‘वसुधैव कुटुम्बकम’ (दुनिया एक परिवार) के विचार को कायम रखते हुए भारत 11वीं सदी के के वैष्णव संत रामानुजाचार्य की उनकी 1,000वीं जयंती को ‘समानता के त्योहार’ के रूप में मना रहा है। इस पुण्य अवसर पर देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने उनके सम्मान में 5 फरवरी 2022 को हैदराबाद में 216 फीट ऊंची Statue Of Equality की मूर्ति राष्ट्र को समर्पित वैष्णव संत को ये बड़ा सम्मान दिया जा रहा है।
जानकर आश्चर्य होगा कि इस प्रतिमा का 9 अंक से गहरा संबंध है। 216 के अंकों को आप जोड़ेंगे तो 2+1+6 बराबर 9 होगा। साथ ही 54 फीट ऊंचे आधार भवन, जिसका नाम ‘भद्र वेदी’ है इसे भी जोड़ने पर 5+4 जोड़ेंगे तो पूर्णांक 9 ही आता है। उनके जन्म वर्ष (1017) का भी योग निकालेंगे तो 1+0+1+7 बराबर 9 निकलता है। उनके हाथ में दंडी भी 63 फीट की है। उनकी पीठ 54 फीट की है। वे जिस जगतरूपी कमल पर विराजमान हैं, वह 36 पत्तियों वाला है। सभी का योग मूल अंक 9 ही निकलता है। 9 को पूर्ण अंक कहा जाता है और सनातन परंपरा में इसे शुभ अंक भी माना जाता है।
बताया गया है कि Statue Of Equality बैठी हुई मुद्रा में दुनिया में दूसरी सबसे ऊंची मूर्ति है। यह प्रतिमा ‘भद्र वेदी’ नाम की 54 फीट ऊँची इमारत पर स्थापित है। इसे एक हजार करोड़ की लागत से तैयार किया गया है। इसको बनाने में सोना, चांदी, तांबा, पीतल का भरपूर इस्तेमाल किया गया है। मूर्ति के अलावा 63,444 वर्ग फुट क्षेत्र के भूतल में एक विशाल एक वैदिक डिजिटल पुस्तकालय और अनुसंधान केंद्र, प्राचीन भारतीय ग्रंथ, एक थिएटर तथा श्री रामानुजाचार्य के कई कार्यों का विवरण देने वाली एक शैक्षिक गैलरी आदि शामिल हैं, जहां पर संत रामानुजाचार्य का पूरा जीवन देखने को मिलेगा।
जानकारी ये भी मिली है कि संत रामानुजाचार्य की मूर्ति के पास में सभी देशों के झंडे लगाए जाएंगे। ऐसा करने के पीछे मंशा ये है कि संत रामानुजाचार्य ने अपने पूरे जीवन में कभी भी जाति-धर्म-रंग के नाम पर कोई भेदभाव नहीं किया था। इस खास मौके पर पीएम मोदी ने अपने संबोधन के दौरान विस्तार से संत रामानुजाचार्य के विचारों के बारे में बताते हुए उन्हें ज्ञान का सच्चा प्रतीक माना है, जोर देकर कहा है कि वे कभी भी भेदभाव नहीं करते थे। वे हमेशा यही चाहते थे कि सभी का विकास हो, सभी को सामाजिक न्याय मिले।
भारतवर्ष पर सैकड़ों वर्षों से ही अनगिनत आक्रमण होते आ रहे थे, ऐसा ही एक दौर था आज से लगभग हजार वर्ष पूर्व, जब भारत की अस्मिता पर आँच आई थी। विदेशी आक्रांताओं के अत्याचार, लूट-पाट और भय से मनुष्य का मन निराशा से भर उठा था। इन विषम परिस्थितियों से जनमानस में वैचारिक क्रांति को प्रस्फुटित करने और जनकल्याण के कार्य के लिए पुण्यधरा पर कई ऐसे ऋषियों, संतों और आचार्यों ने जन्म लिया है, जिन्होंने अपनी तपस्वी, बौद्धिक और आध्यात्मिक शक्तियों से मनुष्य के मन के वैचारिक प्रदूषण को हटाकर उसे प्रभु भक्ति की अदम्य शक्ति से परिचित करवाया है। इन महान संतों, दार्शनिकों और आचार्यों में रामानुजाचार्य की गणना प्रमुख रूप से होती है उन्होंने भक्ति को एक आदर्श के रूप में प्रस्तुत कर उसके लिये दार्शनिक आधार प्रदान किया। सामाजिक परिप्रेक्ष्य में रामानुजाचार्य ने भक्ति को जाति और वर्ग से मुक्त तथा सभी के लिये संभव बनाया। वेदांत के अलावा सातवीं-दसवीं शताब्दी के रहस्यवादी और भक्ति मार्गी आलवार संतों से भक्ति के दर्शन को तथा दक्षिण की भक्ति परंपरा को उन्होंने अपने विचार का आधार बनाया।
दक्षिण भारत के तमिल नाडु राज्य के श्रीपेरुमबुदुर नामक ग्राम में सन 1017 ई. में एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे रामानुजाचार्य को माता कांतिमती तथा पिता केशव उसे लक्ष्मण कहकर पुकारते थे। वह बालक भक्ति का ऐसा बीज बोता है जिससे जनमानस में सांस्कृतिक क्रांति, चेतना और जागृति हो जाती है। छोटी उम्र में पिता को खोने के बाद बालक परिवार सहित कांची जाकर ‘यादव प्रकाश’ से वेदांत की शिक्षा ग्रहण करता है।
वैष्णव आचार्यों में रामानुजाचार्य की शिष्य परंपरा में ही रामानंद थे, जिनके शिष्य कबीर और सूरदास हुए। रामानुज ने वेदांत दर्शन पर आधारित अपने दर्शन विशिष्टाद्वैत वेदांत को स्थापित किया। छोटी अवस्था में ही उनके पिता केशव भट्ट का निधन हो गया। वे तमिलनाडु के तेरुकुदूर क्षेत्र में वास करते थे। रामानुजाचार्य ने कांची में यादव प्रकाश नामक गुरु से वेदाध्ययन की शिक्षा पायी, लेकिन उनकी बुद्धि इतनी कुशाग्र थी कि वह अपने गुरु की व्याख्या में त्रुटि निकाल उसका निवारण करते। परिणामतः इनके गुरु ने उन पर प्रसन्न होने के बजाए ईर्ष्यालु हो उनकी हत्या की योजना बनायी, लेकिन भगवान की कृपा से एक शिकारी और उसकी पत्नी ने उनके प्राणों की रक्षा की।
रामानुजाचार्य बडे विद्वान, सदाचारी, धैर्यवान और उदार थे। चरित्र बल और भक्ति में अद्वितीय योग सिद्धियां भी उन्हें प्राप्त थीं। वे श्रीयामुनाचार्य की शिष्य परंपरा में थे। शास्त्रों के अनुसार जब श्रीयामुनाचार्य ने मृत्यु को निकट आते देखा तब एक दूत द्वारा शिष्य रामानुजाचार्य बुलवाया, लेकिन उनके पहुंचने के पूर्व ही श्रीयामुनाचार्य की मृत्यु हो गयी। वहां पहुंचने पर उन्होंने देखा यामुनाचार्य की तीन उंगलियां मुड़ी हुई थीं। रामानुजाचार्य ने समझ लिया कि श्रीयामानुचार्य इनके माध्यम से ब्रह्मसूत्र, विष्णु सहस्त्रनाम और आलवारों के दिव्य प्रबंधम की रचना करवाना चाहते हैं। उन्होंने श्रीयामुनाचार्य के मृत शरीर को प्रणाम किया और कहा कि भगवन ! मैं आपकी अंतिम इच्छा को अवश्य पूरा करूंगा।
अकस्मात ही वह बोल पड़ा, “मैं ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखूंगा” और इतना कहते ही गुरु यमुनाचार्य की एक उंगली खुल गई। उसने और ऊँचे स्वर तथा दृढ़ निश्चय के साथ दो और प्रण किए की वह ‘श्रीविष्णु सहस्रनाम’ और ‘दिव्य प्रबंधम’ पर भी टीका लिख अपने गुरू की इच्छा और साथ ही समस्त मानव जाति का कल्याण करेंगे। इसके पश्चात ही बाकी दो उंगलियां भी खुल गई। कार्य अत्यंत ही दुष्कर था परन्तु दृढ़ संकल्प, विराट इच्छाशक्ति, आत्म विश्वास और गुरु के आशीर्वाद से यह कार्य पूर्ण हुआ और लक्ष्मण से श्रीपाद स्वामी रामानुजाचार्य तक का सफर भी तय हुआ।
समाज में उन्होंने जातिगत ऊंच-नीच और झोपडी-महल के बीच समानता के लिये संवाद स्थापित किया। कठोर धार्मिक-क्रियाओं को लोगों के लिये सरल और सहज बनाया। डॉ. रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में लिखा कि सामाजिक समता की दिशा में तत्कालीन उच्च कुल जहां तक जा सकता था, आचार्य रामानुज वहां तक जा कर रुके। उनके संप्रदाय ने लाखों को निम्न कुल और अंत्यजों को अपने मार्ग में लिया और उन्हें वैष्णव-विश्वास से युक्त किया तथा रामानुजाचार्य को उनके आचरणों को धर्मानुकूल बनाया और उच्च कुल के नियंत्रणों की अवहेलना भी नहीं की।
भक्ति सिद्धांत को मजबूत शास्त्रीय आधार प्रदान कर उसके वेद प्रतिपादित करने की सर्वप्रथम स्थापना रामानुजाचार्य ने की। उनके भक्ति सिद्धांत ने मनुष्य मात्र के लिये ईश्वर प्राप्ति के लिये सभी दरवाज़े खोल दिये। यह घोषणा की कि कोई व्यक्ति इसलिये ऊंच या नीच नहीं हो सकता कि उसका जन्म किसी कुल या जाति में हुआ है। उसकी श्रेष्ठता तो ईश्वर के बताए मार्ग पर चल कर ही पा लेने से सिद्ध होती है। इसके लिये सदाचरण ज़रूरी है। यह निर्विवाद है कि रामानुजाचार्य को भक्ति धारा को चौदहवीं सदी में स्वामी रामानंद उत्तर भारत में ले आये। उन्होंने भक्ति की सर्वजन सुलभता को आगे बढाया। कबीर तथा रैदास जैसे संत स्वामी रामानंद के भक्ति आंदोलन की उदारता के कारण ही उनसे जुड़े। इतना ही नहीं, रामानुजाचाचार्य के भक्ति सिद्धांत प्रेरित होकर अन्नमाचार्य, मीराबाई, नरसिंह मेहता, भक्त रामदास, त्यागराज और तुलसीदास आदि प्रसिद्ध संत कवि भी उनसे जुडे, जिससे भक्ति का पूरे देश में प्रसार हुआ।
मनुष्य को समानता पर बल देते हुए उन्होंने जाति व्यवस्था की भत्सर्ना की। उनकी भक्ति का मुख्य केंद्र कांची और श्रीरंगपट्टननम था। उनके तेजस्वी विचारों से चोल प्रशासन नाराज़ हो गया, जिससे वह स्थान छोडना पड़ा। रामानुज भगवान की प्रधानता और शक्ति को स्वीकार करते उनकी मान्यतानुसार जिस प्रकार मनुष्य को ईश्वर की आवश्यकता है। उसी प्रकार ईश्वर को भी मनुष्य की आवश्यकता होती है। ईश्वर अपने में से व्यक्तिगत आत्मा का निर्माण करते हैं और पुनः वह आत्मा ईश्वर में विलीन हो जाती है। रामानुजाचार्य के इसी मत को विशिष्टाद्रैतवाद कहा जाता है। उनके मतानुसार आत्मा ईश्वर की तरह है, जो हूं उसी में से ही निकली हुई है न कि उसका अलग जन्म हुआ है।
भक्ति के प्रचार प्रसार के लिये उन्होंने पूरे भारत की यात्रा की। जनोद्धार के प्रति वह कितने समर्पित थे। उसे इस प्रसंग से समझा जा सकता है। रामानुजाचार्य गुरु गोष्ठीपूर्ण यहां से लौट रहे थे। उनसे गुरु मंत्र पाने के लिये वह 17 बार उनके पास जा चुके थे। इस बार गुरु ने उनकी भक्ति से प्रभावित हो वह मंत्र उन्हें दे दिया, लेकिन मंत्र देने के पूर्व शर्त रखी कि उसे वह अपने तक ही रखेंगे। यह मंत्र अद्भुत कल्याण करने वाला मंत्र है। उसे गुप्त रखना है। रामानुज के निज और जन के बीच द्वंद चल रहा था। श्रीरंगम पहुंचते पहुंचते रामानुज की सारी उधेड बुन खत्म हो गयी। उन्होंने निश्चय किया कि उसे अपने तक नहीं रखेंगे भले ही इससे गुरु को दिया हुआ प्रण तोडना पड़े। अगले दिन लोगों को मंदिर में इकट्ठा होने के लिये कहा। वह मंदिर के गोपुरम पर चढ गये और ज़ोर-ज़ोर से उस मंत्र को जन जन के हवाले कर दिया। वह मंत्र है -ऊं नमो नारायणः। स्वाभाविक है इससे उनके गुरु गेष्ठीपूर्ण नाराज़ हो उनसे मिलने श्रीरंगस आये व रामानुज को भला बुरा कहा, तब उन्होंने कहा महाराज सचमुच मैंने पाप किया है, प्रतिज्ञा तोडी है, पर अगर एक पाप से तमाम लोगों का उद्धार हो सकता है, तो उस पाप का प्रायश्चित करने के लिये मैं तैयार हूँ। इस महान विचार, त्याग की भावना और करुणामयी हृदय के आगे गोष्ठिपूर्ण नतमस्तक हो जाते हैं, ग्लानि से भर उठते हैं और रामानुजाचार्य को अपना गुरु स्वीकार कर लेते हैं।
वैष्णव मत के चार आचार्य प्रसिद्ध हैं, उनमें रामानुजाचार्य पहले हैं। उसके बाद माध्वाचार्य, वल्लभाचार्य और निंबक॑चार्य आते हैं। रामानुज ने जब देखा कि गृहस्थी में रह कर भक्ति प्रसार के उद्देश्य को पूरा करना कठिन है तब गृहस्थाश्रम को त्याग दिया। भक्ति मार्ग को बढावा देने के लिये गीता और ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखे। वेदांत सूत्रों पर उनका भाष्य श्री भाष्य के नाम से प्रसिद्ध है। उनके द्वारा चलाये गये संप्रदाय का नाम भी श्रीसंप्रदाय है। भक्ति प्रसार के लिये भारत भ्रमण यात्रा के दौरान अनेक स्थानों पर जीर्ण-शीर्ण हो चुके पुराने मंदिरों का भी पुनर्निर्माण करवाया, जिनमें प्रमुख हैँ श्रीरंगम, तिरुनारायणपुरम और तिरुपति। उनके सिद्धांतानुसार भगवान विष्णु ही पुरुषोत्तम हैं। वे ही प्रत्येक शरीर में साक्षी रूप में विद्यमान हैं। भगवान नारायण ही सत हैं और उनकी शक्ति महालक्ष्मी है और यह जगत उनके आनंद का विलास है। भगवान लक्ष्मीनारायण इस जगत के माता पिता हैं और सभी जीव उनकी संतानें हैं।
शास्त्रों के अनुसार रामानुजाचार्य प्रतिदिन नदी पर स्नान करने जाया करते थे। जब वे स्नान करने जाते तो एक ब्राह्मण के कंधे का सहारा लेकर जाते और लौटते समय एक शूद्र के कंधे का सहारा लेते। वृद्धावस्था के कारण उन्हें सहारे की ज़रूरत है इसे सभी जानते समझते थे, लेकिन जाते समय ब्राह्मण और लौटते समय शूद्र का सहारा सबकी समझ से परे था। लोग उन पर टिप्पणियां देते नदी स्नान कर शुद्घि के बाद अपवित्र शूद्र को छूने से स्नान का महत्व भला क्या रह जाता है? यह देख एक पंडित से रहा न गया। उसने रामानुजाचार्य से पूछ ही लिया प्रभु! आप स्नान करने आते हैं तो ब्राह्मण का सहारा लेते हैं लेकिन स्नान कर लौटते समय शुद्र का सहारा लेते है। क्या यह नीति के विपरीत नहीं है? यह सुन कर आचार्य ने कहा भाई ! मैं शरीर और मन दोनों का स्नान करता हूं। ब्राह्मण का सहारा ले कर आता हूं और शरीर का स्नान करता हूं, किंतु तब मन का स्नान नहीं होता क्योंकि उच्चता का भाव पानी से नहीं मिटता, वह तो स्नान कर शुद्र का सहारा लेने पर ही मिटता है। ऐसा करने से मेरा अहंकार धुल जाता है और सच्चे धर्म के पालन की अनुभूति होती है। इसे सुन पंडित की आंखें खुल गयी और उसने उनके चरण स्पर्श किये।
रामानुजाचार्य ने 9 ग्रंथों की रचना की जिन्हें नव रत्न कहा जाता है। वह हैं श्रीभाष्यम, गीता भाष्यम, वेदांत दीप, वेदांत सार, वेदार्थ संग्रह, गद्यत्रयम, भगवदगीता भाष्य, आराधना ग्रंथ और नित्य ग्रंथम। इनमें सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ श्रीभाष्यम है। कहा जाता है कि उन्हें भाष्यकार की उपाधि से भी सम्मानित किया गया। तभी से उन्हें भाष्यकार रामानुजाचार्य के रूप में भी जाना जाता है। 16 वर्ष की आयु में ही उन्होंने सभी वेदों तथा शास्त्रों का ज्ञान पा लिया उनकी धारणानुसार प्रभु आराधना सर्व शक्तिशाली है। शास्त्रानुसार पृथ्वी का पहला मानचित्र हमारे देश में बना और उसे रामानुजाचार्य ने ही बनाया अपने सभी ग्रंथ संस्कृत में लिख भक्ति को दार्शनिक रूप प्रदान किया। इस जगत में 120 वर्ष का वास करने के बाद सन 1137 में वह ब्रह्मलीन हो गये।
ऐसे तेजस्वी, समदर्शी दिव्यात्मा की सहस्राब्दी में सम्मान स्वरूप विश्व की दूसरी सबसे बड़ी बैठी हुई मूर्ति, “स्टैच्यू ऑफ इक्विलिटी” का अनावरण भारतीय सांस्कृतिक क्रांति और चेतना का आगाज़ है।