स्त्रियों के प्रति अत्याचार सदियों से चला आ रहा है, वह अपने हक में कुछ नहीं बोलती थीं और अत्याचारों को सहती गईं। स्त्रियों के प्रति ऐसे अत्याचारों ने कितनी ही स्त्रियों की जान ले ली और कितनी ही सहनशीलता की हदें पार करके घुट-घुट कर जीवन काटती रहीं। धीरे-धीरे इसी पीड़ा और घुटन के बीच छटपटाहट और मुक्ति की आकांक्षा प्रतिरोध के स्वर में तब्दील होने लगी। अभिव्यक्ति का अधिकार लेकर स्त्रियाँ स्वयं अपनी पीड़ा और आकांक्षा व्यक्त करने लगी। शिक्षा के प्रसार के बाद जब कुछ स्त्रियाँ शिक्षित हुईं तो यह अभिव्यक्ति लोककथाओं और लोकगीतों के बाद लेखन के माध्यम से संप्रेषित हुई।
आज़ादी के संघर्ष में महिलाओं की भागीदारी ने आम स्त्रियों को घर के बाहर की दुनिया तक पहुँचाया और तब स्त्रियों ने मुक्ति और संघर्ष से प्रत्यक्ष साक्षात्कार किया। स्त्री – लेखन ६० के दशक के बाद मुखर होकर सामने आया। इससे पूर्व का दबा-दबा मद्धिम स्वर ९० के दशक के बाद चीख में बदलने लगा। समकालीन स्त्री-लेखन में मुक्त स्त्री की छवि साफ होने लगी। यौन-मुक्ति की बात हुई, विवाह और परिवार संस्था का भी विरोध होने लगा। स्त्रियों ने अपने लेखन में स्त्री की पीड़ा, छटपटाहट और मुक्ति आकांक्षा को खोलकर समाज के सामने रखा।
१९२० के आस-पास के बहुत सारे स्त्री–लेखन में आदर्श पत्नी के कर्तव्य और पति सेवा का सन्देश मौजूद हैं। आज़ादी के बाद स्त्री-लेखन मे भी गढ़ी हुई स्त्री स्वतंत्र अस्तित्व को ही प्रधानता देती हैं। स्त्री के संस्कार उसके स्वतंत्र लेखन और स्वतंत्र अस्मिता की तलाश मे बाधक बनते हैं।
स्त्री –लेखन की शुरुआत कविता से हुई, जो अधिकतर राष्ट्रीय भावना से युक्त थी। इन्होंने कविता की भाषा को भावाभिव्यक्ति का सरल माध्यम माना। १९३० के आस-पास महिला रचनाकारों की एक पीढ़ी पूरे उत्साह के साथ ही साहित्यिक संगोष्ठियों मे सहभागिता, पत्रिकाओं का संपादन महिला और राजनैतिक संगठनों से जुड़कर सक्रिय रहीं।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद नए नाम और जुड़े जिनमें दुर्गेश नन्दिनी, सुमित्र कुमारी सिन्हा, रजनी पणिकर, कंचनलता सब्बरवाल के नाम प्रमुख हैं। आधुनिक काल के स्त्री लेखन में गृहस्थी व परिवार से जुड़ीं लेखिकाओं के साथ-साथ नौकरीपेशा महिलाएं भी शामिल होती गयी। इनमें मन्नू भंडारी, कृष्ण सोबती, उषा प्रियंवदा, शिवानी, ममता कालिया, सूर्यबाला, मंजुला भगत, शशिप्रभा, कृष्णा अग्निहोत्री, सुनीता जैन, मृणाल पाण्डेय, नासिरा शर्मा, मेहरूनिस्सा परवेज़ आदि हैं। सभी ने अलग-अलग समस्याओं को लेकर लिखा, स्त्री जीवन के विविध पक्षों पर अपनी लेखनी चलायी। नारी मुक्ति के अतिरिक्त देश व समाज की समस्याओं को केंद्र में रखकर लेखन कार्य करने वाली लेखिकाओं में चित्रा मुद्गल का विशेष स्थान है। इनके अतिरिक्त आधुनिक लेखिकाओं में अलका सरावगी, प्रभा खेतान, जाया जादवानी, नीलाक्षी सिंह का भी महत्वपूर्ण स्थान हैं।
महिला कथाकारों की सामाजिक जीवन व व्यक्तिगत जीवन से जुड़े प्रश्नों के साथ , साहसिक अभिव्यक्ति जहाँ समाज में स्त्री की स्थिति को स्प्ष्ट करती है,वहीँ आनेवाले पीढ़ी का मार्ग प्रशस्त करती नज़र आती है। आज लेखिकाएं अपने जीवन का समग्र चित्रण अपने लेखन में कर रहीं हैं। एक स्त्री की स्थिति, उसकी मन:स्थिति, पीड़ा को अपने लेखन में प्रस्तुत करतीं हैं।
स्त्री–लेखन उन्नीसवीं सदी की शुरुआत से ही चला आ रहा है, किन्तु उसमें आया बदलाव सराहनीय है। लेखिकाओं की प्रारंभिक पुरुष विरोधी मानसिकता में परिवर्तन आया है। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध व बीसवीं सदी के पूर्वार्ध के स्त्री-लेखन में स्त्री का विषय पुरुष न होकर सामाजिक रूढ़ियाँ रहीं। पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था में मुक्ति की आकांक्षा को लेखिकाओं ने अपना विषय बनाया।
आज साहित्य की विभिन्न विधाओं में स्त्रियों से कोई क्षेत्र अछूता नहीं रहा हैं। स्त्रियों के संघर्ष ,उनके उत्पीड़न,उनकी छटपटाहट से साहित्य जगत में भी हलचल होती रही है। इसकी पहली अनुगूँज (कहानी में) ‘बंग महिला’ (राजेंद्र बाला घोष) की ‘कुम्भ में छोटी बहू’ और ‘दुलाईवाली’ ‘कहानी में सुनाई देती हैं। इस प्रकार के लेखन की सबसे बड़ी विशेषता तो यही थी कि लेखिकाओं ने समाज के शक्ति केन्द्रों पर निशाना साधा था। लेखिकाओं ने अपनी रचनाओं में जिस स्वानुभूत सच्चाईयों को उजागर किया वे कुछ ज्वलंत प्रश्नों को जन्म देती हैं। इस सन्दर्भ में स्त्री-लेखन की परख करना ज़रूरी है क्योंकि इनके लेखन में स्त्री–जीवन की चिंताएँ सामाजिक,आर्थिक,कानूनी और पितृसत्तात्मक व्यवस्था के मुद्दों के रूप में विश्लेषित हुई हैं।
रचनात्मक साहित्य सृजन में विशेष रूप से स्त्रियों की भागीदारी में निरंतर वृद्धि हो रही है। जब एक स्त्री लिखती है तो वह एक प्रकार की जिम्मेदारी उठाती है। लेखन एक बड़ा अनुशासन है। स्त्री रचनाकारों ने साहित्य के माध्यम से जन जागरण का अलख जगाया और इस क्षेत्र में वह कामयाबी से आगे बढ़ रहीं हैं।
स्त्री-स्वतंत्रता के इस युग में स्त्री का चतुर्मुखी विकास प्रारम्भ हुआ है। स्त्री ने पूर्णरूपेण आर्थिक और सामाजिक स्वतंत्रता प्राप्त कर ली। साहित्य के क्षेत्र में भी स्त्रियों ने अपनी प्रतिभा के अलोक में स्त्री-जीवन के कई अनछुए पहलुओं को उजागर किया हैं। हम देखते है कि स्त्री वैदिक काल से ही बौद्धिक स्तर पर पुरुष के साथ-साथ रही है। यह एक सशक्त सत्य है कि नियति और संस्कारों ने पुरुष की अपेक्षा स्त्री को अधिक भावप्रवण एवं संवेदनशील बनाया है,जिसके आधार पर पुरुष हमेशा स्त्री की उपेक्षा करता रहा है और उसकी इस कमज़ोरी का फायदा उठाने की कोशिश भी करता है। युग-परिवर्तन के साथ-साथ स्त्री-पुरुषों के सोचने-समझने में अंतर आने लगा है। पुरूषों की स्त्री की ओर देखने की दृष्टि बदलती गयी। स्त्री अपने बारे में स्वतंत्र रूप में सोचने लगी, स्त्री को अपने बंधन और मुक्ति का अहसास होने लगा। पीढ़ी दर पीढ़ी स्त्री की मन:स्थिति में भी अंतर आता गया।
इस सदी के सातवें में जहाँ ममता कालिया ने लेखन आरम्भ किया ,कथा-कहानी में तब स्त्री की एक भीनी-भीनी छवि स्वीकृति और समर्थन के सुरक्षा-चक्र में दिखाई देती थी। ममता कालिया ने अपने लेखन में रोजमर्रा के संघर्ष में स्त्री के व्यक्तित्व को उभारा है और अपनी रचनाओं में रेखांकित किया कि स्त्री और पुरुष का संघर्ष अलग नहीं, कमतर भी नहीं वरन समाजशास्त्रीय अर्थों में ज्यादा महत्तर हैं।
ममता कालिया ने अपने लेखन में विवाह के रूढिवादी रूप को कटघरे में खड़ा किया है, इन्होंने कोर्ट मैरिज, सिंगल पेरेंट्स, होमोसेक्सुएलिटी, अंतरजातीय विवाह आदि को विवाह के विभिन्न रूपों को अपने लेखन में विश्लेषित किया है। उनका मानना है कि यह स्त्री को अपेक्षित सुख नहीं देता। उनकी कहानी-लेखन की शुरुआत ‘छुटकारा’ से थी। सामान्यता और सहजता उनकी कहानियों की विशेषता है। उनके कहानियों में स्त्री-जीवन का मार्मिक चित्रण मिलता है।
‘पीली लड़की’ कहानी में पति-पत्नी के आपसी सौहार्द पूर्ण संबंधों में दूर की मानसिकता लिए एक बेबस कमज़ोर लड़की की भावनाओं को उजागर किया गया है। सोना एक सीधी-सादी कमज़ोर लड़की है,उसे विवाह के नाम से ही डर लगता है, यही डर उसे विवाहोपरांत पति के साथ सामान्य रूप से रहने नहीं देता है जो धीरे-धीरे दाम्पत्य संबंधो में दूरियां ला देता है। परोक्ष रूप से यौन भावना का डर ही सोना को सामान्य नहीं रहने देता और वह पति के साथ सामंजस्य नहीं बैठा पाती है और यही उन दोनों के दूरियों का कारण बनता है।
उसी प्रकार ‘मनोविज्ञान’ कहानी पति की मानसिकता पर आधारित है। दाम्पत्य जीवन में पति अपने अंतर्विरोध से पत्नी को जिस तरह पीड़ित करता है यह इस कहानी में चित्रण किया गया है। एक पुरुष अपनी पढ़ी-लिखी पत्नी के व्यक्तित्व को स्वीकार नहीं कर पाता यद्यपि अंत मे पत्नी आत्म-समर्पण कर देती है तथापि उसकी मानसिकता उस आत्मसमर्पण को स्वीकार नहीं कर पाती। अत: दोनों एक निश्चित दूरी का अनुभव करते हुए अलग हो जाते है।
‘फर्क नहीं’ कहानी में बिमला का कहना है कि “यह नहीं है कि शादी में मेरी दिलचस्पी नहीं थी, पर मैं शादी को समापन प्रकरण के रूप में चाहती थी, फिर ऐसी शादी का मैं क्या करती जो परिवार के बड़े-बूढों ने मेरे लिए सोच रखी थी…मेरे मन में शादी की एक अलग तस्वीर थी।”1 कहने का तात्पर्य यह है कि विवाह एक संस्था है जो न चाहते हुए भी उसमें बंधना पड़ता है। इस कहानी की नायिका शादी की प्रतीक्षा में पड़ी जा रही है- उसका विवाह न होने के कारण ,वह युवावस्था आ जाने पर भी अपने पर लगी बंदिशों के बारे में सोचती है और इंतजार करती रहती है कि बुढ़ापा कब आएगा। इस कहानी में विवाह संस्था को लेखिका ने अस्वीकार किया हैं। विवाह न होने के कई कारण हो सकते है, इस कहानी में उसी की एक स्थिति को दर्शाया गया है।
‘जितना तुम्हारा हूँ’ कहानी में पति-पत्नी के आपसी तनावपूर्ण उन प्रेम-संबंधों का वर्णन करते है जो शीघ्र ही जीवन की पारिवारिक उलझनों, वास्तविकताओं के आगे ठंडा पड़ जाता है. यह रघु और श्वेता की कहानी है, जिसमें पारिवारिक कारणों से तनाव उत्पन्न हो जाता है और यह उनके दाम्पत्य जीवन को प्रभावित करता है। परिवार के अन्य लोगों द्वारा हस्तक्षेप के चलते इस सम्बन्ध में दरार आ जाती है।
‘सीट नंबर छह’ ममता जी की कहानी महत्वपूर्ण है जिसमें विवाह-संस्था को उन्होंने पूरी तरह से नकारा है। इस कहानी की नायिका सोचती है – “अकेले रहते-रहते, मैं तो यह भूल चली थी कि मैं लड़की हूँ या लड़का। वैसे सच कहूँ तो उम्र के लिहाज से अब मुझे अपने आपको लड़की कहना बंद कर देना चाहिए पर शादी न होने का यही तो एक फायदा है….कॉलेज में ग्यारह सौ लडकियाँ ‘मिस-मिस’ करती हैं, बहुत है”2 आगे वह कहती है – “शादी के बाद औरतों की सेंस ऑफ ह्यूमर को क्या हो जाता है? अपने पोंगे से पोंगे पाट वैलिड पति को वे ऐसे संभाल कर रखती है जैसे वह लॉटरी का लकी नंबर हो…इसीलिए तो हमने अब तक किसी रामलाल से शादी नहीं की।”3 इस तरह नायिका स्पष्ट शब्दों में विवाह संस्था को अस्वीकार करती है।
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि आज के युग में मनुष्य की मानसिकता में भारी बदलाव आ गया है। पूरे समाज में पाश्चात्य सभ्यता की पकड़ है , वर्तमान समाज में मुख्यतः पुराने ज़माने की तरह पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा धार्मिकता की मान्यता पर विवाह तय कर लिया जाता है। पहले से ही विवाह को एक पवित्र बंधन माना जाता रहा है, परन्तु आज स्थिति बदल गयी है, स्त्री-पुरुष अपने-अपने साथी खुद तय कर लेते हैं, लेकिन बुनियाद कमज़ोर होने के कारण दाम्पत्य सम्बन्ध में दरार उत्पन्न हो जाती है जिसके कारण तलाक की स्थिति पैदा हो जाती है।
ममता कालिया ने महज स्त्री-जीवन पर ही नहीं लिखा है, बल्कि जीवन की तमाम संवेदनाओं पहलुओं को भी अभूतपूर्ण ढंग से चित्रित किया है। स्त्री के अवलोकन बिंदु से स्त्री-जीवन की विविध समस्याओं को साहित्य में लेखिका ने अंकित किया है और आधुनिक युग में किस तरह रिश्ते बदल रहे हैं, विवाह एवं तलाक की समस्या उभर रहे हैं, इन सभी आधार को अपनी कहानी का विषय बनाया है।