ज्योति मौर्य के किस्से का सच या झूठ जो भी हो लेकिन इस नाम से कुछ लोगों को स्त्रियों को कोसने का एक बहाना अवश्य मिल गया है। ये मात्र कोस ही नहीं रहे बल्कि यह भी इंगित कर रहे हैं कि जैसे उसके पति ने उसे पढ़ाकर कितनी बड़ी भूल कर दी। इसीलिए वे उस पुरुष को महान बताने से भी नहीं चूकते! लेकिन इस चरम आनंद में वे यह भूल रहे हैं कि गरीब माता-पिता भी पेट काटकर अपने बच्चों को शिक्षा देते हैं और अमीर माता-पिता भी अपने बच्चों को उच्च शिक्षा के लिए विदेश भेजते हैं लेकिन क्या इससे यह सुनिश्चित हो जाता है कि अब वे सभी बच्चे किसी प्रतिष्ठित नौकरी को पा ही लेंगे? नहीं, न! क्योंकि अंततः यह बच्चे की मेहनत और लगन तय करती है कि वह सफलता प्राप्त करेगा या नहीं। प्रायः बच्चों की दुनिया में उनकी अपनी पढ़ाई के लिए बहुत समय होता है और शेष सुविधाएं भी उनके साथ होती हैं। लेकिन एक विवाहित स्त्री के लिए यह सबसे बड़ी चुनौती है।
पढ़ना तो छोड़िए, घर-परिवार, ससुराल, मायका, सामाजिक दायित्व, घरेलू कार्य और बच्चों की स्कूली रेस में वह इतना खत्म हो चुकी होती है कि अपने शौक़ पूरे करने तक का समय उसके पास नहीं होता! हर स्त्री के जीवन में यह ‘वनवास’ आता है और वह इसे सहर्ष स्वीकारती भी है। बच्चों के बड़े होने के बाद वह अपने बचपन के सपनों को टटोलकर देखती है कि वे जीवित हैं या मृत हो चुके! जो जीवित हैं तो उन्हें गले लगा सजाने-संवारने की फिर एक कोशिश करती है हालांकि यह राह भी आसान नहीं और हर मोड़ पर उसे संघर्ष का सामना करना पड़ता है। इसलिए वे लोग जो इस खबर की आड़ में यह सिद्ध करना चाह रहे कि कुछ बनकर स्त्रियों के दिमाग खराब हो जाते हैं, वे जरा कुछ ‘महान’ पुरुषों के जीवन पर भी दृष्टिपात कर लें।
जी हाँ, पितृसत्तात्मक समाज में पुरुष तो सदा से ही महान रहा है। बड़े पद पर पहुँचने के बाद अपनी पत्नी को छोड़ने वाले ऐसे लाखों पुरुष मिल जाएंगे, जिनकी पत्नियाँ आज भी कहीं दूर गाँव में उनकी प्रतीक्षा कर रहीं हैं। उनके बच्चे और परिजन किस हाल में है, ये बड़े साब पलटकर पूछते तक नहीं!
कोसने वाला वर्ग उन पुरुषों की बात नहीं करता जो पढ़-लिखकर अपने माता-पिता को वृद्धाश्रम में छोड़ आते हैं या उन्हें घिसट-घिसटकर मरने को मजबूर कर देते हैं। जो अपनी पत्नियों के दिन रात घर में खटने के बाद रोज उसे कहते हैं कि “तुम सारा दिन करती ही क्या हो!” और ऐसे लोग हर क्षेत्र में भरपूर हैं। बड़े-बड़े पदों पर बैठे मिल जाएंगे। लेकिन इन्हें झुक कर सलाम किया जाता है। क्या मज़ाल कि इस संदर्भ में किसी के मुँह से एक शब्द भी निकल जाए!
हमारी पौराणिक गाथाओं में भी उन चरित्रों का महिमामंडन है जो अपनी पत्नी और इस सांसारिक दुनिया को त्याग महान बन पूजे जाने लगे। ये संसार की भलाई को निकले थे, मानवता की स्थापना को निकले थे इसलिए इनके यशोगान से मुझे कोई आपत्ति नहीं। मुझे किसी के यशोगान से आपत्ति नहीं! मुझे आपत्ति समाज के दोहरे चरित्र से है। एक तबका जो बराबरी की बात तो जोर-शोर से करता है लेकिन अवसर आते ही अपने भीतर का सारा ज़हर और दूषित मानसिकता उलीचकर रख देता है।
यहाँ स्त्री केवल इसलिए खटक रही है क्योंकि वह एक बड़े पद पर है। ये यही कहना चाहते हैं कि लड़कियों को ज्यादा मत पढ़ाओ, पत्नी को तो बिल्कुल नहीं! सामान्य लड़की होती, उसके पति ने उसे छोड़ा होता और वह दुख में डूब मर भी जाती, तब भी समाज को रत्ती भर अंतर नहीं पड़ता! क्योंकि पुरुष तो जब जी चाहे, रिश्ते से बाहर निकल सकता है। समस्या यह है कि एक स्त्री, पुरुष का त्याग कैसे कर सकती है! परेशानी ‘पद पर बैठी स्त्री’ से भी है।
कहानियाँ गड़ी जा रहीं कि पति ने ये किया, वो किया! कभी उन स्त्रियों के बारे में भी इतनी चिंता हुई है जो अपना मायका छोड़, तमाम स्वप्न लिए घर में आती हैं और फिर सारा जीवन खटकर, सब सहकर भी तिरस्कृत जीवन जीती हैं!
मजाक बनाकर रखा है। रोज एक नया चुटकुला उछाला जाता है। ऐसी खबरें भी आने लगीं कि उक्त घटना के कारण अब कई पतियों ने अपनी पत्नी को न पढ़ाने का निर्णय लिया है। यह एक निर्णय ही उन महानुभावों के सिर पर ‘महानता’ का मुकुट धर देता है। वे क्यों न लेंगे निर्णय, उनके लिए स्त्री एक वस्तु ही तो है। जिस पर उनका मालिकाना हक़ बनता है! समाज ने दे रखा है। लड़के गाली बोलते हुए भी अपना ‘सुशीलत्व’ बनाए रखते हैं। सजती, संवरती और हर बात में हाँ, जी कहने वाली स्त्री सबको सुंदर, संस्कारी लगती है। और यह उस स्त्री को भी मालूम है कि जैसे ही मुँह खोला और दिल की बात कही; सारा किस्सा खत्म! समझ रहे हैं न बात? “मैं करूँ तो .. कैरेक्टर ढीला है!”
आपको उस एक आदमी के लिए तो इतना बुरा लग रहा जिसकी पत्नी ने उच्च पद पर आने के बाद उसे छोड़ दिया लेकिन उन हजारों-लाखों घटनाओं पर उफ़ तक न निकली, जब पुरुष स्त्रियों को शारीरिक, मानसिक रूप से प्रताड़ित करते रहे, उन्हें अधमरा कर छोड़ते रहे! आप तो अभी भी चुप हैं जब ज्योति मौर्य के बहाने से पति परमेश्वरों के भीतर का पुरुष उन्हें आगे पढ़ने से रोक रहा है! अतः ध्यान रहे, बात ज्योति मौर्य की नहीं.. उसके सही-गलत होने की नहीं.. समाज के दोगलेपन की है। ‘बेटी पढ़ाओ’ के खोखले जयकारे वाले समाज में इस विषय पर कोई चर्चा नहीं कि उन लड़कियों की पढ़ाई की इच्छा मारी जा रही! उनके अधिकार का क्या हुआ? उन्हें न्याय कौन देगा? क्या इस अपराध के लिए उनके पतियों की नौकरी छीन ली जाएगी?
कुछ नहीं होगा न? पता है क्यों?
क्योंकि समाज को लड़कियों के आगे न बढ़ने से कोई समस्या ही नहीं!
वे चुप ही सही लगती हैं।
यही तो होना चाहिए!
स्त्रियाँ ऐसे ही तो ठीक रहती हैं!
चुप ही रहिए और मिलकर कहिए सब अच्छा है!