जब से कोविड महामारी इस दुनिया में आई है, तब से बहुत कुछ परिवर्तित हो चुका है। नएपन के नाम पर विषाणु का नाम अपडेट होता जा रहा है। जब लगने लगता है कि अब सब कुछ पूर्ववत हो जाएगा, ठीक तभी ही यह नया नाम धर सामने आ जाता है। इस बार वर्ष के प्रारंभ होते-होते नया वैरिएंट ओमिक्रॉन भी अपने विकराल रूप की चेतावनी देने लगा है। हम इससे कितना डर रहे हैं, उसका उत्तर चुनावी जनसभाओं से लिया जा सकता है! जबसे यह सुना है कि यह भले ही तीव्रता से फैलेगा लेकिन इससे मृत्यु होने की आशंका न्यूनतम है, तबसे हम कुछ अधिक ही निश्चिंत हो बैठे हैं। जैसे बस जीवित ही तो रहना है, और क्या! महामारी बढ़े तो बढ़ती रहे! कुछ ने तो मास्क भी निकालकर फेंक दिए हैं।
इधर वैष्णो देवी परिसर में हुई दुर्घटना ने फिर वही प्रश्नचिह्न खड़े कर दिए हैं, जिनके उत्तर कभी नहीं मिलते! दुर्घटना होना, उच्च स्तरीय जाँच समिति का बैठना, मृतकों एवं घायलों को मुआवज़े की घोषणा तथा हादसे पर गहरे दुख की मरहम के साथ ही प्रत्येक किस्सा समाप्त हो जाता है। हम इससे क्या सीखे और सुधार के लिए क्या किया गया? यह सब सोचने का समय किसी के पास नहीं होता! मैं बार-बार कह रही हूँ कि हमारे जीवन की रक्षा , केवल और केवल हमारे हाथ में है। उसको बचाने की आशा किसी और से न रखिए! हर समस्या का समाधान, सरकार नहीं देगी। हमें स्वयं भी विचार करना होगा। हाँ, सरकार को किसी भी दर्शनीय स्थल, जहाँ हजारों-लाखों की भीड़ उमड़ती है, वहाँ के रास्तों को सुरक्षित बनाना चाहिए। आपको भी पता है कि भगदड़ से हुए हादसों की यह पहली कहानी नहीं है। एक लंबी सूची साथ चलती है। किसी के घर के एक सदस्य का गुजर जाना, पूरे परिवार का दुख होता है। इससे उबरना और नए सिरे से जीवन प्रारंभ करना आसान नहीं होता। खासतौर से वहाँ, जहाँ पर घर चलाने वाले एकमात्र व्यक्ति का ही निधन हो गया हो। मुआवज़ों से जीवन नहीं चला करता!
इधर राष्ट्रपिता के प्रति अपशब्दों का ऐसा फैशन चल पड़ा है जिसे सुनकर खून खौलने लगता है। बोलने वाले कहकर बचते आ रहे हैं, इसीलिए उनकी हिम्मत भी बढ़ रही है। इससे देश का क्या लाभ हो रहा है, पता नहीं! लेकिन इतना तय है कि अब हिन्दू-मुस्लिम के बीच वैमनस्यता बोने वाले लोगों को, ज़हर बेचने का एक और नया आसान तरीक़ा मिल गया है। बापू को बुरा बोलकर यदि कोई अच्छा महसूस कर रहा है तो उसे मानसिक चिकित्सक की आवश्यकता है। बापू और उनके अनुयायियों ने कभी यह नहीं कहा कि आप उन्हें मानें! मत मानिए! रखिए असहमति। लेकिन इससे आपका कुत्सित उद्देश्य पूरा होगा, इस भ्रम से बाहर निकल आइए।
गांधीगिरी, गांधी के विरोधियों की तरह अभद्रता और गाली-शास्त्र में विश्वास नहीं रखती। उसे अपनी बात रखने का सलीक़ा आता है। लेकिन इतिहास साक्षी है कि आप जिसका जितना विरोध करोगे, वह उतना ही ऊपर उठता चला आएगा। यही कारण है कि आज गांधी को मानने वाले लोग एक साथ सामने आ रहे हैं। गांधी को उतना पढ़ा जा रहा है, जितना पहले कभी न पढ़ा गया। बहरहाल, जिस गांधी को विश्व पूजता है, उस महात्मा का अपने ही देश में अपमान कर सुरक्षित निकल आना दुखद तो है पर इससे गांधी खत्म नहीं होते। वे अभी और भी गहरी स्मित मुस्कान लिए आपके सामने आ खड़े होंगे।
गांधी, इस देश की मिट्टी में हैं। हमारी जड़ों में हैं। जितना निकालने की कोशिश करेंगे, वे उतना ही और बहुगुणित होती रहेंगी। गांधी जी की प्रासंगिकता अंग्रेज़ों की गुलामी से मुक्ति तक ही सीमित नहीं थी। उनका लक्ष्य तो सत्य और अहिंसा के बीज जन-जन में बोना था। वे प्रेम और उत्तम व्यवहार से दिलों को जीत लेने की बात करते थे। उनके विचारों का विरोध, सत्य, अहिंसा, करुणा और प्रेम का विरोध है। देश की संस्कृति का विरोध है। यह राष्ट्रद्रोह है।
उम्मीद रखें कि यह वर्ष अभद्रता, अपराध, हिंसा, वैमनस्यता, स्वार्थ, ईर्ष्या से मुक्ति का वर्ष हो। निराशा और उदासी के पटाक्षेप का वर्ष हो। लेकिन यह उम्मीद तभी सार्थक होगी, जब हम स्वयं ऐसे बनें। जब समाज के सारे घटक सकारात्मक हो जाएंगे, तब ही सब कुछ संभव हो सकेगा। हमें दूसरों के प्रति उतना ही संवेदनशील रहना होगा, जितना हम दूसरों से अपने लिए अपेक्षा रखते हैं। हमें उसी भाषायी सभ्यता का परिचायक बनना होगा, जिसे हम स्वयं के लिए सुनकर सहज अनुभव करते हों। हमें उस प्रेमपूर्ण वातावरण को अपने आसपास निर्मित करना होगा, जिसमें हम जीना चाहते हैं। याद रहे, जीने का मतलब केवल साँसों का चलना भर नहीं होता!
नववर्ष आप सबके लिए मंगलकारी हो।