विगत दो सालों से कोरोना ने भय, तबाही और मौत का ऐसा विकराल तांडव रचा है कि जीवन की गाड़ी कुछ इस तरह डगमग हुई, मानो सारा एलाइनमेंट ही बिगड़ गया हो। हर क्षेत्र विशेष पर इसका बहुत गहरा प्रभाव पड़ा है, तो शिक्षा व्यवस्था भला कैसे अछूती रहती? संपूर्ण आबादी का आधे से भी बड़ा हिस्सा विद्या ग्रहण कर रहा है।
महामारी के दौरान प्रारंभ की गई ऑनलाइन शिक्षा पद्धति लागू होने के बाद हमने हर ओर यही शोर सुना कि बच्चों की हालत पस्त हो गयी है। ऑनलाइन शिक्षण प्रक्रिया के द्वारा मानसिक तनाव बढ़ गये हैं। सच भी है! कितनी ही तकनीकी दिक्कतें, मानसिक थकान, चिढ़चिढ़ापन आदि का ताँता लगा रहा, जो अब तक भी ज़ारी है। इसी बीच बोर्ड परीक्षाओं के होने-ना होने की ऊहापोह और फिर परीक्षा परिणाम हेतु किस तरह अंकों का निर्धारण हो, इसकी खींचातानी अलग। आते साल के सीबीएसई बोर्ड एक्जाम की परीक्षायें भी दो भागों में बाँट दी गयी हैं, जिसमें पाठ्यक्रम की अभी तक कोई पुख़्ता जानकारी छात्रों व अभिभावकों को प्राप्त नहीं हुई है।
इतनी उलझनों के तानेबाने में दिक्कतें सिर्फ़ छात्र-छात्राओं या अभिभावकों के हिस्से का सामान बनकर ही नहीं रहीं बल्कि शिक्षक-शिक्षिकाओं ने भी उतने ही अनुपात में इस सबका सामना किया है। जिसका सिलसिला आज भी ज़ारी है। दोनों पक्षों के हाथों में महामारी द्वारा पकड़ाई गई मजबूरियों की टोकरी रही। हमने इस इश्यू का पॉपकॉर्न उछालते हुये ध्यान ही नहीं दिया कि-ऑनलाइन शिक्षण की ना तो पढ़ने वाले को आदत थी और ना ही पढ़ाने वाले को! यहाँ तक कि अनगिनत क्षेत्रों से जुड़े ऑफिस भी इसी ऑनलाइन व्यवस्था के भरोसे टिके रहे। वैसे इस क्रिटिकल समय से पहले तक तकनीकी का इस्तेमाल हर इंसान अपनी सुविधानुसार ही करता रहा है, सो वो भी एक समस्या रही।
अपने शहर,कस्बों-गाँवों से बाहर रहकर शिक्षा देने वाले व ग्रहण करने वाले शिक्षक और छात्र सब वापिस अपने-अपने घरों को कूच कर गये, तब तकनीकी ने विकट समस्या का रूप धर लिया,क्योंकि ऑनलाइन व्यवस्था में नेटवर्क नाम का ट्रंपकार्ड सबसे बड़ी शक्ति होती है। गाँव-देहात में ये शक्ति क्षीण पड़ गई। जिससे शिक्षा प्रक्रिया में बहुत से व्यवधान उत्पन्न हुये। कितनी ही बार ओनलाइन पढ़ाई में मन ना लगने पर छात्र-छात्राओं ने तकनीकी छेड़छाड़ के द्वारा शिक्षकों की नाक में दम किया। कैमरा ऑन होने की हिदायत पर भी जबरन कैमरे बंद कर के रखे गये, तो कभी वॉइस का बटन म्यूट/अनम्यूट के खेल का हिस्सा बनते दिखा।
अभिभावक होने के नाते हमने शिक्षा पद्धति की, बच्चों के स्ट्रेस की, अपने स्पेस तो कभी अपनी दिनचर्या की टाइमिंग की और नेटवर्क से जुड़े इश्यूज की शिकायत तो करी, परन्तु हम ये अनदेखा कर गये कि स्क्रीन के उस पार पढ़ाई के लिये निर्धारित एक-एक पल में कोई शिक्षक या शिक्षिका भी पूरी डेडीकेशन के साथ अपना वीडियो ऑन करके लगातार पढ़ाता रहा। वो खुद को बच्चों द्वारा इग्नोर किये जाने के बाबजूद भी उम्मीद लगाये रहा कि म्यूट बटन और वीडियो ऑफ करके भी बहुत से बच्चे ईमानदारी से पढ़ रहे हैं। वो बारम्बार विनय करता रहा कि- प्लीज वीडियो ऑन करिये, घर से आती अलग-अलग आवाज़ों को म्यूट करिये। दर्जन भर तकनीकी दिक्कतों के बाद भी वो अध्यापक पूरी श्रद्धा से लगे रहे अध्यापन में निरन्तर।
एकल परिवार व्यवस्था में रहती कितनी ही शिक्षिकाओं के पास भी बहुत छोटे बच्चे थे, जिन्हें लॉकडाउन और वर्क फ्रॉम होम के चलते संभालने हेतु कोई अन्य विकल्प नहीं था, वे तब भी अपने कर्म से डिगी नहीं। कितने ही शिक्षक स्वयं बीमारी का शिकार होकर संगरोध में रहकर विकट शारीरक व मानसिक कमजोरी के बाद भी जुटे रहे अपने कर्तव्य को पूरा करने में। अनगिनत परेशानियों के शिकार यदि छात्र और अभिभावक थे, तो वहीं उतनी ही वरन् उससे भी ज्यादा परेशानियों के शिकार शिक्षकगण भी थे।
वीडियो बंद करके बैठे ढ़ेरों छात्र पढ़ नहीं रहे, यह भान होते हुये भी वो शिक्षिक एक सकारात्मकता के साथ सिर्फ़ पढ़ाते रहे।विषयों की कक्षाओं के बीच का जो ब्रेक आपके बच्चों के लिये जितना उपयोगी था, उतना ही स्क्रीन के उस ओर बैठे शिक्षक के लिये भी था।
अब आप सब ये कहेंगे कि..इसमें क्या बड़ी बात है, ये तो उनका काम है, उनकी नौकरी है,जिसका उन्हें पैसा मिलता है।बिलकुल आप सही हैं कि इस नौकरी का उन्हें पैसा मिलता है, लेकिन सोचकर देखिये कि कितने ही विद्यालय हैं, जिन्होंने अपने स्टाफ को, उस आवश्यक फैकल्टी को वर्क फ्रॉम होम के दौरान वेतन आधा या आधे से ज्यादा दिया लेकिन कार्य पूरे वेतन जितना लिया गया।
इसके अतिरिक्त भी यदि शिक्षकों के उस अनुपात की बात करूँ, जिनके द्वारा बच्चों की पढ़ाई पर ध्यान ही नहीं दिया गया, या सिर्फ़ घास काटी गई! वो अनुपात बहुत कम ही रहा। उससे इतर बहुत से शिक्षकों ने वो भूमिका भी निभाई जिसका उन्हें वेतन संस्थानों द्वारा ना तो पहले कभी मिला, ना कोई एप्रीसिएशन मिला और ना ही कभी मिलेगा।
वो भूमिका थी इंसानियत की, जिसमें खुद घर-परिवार और नौकरी की जिम्मेदारियों के मानसिक तनाव के बाबजूद उन्होंने बच्चों की मेंटल हेल्थ को लेकर बातें करीं,चर्चायें कीं। किसी बच्चे की बहुत दिनों तक हुई अनुपस्थिति को नोटिस करके उसके अभिभावकों को फोन, व्हाट्सएप या ईमेल द्वारा संपंर्क साधा गया। उपस्थित होने पर बच्चे से पूछा कि “घर पर सब ठीक तो था?”
बीच-बीच में हम्बल रिक्वेस्ट के साथ सभी से सिर्फ़ पाँच-दस मिनिट को वीडियो ऑन कराये गये ये कहकर कि-“एक बार आप सबको देखना है कि आप सब भले-चंगे हैं या नहीं!” उन शिक्षकों के घर कोई बीमार हुआ,कोई पूरा हो गया या वो स्वयं इस राक्षसी वाइरस का शिकार होकर चुके तो उनकी काउंसलिंग या मेंटल हेल्थ को लेकर हमने तो कभी कुछ प्रयास नहीं किया।सिवाय इस घिसीपिटी सोच को मन में और गहरा करने के कि “उनका तो काम ही है,ड्यूटी है, तो करेंगे ही वो सब।”
कितनी ही दफ़ा अध्यापन समय से अलग शाम के समय बच्चों की मेंटल-हेल्थ को लेकर काउंसलिंग की गई। सोचकर देखिये कि इस सबका कोई वेतन उन शिक्षिकाओं और शिक्षकों को कोई संस्थान नहीं देता है। ये बस वो कनेक्शन भर था, जो इंसान का इंसान से होता है,जिसमें दिल से जज्बातों की महक आती है ना कि हरे-हरे खरखरे नोटों की।
हम स्वतंत्र हैं, अभिव्यक्ति की आजादी भी है। तो भला ये क्यूँ कर ज़रूरी ठहरा कि हम बस ज़हर उगलें एक सम्मानजनक क्षेत्र विशेष के प्रतिनिधियों के लिये?
बोलने से पहले क्या सोचना और मनन करना आवश्यक नहीं है?
नाकारा शिक्षकों के नगण्य अनुपात को अनंत कारगर, प्रतिबद्ध, ईमानदार शिक्षकों के अनुपात से ज्यादा भला कैसे आँका जा सकता है?
साहित्य समाज का दर्पण है तो ठीक वैसे ही शिक्षक समाज का निर्माता है।वो कुम्भकार हैं,जो हमारे कच्ची माटी के घड़ों को आकार देने,चिकना करने, पोतने और तपाने का काम करते हैं। फिर अपनी ही कृति से भला वो कैसे छेड़छाड़ करेगा।
पुरानी कहावत है कि-‘गेहूँ के संग घुन पिसता ही है’, पर हम घुना गेंहूँ फटक कर भी तो अलग कर सकते हैं…है ना!
शिक्षकों का अपमान नहीं सम्मान करिये। वो लगन और मेहनत के दम पर ही हमारे बालकों को पढ़ाकर धन अर्जित करते हैं। हर इंसान अपना घर एक विशेष रोजीरोटी से चलाता है तो अध्यापन रियल हो या वर्चुअल वो अपनी रोजी में पूरी तरह मेहनती भी है, सक्षम भी है और कर्तव्यनिष्ठ भी।
मनन करिये ऊपर लिखे प्रश्नों पर,बातों पर…सोचकर देखिये इसके पैसे थोडी ना लगेंगे,बस नज़रिया बदल जायेगा इस आवश्यक क्षेत्र विशेष के लिए। सम्मान दीजिये गुरु को उसके कार्य को, बिना ये भूले कि
“गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूँ पाँय
बलिहारी गुरु आपकी, गोविंद दियो बताय।”