[धृतराष्ट्र(जनता) को संजय(पत्रकार) द्वारा दिव्य-दृष्टि से बताए कुछ शब्द-चित्र]
अद्य भारत : कुछ शब्द चित्र
धृतराष्ट्र उवाच:
कहो संजय, कुछ तो बताओ
हो क्या रहा है,
इस अद्य-भारत में आज?
संजय उवाच:
क्या कहूँ, सम्राट! बिना अस्त्र-शस्त्र,
मचा है फिर महाभारत विश्व में.
भारत भी आया है उसकी चपेट में.
बिना तीर तलवार के,
बिना किसी प्रहार के,
मर रहे लाखों की तादात में लोग
विश्व के सभी देश में.
लाखों करोड़ों बैठे हैं.
भयभीत से स्व कैद में.
त्राहिमाम की ध्वनि गूंज रही,
देश-विदेश में.
कोरोना और पौरुष का
भीषण युद्ध चल रहा जन जन में.
सभी एक दूजे से भयाक्रांत हैं.
संशय की दृष्टि से आक्रांत हैं.
मानव जिसकी पहुँच हो गई थी,
मंगल, चंद्रमा तक,
मानव, जिसने प्रकृति को भी
वश में कर लिया था,
मानव, जिसने बना लिए थे क्लोन भी,
जुटा लिए थे, सभी ऐश्वर्य के उपकरण,
आकाश- पाताल की
जिसने पा ली थी थाह,
आज विवश सा हो गया है
इस छोटे से कोरोना के समक्ष.
कौरवों की ही भांति कोरोना भी,
हावी हो गया है पुरुषार्थ पर सम्राट!
धृतराष्ट्र उवाच:
हूँ, यह तो होना ही था संजय एक दिन तो,
पांडवों की ही भांति,
मानव भी दंभी जो हो गया था.
उन्होंने तो केवल एक इंद्र प्रस्थ ही बनाया था,
पर इसने तो प्रकृति का कर दोहन,
समस्त विश्व को इंद्र प्रस्थ बनाने की ठानी थी.
संजय उवाच:
भारतवासी सभी आ गए इनकी चकाचौंध में,
भूल गए अपनी सभ्यता- संस्कृति ,
रंग गए पश्चिम के ही रंग में.
कोरोना के आक्रमण ने
अब दे दी है इन्हें पटखनी,
अब ढूंढ रहे अपने वेदों को,
खोज रहे पुरानी औषधि,
जो दिला सकें कोरोना से उद्धार.
पर देख रहा हूँ मै सम्राट,
नहीं भारत वासी निराश,
अपनी गलतियों का कर रहा निराकरण
इनके रथ का सारथी आज भी है आध्यात्म.
अर्जुन सा नेता भी है इनके पास,
जो बनाए रख रहा है सबका मनोबल.
इसीलिए, जहाँ विश्व में है बौखलाहट,
मर रहे हैं लाखों की संख्या में लोग,
वहाँ बचा पा रहा है, यह लाखों के प्राण.
देह-दूरी बनाए रखकर भी सबने
कोस्मिक किरणों से
अन्तर्जाल का कर प्रयोग
सामाजिक मिलन को कम न किया,
विद्वानों ने लाइव प्रसारण कर
समय का सदुपयोग भी किया.
आयुर्वेद को फिर से याद किया
उसमें बताए का काढों का उपयोग किया.
पर विदेशी नहीं रख पा रहे हैं जहाँ संयम,
तोडकर बंदिशें सभी निकल रहें हैं
घर के बाहर,
नहीं छोड़ पा रहे, तन मन का मोह,
पागलों की तरह कर रहे हैं व्यवहार,
वही सब कोविड 19 से बैठे हैं हार.
वहाँ लाशों को
दफनाने की लगी है कतार.
नहीं वहाँ समर्थ सरकार,
करने में लगी है व्यापार.
संजय उवाच:
शांति,
प्यार,
अहिंसा,
सहिष्णुता,
इन शब्दों को
चीरती हुई,
चली जा रही है,
दन-दना-दन गोलियाँ,
अंधाधुंध,
यहाँ तक कि
अबोध बालिकाओं को भी ना छोड़ा.
धृतराष्ट्र उवाच:
आह! क्या अहिंसा,त्याग, सेवा,
परोपकार की भावना नहीं रही लोगों में?
हे संजय ! जानना चाहूँगा विस्तार से मैं ।
संजय उवाच:
त्याग,
सेवा,
परोपकार,
सम्मान,
आदि शब्द,
अब आते नहीं नज़र।
न जाने कहाँ दुबके बैठे हैं,
स्वार्थ,
दिखावे,
शोर-शराबे की
दादागिरी से डर कर।
आज की पीढ़ी,
इन्हें पहचानती ही नहीं है।
जो दिखता है,
यह उसी को पहचानती है.
किताबों में बिखरे
इन शब्दों के अर्थ,
पढ़ने वाले बच्चे पूछते हैं।
पर सब, नि:शब्द हैं,
क्योंकि इनके जीवित उदाहरण
आज किसी के पास नहीं।
धृतराष्ट्र उवाच:
ओह! नारी अस्मिता और बालकों की रक्षा
है, परमधर्म इंसान का,
क्या हो रहा इनका भी हनन ?
संजय उवाच:
कुछ चीखें,
बच्चियों की,
गूँज गई…
दसों दिशाओं में,
टकरा कर
लौट आई…..फिर
दस गुनी होकर..
पर,
कोई असर नहीं,
उस पशुत्व पर
जो छिपा हुआ है
आदमी के अन्दर।
नारी अस्मिता
विकलांग हो,
घूम रही दर-ब-दर,
न्याय की गुहार लगाती.
पर आवाज़ का दम ,
रह गया है घुट कर,
झूठी सहानुभूति की,
परतों में.
धृतराष्ट्र उवाच:
कैसी बातें कर रहे हो संजय!
हो क्या रहा है अद्य भारत में आज?
संजय उवाच:
इंसान के
हाथ-पैर,
सिकुड़ कर,
समा गए हैं,
कार और मोबाइल में.
खामोशी को,
ओढ़ते हुए लोग,
रेंगते जा रहे हैं,
अपने ही माया-जाल में.
एक बड़ा सा जाल
बनाने का भ्रम पाले,
कहीं उलझते हैं,
कहीं छटपटाते हैं,
विकास की खुशफहमी लिए,
बढ़ रहे हैं आगे
या रहे हैं पिछड़?
कहा नहीं जा सकता.
धृतराष्ट्र उवाच:
प्रतिनिधि हमारे क्या कर रहे हैं राष्ट्र हेतु ?
संजय उवाच:
वे भ्रमित हैं,
गड़े मुर्दे,
उखाड़ रहे हैं वे लोग,
बा-मुश्किल जो,
पाटी गईं थी वो
खाइयाँ’
उन्हें फिर से
खोदने के
किए जा रहे हैं,
प्रयास .
सत्ता के मद में
‘दशानन’ बने,
नेता,
नहीं जान पा रहे,
कर अपहरण
वे सत्य की सीता का।
कर रहे किस तरह आमंत्रित
स्वपतन.
पैसों के तराजू,
होते जा रहे हैं,
बड़े और बड़े.
शून्य होती संवेदनाएँ,
फुटबॉल की तरह,
राजनेताओं के पैरों से
इधर-उधर लुढ़क रही हैं,
देख रहे हैं पांडव भी जिन्हें खड़े-खड़े.
यद्यपि
मिल रही हैं,यद्यपि
दिशाएं,
एक-दूसरे से,
फिर भी दिलों में दूरियाँ,
हैं बहुत.
धृतराष्ट्र उवाच:
उफ़! लेकिन आचार्य, मनीषी और साहित्यकार
तो दे रहे होंगे एक नई दृष्टि?
संजय उवाच:
साहित्य की वीथियों में,
उग आएं हैं,
झाड़-झंकाड़.
चोरी, लूटपाट,
यहाँ भी हो रही दिन-रात.
मुखौटों का बढ़ गया निर्माण,
खून के आँसू रो रहा
असली साहित्यकार.
सब आपस में
एक दूसरे की पीठ थप-थपाकर
ले रहे-दे रहे
एक-दूजे को मान-सम्मान,
इनाम-इकरार.
लेकर कोई एक ज्वलंत विषय
लिख रहे हैं भेड़-चाल.
मौलिकता कहीं बैठी है दुबकी,
नकलचियों की तो बस ‘बस’ चल निकली.
साहित्य का चलन अब
अनोखा हो रहा है,
खंडकाव्य-महाकाव्य तो,
पुस्तकालयों में सो रहा है.
ई-बुक को लोग अपना रहे हैं,
पुस्तकों को रद्दी में बेच
पैसा कमा रहे हैं.
‘सत्यम, शिवम्,’ की भावना से
रचा साहित्य लोगों को उबा रहा है,
केवल सुन्दरम ही लोगों को लुभा रहा है.
लोगों को घायल करने की उम्मीद में
हास्य-व्यंग्य के तीर हवा में छोड़े जा रहे हैं,
कुछ निशाने पर लगे तो लगे,
शेष अखबारों में बिछे जा रहे हैं.
कुछ मीडिया में मुखर हो,
हास्य के नाम पर चुटकले सुनाए जा रहे हैं.
कुछ विदेशों में हिन्दी प्रसार-प्रचार के बहाने,
दुनिया निहार आँखें ठंडी
और जेबें अपनी गर्म कर रहे हैं.
आचार्य और मनीषियों की यहाँ तो कोई सुनता नहीं,
बस विदेशों में वर्चस्व जमाने की लगी है होड़.
विदेशी देशी बन यहाँ रहते हैं,
भारत की सभ्यता-संस्कृति पर करते हैं शोध
शायद है उन्हें इनके महत्त्व का बोध.
धृतराष्ट्र उवाच:
हूँ , शायद ये विदेशी ही इन्हें हमारे
विस्मृत जीवन मूल्य सिखा जाएं
इनकी क्या है स्थति अब ?
संजय उवाच:
क्या कहूं अब सम्राट!
ईमानदारी,
सच्चाई,उदारता,
भाईचारा,परोपकारिता
आदि शब्द
बंधकर रह गए हैं पोटली में,
भ्रष्टाचार, अत्याचार,
व्याभिचार, अनाचार,
शोषण, प्रताड़ना,
अपमान.
बस इन्हीं शब्दों का फैला साम्राज्य,
वाकपटु तो बने हैं सभी प्रतिनिधि,
बन सम्राट ले रहे निर्णय,
मचा रहे उत्पात।
धृतराष्ट्र उवाच:
यह भला कैसे संभव ?
सम्राट तो हम हैं.
संजय उवाच:
नि:संदेह आप हैं,
पर आप देख नहीं सकते,
जो कानों में आपके रस घोल देते हैं,
आप उसी प्रतिनिधी को सत्ता सौंप देते हैं.
आप देख नहीं पाते उन चालाक निगाहों को,
जो आपको देने के बहाने
आपके ही सामने अपना घर रहते हैं भरते.
मायने बदल गए हैं अब
आपकी दी हुई आज़ादी के,
अब उसका अर्थ निरंकुशता हो गया है.
अनुशासन के नाम पर भी अब
भय और दंड ही रह गया है.
देख रहे सभी मूक बने,
मुद्रा का हो रहा चीर हरण
दुष्शासन कर रहा मंहगाई का वरण.
ताला पड़ा है सभी के मुँह पर,
नारी-अस्मिता लगी दाँव पर.
फिर से महाभारत का
हो रहा है आगाज़.
हे! जनता जनार्दन,
हे! धृतराष्ट्र.
धृतराष्ट्र उवाच:
ओह! संजय,
कह रहे हो क्या?
पुन: महाभारत..नहीं, नहीं,
करना होगा कुछ…
मेरी विवशता को भी तो समझो
हे! संजय ,
नहीं क्या कोई
योग्य उत्तराधिकारी हमारे पास?
संजय उवाच:
हे! जनता जनार्दन,
आपको ही अब होगा संभलना,
अपने बंद चक्षुओं का करवाना होगा इलाज,
सही उत्तराधिकारी को होगा पहचानना आज .
तटस्थ भाव से, बिना किसी प्रलोभन के
आपको अपने चक्षु और ज्ञान-चक्षु
दोनों से होगा देखना
इस अद्य भारत को .
दोहराना नहीं है,
उस युग का संताप.
जागें-जागें आप.
हे! भारत भाग्य विधाता, जागें जागें,
हे! जन-गण-मन अधिनायक, जागें
आप जागें, भारत भविष्य जागे
जय-जय,जय-जय जय है।