1.
क्या कहें, किस हाल में मारा गया है
न्याय अमृतकाल में मारा गया है
मालिकों के चाल में मारा गया है
शख़्स जो हड़ताल में मारा गया है
लड़ते-लड़ते प्यास की लंबी लड़ाई
हंस अपने ताल में मारा गया है
मन उलझ बैठा है अपनी ख्वाहिशों से
और इस जंजाल में मारा गया है
हर परिंदे को बताना है ज़रूरी
फँस गया जो जाल में मारा गया है
जो निडर होकर लड़ा वो जीत पाया
जो डरा हर हाल में मारा गया है
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2.
तमाम अनुभवों के सत्र बीत जाने पर
उतरता है नशा अंतिम पड़ाव आने पर
चमन के बीच में बेख़ौफ़ चहचहाने पर
परिंदे आ गये सय्याद के निशाने पर
किसी के शोर का एकांत भंग होता है
हमारे मौन के चुपचाप गुनगुनाने पर
न जाने कौन सी तरकीब ने लगाई आग
धुआँ उठा ही नहीं लकड़ियां जलाने पर
हवा में घोल दी किसने उदासियाँ इतनी
दिशाएँ चौंकती हैं मेरे मुस्कुराने पर
तबाहियों का फ़क़त सिलसिला ही है आगे
खड़े हैं हम यहाँ इक जंग के मुहाने पर
सुनेंगे बैठ के इक दूसरे की ख़ामोशी
कभी तो आईये मेरे ग़रीबखाने पर
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3.
जहाँ आधार घर का काँपता है
वहाँ गुम्बद का सीना काँपता है
मशीनें शोर करती हैं मुसलसल
मेरे हाथों का करघा काँपता है
हवाओं की सघन चुप्पी को सुनकर
शजर का पत्ता-पत्ता काँपता है
खड़ा होते ही प्रश्नों की सभा में
कथावाचक का लहजा काँपता है
कहीं से चीख उठती है किसी की
फटा कोई दुपट्टा काँपता है
ठिकाना जब उजड़ता है विहग का
बिखर के तिनका-तिनका काँपता है
अधूरी पेंटिंग सी क्यूँ है दुनिया
ख़ुदा का हाथ भी क्या काँपता है