकास हुआ है। संस्मरण लेखन के क्षेत्र में हमें अत्यन्त प्रौढ तथा श्रेष्ठ रचनाएं हिन्दी साहित्य में उपलब्ध होती हैं।
हिन्दी के प्रारंभिक संस्मरण लेखकों में पद्म सिंह शर्मा हैं। इनके अतिरिक्त बनारसीदास चतुर्वेदी, महादेवी वर्मा तथा रामवृक्ष बेनीपुरी आदि हैं। चतुर्वेदी ने “संस्मरण” तथा “हमारे अपराध” शीर्षक कृतियों में अपने विविध संस्मरण आकर्षक शैली में लिखे हैं। हिन्दी के अनेक अन्य लेखकों तथा लेखिकाओं ने भी बहुत अच्छे संस्मरण लिखे हैं। उनमें से कुछ साहित्यकारों का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा। श्रीमती महादेवी वर्मा की “स्मृति की रेखाएँ” तथा “अतीत के चलचित्र” संस्मरण साहित्य की श्रेष्ठ कृतियाँ हैं। रामबृक्ष बेनीपुरी की कृति “माटी की मूरतें” में जीवन में अनायास मिलने वाले सामान्य व्यक्तियों का सजीव एवं संवेदनात्मक कोमल चित्र्ण किया गया है।
इनके अतिरिक्त देवेन्द्र सत्यार्थी ने लोकगीतों का संग्रह करने हेतु देश के विभिन्न क्षेत्रों की यात्रायें की थीं, इन स्थानों के संस्मरणों को भावात्मक शैली में उन्होंने लिखा है। “क्या गोरी क्या साँवली” तथा “रेखाएँ बोल उठीं” सत्यार्थी के संस्मरणों के अपने ढंग के संग्रह हैं। भदन्त-आनन्द कोसल्यायन ने अपने यात्र जीवन की विविध घटनाओं तथा परिस्थितियों के संदर्भ में जो अनेक पात्र मिले उनके सम्बन्ध में अपने संस्मरणात्मक आलेखों को दो संकलनों “जो न भूल सका” तथा “जो लिखना पड़ा” में संगृहीत किया है। कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर ने “भूले हुए चेहरे” तथा “दीपजले शंख बजे” में अपने कतिपय अच्छे और आकर्षक संस्मरण संकलित किये। संस्मरण को साहित्यिक निबन्ध की एक प्रवृत्ति भी माना जा सकता है। ऐसी रचनाओं को संस्मरणात्मक निबंध कहा जा सकता है। गुलाबराय की कृति “मेरी असफलताएँ” को संस्मरणात्मक निबन्ध की कोटि में रखा जा सकता है। हिन्दी के अन्य अनेक लेखकों ने भी अच्छे संस्मरण लिखे हैं जिनमे प्रमुख है राजा राधिकारमण सिंह की ‘सावनी समां’, और ‘सूरदास’, रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की ‘लोकदेव नेहरु’ व संस्मरण और श्रद्धांजलियाँ’, डॉ रामकुमार वर्मा की ‘संस्मरणों के सुमन’ आदि।
हिंदी निबंध :
आधुनिक हिंदी गद्य-विधाओं में निबंध का महत्वपूर्ण स्थान है। इसका उद्भव भी भारतेन्दु युग से ही स्वीकार किया जाता है। कतिपय समीक्षक सदासुख लाल अथवा राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद को हिंदी का पहला निबंधकार मानते हैं, परन्तु एक सुव्यवस्थित एवं सुनिश्चित निबंध-परम्परा का सूत्रपात भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और उनके समसमयिक निबंधकारों से ही होता है।
हिंदी निबंध के विकास को चार भागों में बाँटा गया है-
1. भारतेन्दु युग
2. द्विवेदी युग
3. शुक्ल युग
4. शुक्लोत्तर युग
भारतेन्दु युग (1868 ई. से 1900 ई.)
गद्य की अन्य विधाओं के साथ ही भारतेन्दु युग से हिंदी निबंध का सूत्रपात एवं विकास होता है। इस युग के निबंधकारों में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, प्रतापनारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट, बद्रीनारायण चौधरी प्रेमघन, श्री निवासदास आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र आधुनिक हिंदी गद्य के जन्मदाता हैं। वे इस युग के प्रतिभा सम्पन्न निबंधकार हैं। उन्होंने समाज, राजनीति, धर्म, इतिहास, साहित्य आदि विविध विषयों पर निबंध-रचना की है। इनके यात्रा संबंधी निबंध भी विशेष महत्त्व रखते हैं। जिन्दादिली, आत्मीयता एवं व्यंग्यात्मकता भारतेन्दु के निबंध-साहित्य की विशेषताएँ हैं।
बालकृष्ण भट्ट भारतेन्दु युग के सर्वश्रेष्ठ निबंधकार कहे जा सकते हैं। भट्ट जी हिंदी प्रदीप पत्रिका के सम्पादक थे। इनके निबंध भट्ट निबंधमाला, भट्ट निबंधावली तथा साहित्य सुमन संग्रहों में संकलित हैं। विचारात्मक एवं भावात्मक दोनों प्रकार के निबंधों की रचना में भट्ट जी सफल रहे हैं। प्रतापनारायण मिश्र इस युग के स्वच्छन्द एवं मस्तजीवी निबंधकार हैं। इनके निबंध ब्राह्मण पत्रिका में प्रकाशित होते थे। प्रतापनारायण मिश्र ग्रंथावली में इनके निबंध संग्रहीत हैं। मनोरंजन तथा व्यंग्य इनके निबंधों की विशेषताएँ हैं। समग्र रूप से भारतेन्दु युग के निबंधों में हास्य- व्यंग्य, देश- प्रेम, समाज- सुधार और मनोरंजन जैसी विशेषताएँ प्रधान रूप से पाई जाती हैं।
द्विवेदी युग (1901 ई. से 1920 ई.)
द्विवेदी युग के प्रवर्तक महावीर प्राद द्विवेदी आचार्य, समीक्षक और निबंधकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। आचार्य द्विवेदी ने सरस्वती के सम्पादक रहते हुए विविध विषयों पर निबंधों की रचना की। उन्होंने संस्कृति, साहित्य, समाज, धर्म, शिक्षा, इतिहास आदि विषयों पर विचारात्मक एवं आलोचनात्मक निबंधों की रचना की। उनके निबंधों में विचारों एवं तथ्यों को प्रधानता है। चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, पद्म सिंह शर्मा, बालमुकुन्द गुप्त, गोविन्दनारायण मिश्र, श्यामसुन्दरदास, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, अध्यापक पूर्णसिंह इस युग के प्रसिद्ध निबंधकार हैं। इस युग के निबंधों से निबंध का विचार क्षेत्र व्यापक हुआ है। विचार-प्रधान निबंधों की रचना में इस युग के लेखक को सफलता मिली है, परन्तु भारतेन्दु युगीन आत्मीयता जिन्दादिली तथा सजीवता का इस युग के निबंध में अभाव है।
शुक्ल युग (1921 ई. से 1940 ई.)
शुक्ल युग के निबंधकारों में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल शीर्षस्थ है। आचार्य शुक्ल ने मनोवैज्ञानिक, साहित्यिक एवं आलोचनात्मक निबंधों की रचना की है, जो चिन्तामणि (दो भाग) में संगृहीत हैं। शुक्ल जी के निबंध विचारात्मक निबंधों का आदर्श प्रस्तुत करते हैं। इनमें बुद्धि और भाव का सन्तुलित समन्वय मिलता है। उत्साह, करुणा, भय आदि शुक्ल जी के मनोभाव संबंधी प्रसिद्ध निबंध हैं। कविता क्या है? आदि इनके साहित्यिक एवं समीक्षात्मक निबंध हैं। शुक्ल जी की भाषा भावों और विचारों की अभिव्यक्ति में पूर्णतया सक्षम है।
शुक्ल युग के निबंधकारों में बाबू गुलाबराय, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, शान्तिप्रिय द्विवेदी, महादेवी वर्मा, राहुल सांकृत्यायन आदि उल्लेखनीय हैं। इन निबंधकारों की अपनी मौलिक विशेषताएँ हैं। बाबू गुलाबराय ने आत्म- परक निबंधों की रचना की है। महादेवी के निबंध संस्मरणात्मक हैं। राहुल के निबंधों में विषय- वैविध्य है। सियारामशरण गुप्त के निबंध वैयक्तिक है। इस युग में श्रीराम शर्मा ने आखेट विषयक निबंध लिखे हैं। डॉ. रघुवीर सिंह के भावात्मक निबंध भी प्रसिद्ध हैं। शुक्ल युग के इन निबंधकारों में विचारों की गम्भीरता के साथ- साथ भाषा-शैली की प्रौढ़ता भी मिलती है।
शुक्लोत्तर हिंदी निबंध (1940 ई. से अब तक)
शुक्लोत्तर युग के निबंधकारों में हजारीप्रसाद द्विवेदी अपने ललित निबंधों के लिए प्रसिद्ध हैं। उन्हें सांस्कृतिक चेतना का निबंधकार माना जा सकता है। प्राचीन और नवीन का सामंजस्य उनकी उल्लेखनीय विशेषता है। अशोक के फूल, कुटज, कल्पलता, आलोक पर्व आदि संग्रहों में द्विवेदी जी के निबंध संगृहीत हैं। उनकी भाषा प्रौढ़ है और शैली में व्यंग्य-विनोद। इस युग के अन्य निबंधकारों में वासुदेवशरण अग्रवाल, आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी, डॉ. नगेन्द्र, भगतशरण उपाध्याय, जैनेन्द्र, रामविलास शर्मा, प्रभाकर माचवे, डॉ. इन्द्रनाथ मदान, डॉ. सत्येन्द्र आदि के नाम भी पर्याप्त चर्चित है। इसी क्रम में ललित निबंध के मार्ग को जिन्होंने प्रशस्त किया है उन निबंधकारों में डॉ. विद्यानिवास मिश्र, धर्मवीर भारती, नामवर सिंह, शिवप्रसाद सिंह, श्रीलाल शुक्ल, कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, हरिशंकर परसाई, कुबेरनाथ राय, विवेकी राय आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इनमें डॉ. विद्यानिवास मिश्र ने निबंध के क्षेत्र में विशिष्ट स्थान प्राप्त किया है। इन्होंने आचार्य द्विवेदी की सांस्कृतिक- साहित्यिक ललित निबंध- परम्परा को विकसित किया है। छितवन की छाँह, कदम की फूली डाल, तुम चन्दन हम पानी आदि मिश्र जी के निबंध- संग्रह हैं। इनके निबंधों में अनुभूति और चिन्तन का मेल है और भाषा में लालित्य और प्रवाह है। हरिशंकर परसाई हास्य व्यंग्य- प्रधान निबंधों के लिए प्रसिद्ध हैं।
यात्रा वृतान्त :
हिन्दी साहित्य में यात्रा वृतान्त एक आधुनिक गद्य विधा के रूप में स्वीकृत है। हिन्दी में यात्रा-वृत्तान्त लिखने की परम्परा का सूत्रपात भारतेन्दु से माना जाता है। इनके यात्रावृत्त विषयक रचनाएँ कविवचनसुधा में प्रकाशित होती थीं। राहुल सांकृत्यायन, अज्ञेय और नागार्जुन को आधुनिक हिंदी साहित्य का ‘घुमक्कड़ बृहतत्रयी’ कहा जाता है।
भारतेन्दु ने विभिन्न स्थलों की यात्रा की और अपने अनुभवों को साझा किया। यात्रा वृतांत के रूप में उनके कुछ संस्मरण हैं- सरयू पार की यात्रा, लखनऊ की यात्रा, हरिद्वार की यात्रा। भारतेंदु युग में ही कुछ लेखकों के द्वारा विदेश यात्रा के वृतांत भी लिखे गए। इसी प्रकार द्विवेदी युग में भी विभिन्न यात्रा वृतान्त लिखे गए श्रीधर पाठक की देहरादून , शिमला यात्रा। स्वामी सत्यदेव परिव्राजक की “मेरी कैलाश यात्रा”, अमेरिका भ्रमण आदि। सबसे महत्वपूर्ण यात्रावृतान्त लेखक राहुल सांकृत्यायन माने जाते हैं। उन्होंने विभिन्न देशों की यात्रा की और यात्रा में आने वाली कहानियों को बताने के साथ-साथ उस स्थान विशेष कि प्राकृतिक संपदा, सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक घटनाओं को भी बारी-बारी से प्रस्तुत किया जैसे- किन्नर देश में, दार्जिलिंग परिचय, यात्रा के पन्ने आदि।
राहुल सांकृत्यायन का नाम जब भी सामने आता है तो स्मृति में सबसे पहले आती है घुमक्कड़ी। उनकी एक पुस्तक का नाम भी है – घुमक्कड़ शास्त्र, इसके अलावा भी उन्होंने कई पुस्तकें यात्रा और भ्रमण पर लिखी हैं। महापंडित कहे जाने वाले राहुल सांकृत्यायन वास्तव में यायावर थे, लेकिन वैसे यायावर नहीं जो सारी सुविधाओं के साथ घूमने जाते हैं। वे लिखते हैं कि “बढ़िया से बढ़िया होटलों में ठहरने, बढ़िया से बढ़िया विमानों पर सैर करने वालों को घुमक्कड़ कहना इस महान शब्द के प्रति भारी अन्याय करना है।” राहुल सांकृत्यायन ने कोलकाता, काशी, दार्जिलिंग, तिब्बत, नेपाल, चीन, श्रीलंका, सोवियत संघ समेत कई देशों का भ्रमण किया। वे एक साधारण घुमक्कड़ नहीं थे जो किसी देश में जाकर वहां के भूगोल मात्र से प्रभावित हो ले। वह खच्चर पर किताबें लादकर तिब्बत से भारत ले आए थे। वे जहां जाते, वहां की संस्कृति को भी आत्मसात् करते। 30 भाषाएं जानते थे और 140 किताबों के लेखक थे। अद्भुत तर्कशास्त्री थे, समाजशास्त्र, दर्शन, इतिहास, अध्यात्म जैसे विषयों के ज्ञाता थे। संभवत: यह सभी उनके घुमक्कड़ स्वभाव के कारण ही उन्हें मिला। अपने आप में घुमक्कड़ होना या मात्र साहित्यकार होना एक व्यक्ति को अन्य से अलग करता है पर राहुल तो दोनों थे। अपने घूमने के स्वभाव के कारण वह अपनी जड़ों से कभी नहीं कटे। समाज के विभिन्न वर्गों के लिए अपनी आवाज़ बुलंद करते रहे। उन्होंने कहा कि, “घुमक्कड़ होने का अर्थ ही नहीं कि उसका अपनी मातृभूमि से प्रेम ही न हो।” राहुल भी जीवन के आख़िरी पड़ाव में अपने गांव लौट आए थे। एक साहित्यकार की दृष्टि से यायावरी के क्या अनुभव हो सकते हैं, यह जानने के लिए राहुल सांकृत्यायन को अवश्य पढ़ना चाहिए।
राहुल सांकृत्यायन लिखते हैं- ‘व्यक्ति के लिए घुमक्कड़ी से बढ़कर कोई धर्म नहीं है। जाति का भविष्य घुमक्कड़ों पर निर्भर करता है, इसलिए मैं कहूंगा कि हरेक तरुण और तरुणी को घुमक्कड़-व्रत ग्रहण करना चाहिए, इसके विरुद्ध दिए जाने वाले सारे प्रमाणों को झूठ और व्यर्थ मानना चाहिए। यदि माता-पिता विरोध करते हैं, तो समझाना चाहिए कि वह भी प्रह्लाद के माता-पिता के नवीन संस्करण हैं। यदि हित-बांधव बाधा उपस्थित करते हैं, तो समझाना चाहिए कि वे दिवांध हैं। धर्म-धर्माचार्य कुछ उलटा-सीधा तर्क देते हैं, तो समझ लेना चाहिए कि इन्हीं ढोंगों और ढोंगियों ने संसार को कभी सरल और सच्चे पथ पर चलने नहीं दिया। यदि राज्य और राजसी-नेता कानूनी रुकावटें डालते हैं, तो हजारों बार की तजुर्बा की हुई बात है, कि महानदी के वेग की तरह घुमक्कड़ की गति को रोकने वाला दुनिया में कोई पैदा नहीं हुआ।
बड़े-बड़े कठोर पहरेवाली राज्य-सीमाओं को घुमक्कड़ों ने आंख में धूल झोंककर पार कर लिया। मैंने स्वयं ऐसा एक से अधिक बार किया है। पहली तिब्बत यात्रा में अंग्रेजों, नेपाल-राज्य और तिब्बत के सीमा-रक्षकों की आंख में धूल झोंककर जाना पड़ा था। संक्षेप में हम यह कह सकते हैं, कि यदि कोई तरुण-तरुणी घुमक्कड़ धर्म की दीक्षा लेता है- यह मैं अवश्य कहूंगा, कि यह दीक्षा वही ले सकता है, जिसमें बहुत भारी मात्रा में हर तरह का साहस है- तो उसे किसी की बात नहीं सुननी चाहिए, न माता के आंसू बहने की परवाह करनी चाहिए, न पिता के भय और उदास होने की, न भूल से विवाह लाई अपनी पत्नी के रोने-धोने की फिक्र करनी चाहिए और न किसी तरुणी को अभागे पति के कलपने की।
दुनिया में मनुष्य-जन्म एक ही बार होता है और जवानी भी केवल एक ही बार आती है। साहसी और मनस्वी तरुण-तरुणियों को इस अवसर से हाथ नहीं धोना चाहिए। कमर बांध लो भावी घुमक्कड़ो! संसार तुम्हारे स्वागत के लिए बेकरार है।”
अपने घूमने के स्वभाव के कारण भी वह अपनी जड़ों से कभी नहीं कटे। समाज के विभिन्न वर्गों के लिए अपनी आवाज़ बुलंद करते रहे। उन्होंने कहा कि, “घुमक्कड़ होने का अर्थ ही नहीं कि उसका अपनी मातृभूमि से प्रेम ही न हो।” राहुल भी जीवन के आख़िरी पड़ाव में अपने गांव लौट आए थे। एक साहित्यकार की दृष्टि से यायावरी के क्या अनुभव हो सकते हैं, यह जानने के लिए राहुल सांकृत्यायन को अवश्य पढ़ना चाहिए।
बाद में चलकर अज्ञेय ने अपनी यात्रा वृतांत के द्वारा विदेशी अनुभवों को भी एक भी एक कहानीकार की रोचकता और यात्री के रोमांचक के साथ प्रस्तुत किया है। “एक बूंद सहसा उछली” में यूरोप और अमेरिका की यात्राओं को प्रस्तुत किया है। मोहन राकेश ने अपनी यात्रा वृतान्त “आखिरी चट्टान” में दक्षिण भारत की यात्राओं का वर्णन किया है। निर्मल वर्मा ने “चीड़ों पर चांदनी” नामक यात्रा वृतांत में अपनी यूरोप यात्रा का वर्णन किया है। इस यात्रा वृतांग में वे वहां के इतिहास, दर्शन और संस्कृति से सीधा संवाद करते हैं। उनके यात्रा वर्णन में संवेदनशीलता के साथ साथ बौद्धिक गहराई का भी अनुभव होता है।
डायरी लेखन:
डायरी में निजी अनुभव, प्रतिदिन घटित होने वाली घटनाओं का लेखा-जोखा, तथ्य-संग्रह, संपर्क में आए व्यक्तियों, नए अनुभवों, नए स्थानों, नयी घटनाओं आदि का संक्षिप्त विवरण होता है। इसलिए इसे दैनंदिनी भी कहते हैं। इसे लिखने के पीछे लेखक की मंशा जीवन में घटित घटनाओं को लंबे समय तक याद रखना होता है। डायरी लेखन व्यक्ति के द्वारा लिखे गये व्यक्तिगत अनुभवों, सोच और भावनाओं को लिखित रूप में अंकित करके बनाया गया एक संग्रह है। विश्व में हुए महान व्यक्ति डायरी लेखन करते थे और उनके अनुभवों से उनके निधन के बाद भी कई लोगों को प्रेरणा मिलती है। डायरी गत साहित्य की एक प्रमुख विधा है इसमें लेखक आत्म साक्षात्कार करता है। वह अपने आपसे सम्प्रेषण की स्थिति में होता है। मानव के समस्त भावों मानसिक उद्वेगों, अनुभूति विचारों को अभिव्यक्त करने में साहित्य का सर्वोच्च स्थान है। समीक्षकों ने डायरी को साहित्य की कोटि में इसलिए रखा है क्योंकि वह किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति के व्यक्तित्व का उदघाटन करती है या मानव समाज के विभिन्न पक्षों का सूक्ष्म और जीवंत चित्र उपस्थित करती हैं। डायरी लेखक अपनी रूचि आवश्यकतानुसार राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक साहित्यिक अधिक विभिन्न पक्षों के साथ निजी अनुभूतियों का चित्रण कर सकता है।
जाहिर है कथेतर गद्य का दायरा विस्तृत है। इस पर बात होनी चाहिए।