स्मृति शेष: एक हिमनद बिछड़ गया!
हिमालय को ज़रा देखो, लिए पत्थर का मन-कोना
हमारे बीच है खाई, यहाँ अब और क्या बोना…..!
सुंदरलाल बहुगुणा के देह त्यागने के साथ ही जैसे एक हिमयुग का अंत हो गया। लेकिन वास्तव में देह तो उन्होंने दशकों पहले तब ही त्याग दी थी जब हिमालय और नदियों की अक्षुण्णता बनाए रखने और बांधों से उन्हें न जकड़ने की मांग को लेकर उन्होंने लंबे सत्याग्रह और उपवास किए। प्रकृति की ख़ातिर तभी वो विदेह हो चुके थे। अपने शरीर को कष्ट दे ये समझाने की कोशिश करते रहे कि कुदरत का कष्ट कहीं ज़्यादा बड़ा है, उसे जल्द समझा जाना चाहिए।
सुंदरलाल बहुगुणा का मानना था कि पेड़ों को काटने की अपेक्षा उन्हें लगाना हमारे जीवन के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है। इसलिए उन्होंने 1970 में गढ़वाल हिमालय में पेड़ों को काटने के विरोध में आंदोलन की शुरुआत की। इस आंदोलन का नारा – “क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार। मिट्टी, पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार” तय किया गया था। पर्यावरण के क्षेत्र में वो एक व्यक्ति नहीं बल्कि विश्वव्यापी विचार बन चुके थे। सुंदरलाल बहुगुणा ने जो आगाह किया वो सामने दिखने लगा। हिमालयी क्षेत्रों में आए दिन आ रही विपदाएं उनकी दी हुई समझदारी से नज़र फेरने का ही नतीजा हैं।
देश में हुए कई पर्यावरण संरक्षण आंदोलनों विशेषकर वनों के संरक्षण में महिलाओं ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उदाहरण के लिये जोधपुर, राजस्थान में 1730 के आस-पास अमृता देवी विश्नोई के नेतृत्व में लोगों ने राजा के आदेश के विपरीत पेड़ों से चिपककर उनको बचाने के लिये आंदोलन चलाया था। इसी आंदोलन ने आज़ादी के बाद हुए चिपको आंदोलन को प्रेरित किया, जिसमें चमोली, उत्तराखंड में गौरा देवी सहित कई महिलाओं ने पेड़ों से चिपककर उन्हें कटने से बचाया था।
26 मार्च 1974 में चमोली जिला में जब ठेकेदार पेड़ो को काटने के लिए पधारे तब ग्रामीण महिलाएं पेड़ो से चिपक कर खड़ी हो गईं। परिणामस्वरूप तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 15 साल के लिए पेड़ो को काटने पर रोक लगा दिया। चिपको आंदोलन की वजह से बहुगुणा विश्व में वृक्षमित्र के नाम प्रसिद्ध हो गए
दक्षिण भारत में भी चिपको आंदोलन की तर्ज़ पर 1983 में ‘अप्पिको आंदोलन’ शुरू हुआ। 38 दिनों तक चलने वाले इस आंदोलन में भी उत्तरी कर्नाटक के गाँवों में महिलाओं ने पेड़ों को गले लगाकर उनकी रक्षा की थी। नर्मदा बचाओ आंदोलन और साइलेंट वैली आंदोलन में भी महिलाओं ने सराहनीय भूमिका निभाई है।
सुंदरलाल बहुगुणा पेड़ों को बचाने के लिए पेड़ों का आलिंगन करने वाली पीढ़ी के एक नायक थे। विश्व विख्यात पर्यावरणविद होने के साथ ही बहुगुणा एक स्वाधीनता सेनानी, एक सर्वोदयी, एक पत्रकार और महान समाजिक क्रतिकारी थे। विश्व को पर्यावरण का नया दर्शन दिया। स्वर्गीय. बहुगुणा को सामान्यतः दुनिया भर में वनों और खास कर पर्यावरण के प्रति चेतना जागाने वाली महान हस्ती माना जाता है। शुरू में उन्होंने वन श्रमिकों के पक्ष में गैरगढ़ बन क्षेत्र में शस्त्र पूजा भी की, लेकिन बाद में उनको वृक्षों के प्रति इतना मोह जागा कि वह वृक्ष मानव ही बन गए। यद्यपि चिपको आंदोलन का श्रीगणेश जिला चमोली के सीमान्त क्षेत्र रेणी में चण्डी प्रसाद भट्ट, कॉमरेड गोवन्द सिंह रावत एवं आलम सिंह बिष्ट आदि की प्रेरणा से गौरा देवी और उनकी ग्रामीण सहेलियों ने 24 मार्च 1974 में कर दिया था। लेकिन प्राण वायु देने वाले वृक्षों को बचाने वाले रेणी गांव के उस संदेश को दुनिया के कोने-कोने तक पहुंचाने में सुंदरलाल बहुगुणा ने जो भूमिका अदा की वह असाधारण थी। उन्होंने पेड़ों के लिए ही नहीं, बल्कि इस धरती पर प्रकृति की हर एक कृति की आवाज बन कर उन्हें मनुष्य की हवश से बचाने का प्रयास किया। वह बहुगुणा के जीवन का एक पक्ष था, जबकि उनकी भूमिका समाज के लिए बहुपक्षीय थी। सुंदरलाल बहुगुणा, वे भारतीय जन आंदोलन के सबसे बड़े नायक रहे।
देश जब अग्रेजों की गुलामी से छटपटा रहा था, तब सुंदरलाल कम उम्र में ही आजादी के आंदोलन में कूद पड़े। टिहरी रियासत में बरा-बेगार जैसी कुरीतियों और प्रजा की आवाज का दमन करने के कारण राजशाही के खिलाफ भड़के जन विद्रोह में उन्होंने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया। बहुगुणा टिहरी की राजशाही के खिलाफ निर्णायक लड़ाई लड़ने वाले टिहरी प्रजामण्डल के सचिव भी रहे। प्रजामण्डल के आंदोलन के दौरान उन्हें 7 महीनों तक टिहरी जेल में रखा गया। सत्ता के बजाय संघर्ष चुना बहुगुणा ने। 01अगस्त 1949 को टिहरी राज्य के आजाद भारत के संयुक्त प्रांत में विलय के बाद सुंदरलाल बहुगुणा ने सक्रिय राजनीति से जुड़ कर सत्ता का सुख भोगने के बजाय बिनोवा भावे के सर्वोदय आंदोलन से जुड़ कर समाज की बुराइयों के खिलाफ लड़ने और समाज को नई दिशा देने का बीड़ा उठाया। वह सन 1952 तक कांग्रेस से जुड़े रहे। सुंदरलाल बहुगुणा को राजनीति से विरक्ति तब से शुरू हो गई थी, जबकि वह टिहरी राज्य की विधान परिषद के चुनाव हार गए थे।
बहुगुणा ने वर्ष 1971 में शराबखोरी के खिलाफ भी आंदोलन छेड़ा। सोलह दिन तक अनशन किया। इस दौरान वह 3 बार जेल गए। इस अभियान में उनकी पत्नी विमला बहुगुणा सहित महिलाओं की भागीदारी प्रमुख रही। बिनोवा के भूदान आंदोलन की सफलता के बाद बहुगुणा ने पहाड़ की महिलाओं को उनके कष्टों से मुक्त कराने के लिए भी आंदोलन चलाया। यद्यपि शुरू में वह टिहरी बांध के समर्थक रहे लेकिन बाद में वह खिलाफ हो गए उन्होंने बांध के खिलाफ 3 बार भूख हड़ताल की। भविष्य में बांध के खतरों से उत्तराखंडवासियों को जागरूक करने एवं सरकार को सद्बुद्धि दिलाने के लिए 1995 में उन्होंने 74 दिन तक उपवास भी किया। उन्हें कई बार पुलिस पकड़ कर जेल में भी डालती रही मगर वह अपने उद्देश्य से टस से मस नहीं हुए। ऋषिगंगा की बाढ़ और धौली गंगा और बहुगुणा की चेतावनियाँ हाल ही में चिपको की जन्मस्थली रेणी गांव में ऋषिगंगा और धौली गंगा में बिजली प्रोजेक्टों से आई भयंकर बाढ़ ने सुंदलाल और चण्डी प्रसाद भट्ट की बिजली प्रोजेक्ट के प्रति आशंका सही साबित हुई है।
बहुगुणा जी को हिमालय की मिट्टी, पहाड़ों की गहरी जानकारी थी, इसलिए वे बड़े बांधों विरोधी थे। उनका मानना था, जंगलविहीन पहाड़ रोज दरक रहे हैं। एक बांध सौ साल जल दे सकता है फिर सौ साल बाद क्या ? जल और नदियों को बचाना है तो हिमालय को वनाच्छादित करना ही होगा। इसी कारण टिहरी बांध का विरोध ताउम्र किया। लोगों में मिट्टी, पानी और बयार के संरक्षण के प्रति जागृति लाने कश्मीर से कोहिमा तक यात्रा की, पूरे उत्तराखंड का भ्रमण किया। थे। हिमालय और वहां के रहवासी दोनों के सहअस्तित्व के लिए वे चिंतित रहते थे।
विशेषज्ञों एवं प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार जल दोनों की पहाड़ियों के नीचे जा रहा है और अब तो पार्श्ववर्ती पहाड़ियाँ नीचे धंसने लगी है और उसमें दरार भी आ गई है। यह सारे ही लक्षण हिमालय के विनाश की सूचना दे रहे हैं। सरकार दृष्टिहीन एवं मूक बनी रही। जब उस भयानक कुकृत्य को रोकने के लिए सरकार पर प्रभाव डाला जाता था तो वहां से जो उत्तर आता था वह किसी स्वस्थ मस्तिष्क का परिचायक नहीं होता था। सरकार का मानना है कि इस कार्य पर बहुत अधिक रुपया किया जा चुका है इसलिए अब रोकना उचित नहीं है, जो मूर्खतापूर्ण ही नहीं बल्कि बौद्धिक दिवालियेपन की प्रतिक है। वास्तविकता यह है कि इस बांध तथा अन्य बांधों के निर्माण की योजना प्रकृति के कोप को आमंत्रित करने वाली है। यह गंगा का विनाश अत्यंत हानिकारक होगा।
यही नहीं, इस प्रकार से गंगा के विनाश के साथ ही उत्तराखंड एवं हिमालय का विनाश कर हिंद महासागर एवं अरब सागर से उठने वाला मानसून को रोककर समस्त उत्तर भारत, पूर्वोत्तर प्रदेश तथा पश्चिम प्रदेश; यहां तक की संपूर्ण भारत को मानसून-वृष्टि के द्वारा हरा-भरा बनाने वाले तथा जीवन प्रदाता हिमालय का विनाश करने वाले लोग भयंकर राष्ट्र घातक कहे जा सकते हैं; क्योंकि हिमालय के विनाश से भारत का पूर्ण भूभाग मरुभूमि में परिणत हो जाएगा। अपने संतानों की जीवन की रक्षा एवं विश्व-पर्यावरण की सुरक्षा के लिए हिमालय की प्राणभूत गंगा का विनाश करना अक्षम्य अपराध है। हिमालय और हिमालयी प्रकृति और प्रवृति के इस दर्द को समझा हिमालय के छोटे से गाँव के सामाजिक कार्यकर्ता सुंदरलाल बहुगुणा ने।
वे ऐसे पर्यावरणविद् थे जो आम आदमी की भाषा बोलते। हजारों जन समस्याओं को सत्ता की चौखट तक ले जाते। सहज थे पर संकल्प में वज़ की तरह कठोर। आम आदमी को अपनी बात गजब ढंग से समझा देते। सत्ता के खिलाफ गांधीवादी तरीके से लड़ने का हथियार भी सर्वग्राह्य था। सारे विश्व के जल, जंगल, जमीन के लिए संघर्षरत मानवता की गूढ़ समझ रखते थे। बहुगुणा उन लोगों में से नहीं थे, जो कि धारा के साथ बह कर ख्याति अर्जित करते हैं। उनमें शुरू से ही धारा के विपरीत चलने का माद्य रहा। इसीलिए कई बार उन्हें जनाक्रोश का सामना भी करना पड़ा। टिहरी बांध के मामले में भी उन्हें कई बार बांध समर्थकों, ठेकेदार और संस्कृति के उपासकों का विरोध झेलना पड़ा
उनका संघर्ष हिमालय जल, जंगल के साथ यहां के लोगों की अन्योन्याश्रियता को सहज बनाने के लिए था। इस संघर्ष में उन्हें बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, पर वे सही माउंटेन मैन थे। हिमालय पुत्र के रूप में वे प्रवाह के विरुद्ध चलने में निपुण थे।
सुंदरलाल बहुगुणा को 1985 में जमनालाल बजाज पुरस्कार / 1986 में जमनालाल बजाज पुरस्कार / 1987 में राइट लाइवलीहुड पुरस्कार (चिपको आंदोलन) / 1987 में शेर-ए-कश्मीर पुरस्कार / 1987 में सरस्वती सम्मान/ 1989 में आइआइटी रुड़की द्वारा सामाजिक विज्ञान के डॉक्टर की मानद उपाधि दी गई। 1998 में पहल सम्मान / 1999 में गांधी सेवा सम्मान / 2000 में सांसदों के फोरम द्वारा सत्यपाल मित्तल अवॉर्ड / 2001 में पद्म विभूषण से सम्मानित कर संस्थाएं एवं राष्ट्र खुद को गौरवान्वित महसूस किया।
यह हमारा दायित्व है कि हम गंगा समेत अन्य सभी नदियों को प्राकृतिक रूप में बहने दें तथा उसके प्राकृतिक रूप में प्रवाहमान स्थिति में जो कुछ अपना सहयोग कर सकते हैं, करें। गंगा बचेगी तो हिमालय बचेगा और हिमालय बचेगा तो भारत बचेगा। गंगा का विनाश हिमालय का विनाश है और हिमालय का विनाश आर्यावर्त राष्ट्र का है और तब हम यह कैसे कह पाएंगे कि हमारे देश की उत्तर दिशा में पर्वतराज हिमालय है जो पृथ्वी के मानदंड सदृश है।
आज हिमालय को देखने का एक ख़ूबसूरत नज़रिया चला गया, उम्मीद करें कि वो नज़रिया जाने से पहले हमारी आंखों में अपनी कुछ चमक छोड़ गया हो। प्रकृति को देखने का हमारा नज़रिया कुछ बेहतर कर गया हो हिमालय से बिछड़े इस विराट हिमनद को कोटिश कोटिश नमन।