साहित्य जीवन और जगत् की आलोचना है। समाज और देश के सामाजिक और सांस्कृतिक चिंतन में साहित्य की विशेष भूमिका होती है। साहित्य समाज की चेतना में साँस लेता है। उसमें विशाल मानव-जाति की आत्मा का स्पन्दन ध्वनित होता है। वह जीवन की व्याख्या करता है, इसीलिए वह पूर्णतः मानव केन्द्रित है। सामाजिक समस्याओं, विचारों तथा भावनाओं का जहाँ वह स्रष्टा होता है, वहाँ वह समाज का दर्पण कहलाता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि साहित्यकार अपने लेखों या रचनाओं के माघ्यम से अपनी भावना को व्यक्त करते रहे हैं। साहित्यकार का व्यक्तित्व उसके साहित्य साधना में निहित होता है। साहित्य का मुख्य उद्देश्य सही मायनों में किसी भी व्यक्ति को मानवता का पाठ पढ़ाना है। जब हम किसी भी इन्सान को मानव बनाने की बात करते हैं, तो हमारा तात्पर्य होता है कि उस व्यक्ति में सभी मानवीय गुण उपलब्ध कराए जाएं जो मानवीयता के आधार हैं। साहित्य वो विवेक पैदा करता है जो इन्सान को सही-गलत की पहचान करवाता है। कथनी व करनी में समानता स्थापित करने के साथ ही उसे बनाए रखने की प्रेरणा भी साहित्य देता है। किसी भी व्यक्ति में इन गुणों को उपलब्ध करवाने की क्षमता रखने वाला साहित्य ही उत्कृष्ट साहित्य की कोटि में आता है। उत्कृष्ट साहित्य की रचना में साहित्यकार ने जिन आदर्शों से काम लिया है उनमें लोक धर्म का आदर्श सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। इस लोकधर्म का संबंध हिन्दी साहित्य से विशेष है।
डॉ. दिविक रमेश जी अपने लेखों या रचनाओं के माघ्यम से अपनी इसी भावना को व्यक्त करते रहे हैं। उनमें हिंदी और हिन्दी साहित्य के प्रति गहरी निष्ठा हैं, जिसके कारण हिन्दी भाषा के प्रति उनमें विशेष सजगता देखी गई है। बहुत कम लोग होते हैं जो जीते-जी विभूति बन जाते हैं। एक आम आदमी के सतह से शिखर तक की बेजोड़ मिसाल हैं डॉ. दिविक रमेश। लोक चेतना के प्रतिनिधि साहित्यकार डॉ. दिविक रमेश जी को यह समझने में कोई भूल नहीं हुई कि सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा और उसका विकास चिर-परिचित परंपरा में ही निहित है। परंपरा से दिविक जी का आत्यंतिक जुड़ाव ही उन्हें विविध विधाओं के प्रयोग के लिए उकसाता है। उन्होंने अपनी इस बहुमुखी-बहुरंगी प्रतिभा से साहित्य की विभिन्न विधाओं को रंगिमा प्रदान की है, लेकिन इनमें सर्वाधिक चटक रंग बाल साहित्य पर चढ़ाया है। उन्होंने अपनी प्रखर प्रतिभा से साहित्य की अनेक विधाओं को समृद्ध किया है। इनके व्यक्तित्व के बारे में डॉ. प्रकाश मनु का कथन है-‘दिविक बेशक उन शक्तिशाली और लोकप्रिय बाल कवियों में से हैं, जिन्होंने मौजूदा दौर में न सिर्फ हिंदी कविता के पाट को चौड़ा करके उसे आधुनिक बनाया, बल्कि साथ ही उन्होंने बहुतेरे नए नए जंगम प्रयोंगों से गुजरी नए नए मूड्स वाली बाल कविताएं लिखकर इधर की हिंदी बाल कविता को अधिक दिलचस्प, मनोरंजक और सयाना बनाया है।’
दिविक जी का जन्म(1946), हरियाणा की सीमा से लगे दिल्ली के एक गाँव किराड़ी में हुआ। उनके पिता पं चंद्रभान एक लोकगायक एवं प्रभावी व्यक्तित्व के स्वामी थे। उन्होंने उच्च शिक्षा (एम.ए.हिन्दी,पीएच.डी.) दिल्ली यूनिवर्सिटी से हासिल की। उनमें साहित्य-रचना के बीज बचपन से ही विद्यमान है। उन्होंने 12-13 वर्ष की आयु में लिखना आरम्भ किया। घर के सात्विक एवं सुरूचिपूर्ण वातावरण, साहित्य के प्रति उनका अगाध निष्ठा व श्रद्धा, उनकी साहित्य-रूचि और प्रतिभा को परिमार्जन किया है। जीवन में संयम, साधना, शील और मर्यादा के वे प्रतीक है। और इसी का प्रतिफलन उनके बाल साहित्य में दृष्टिगोचर होता है। भाव-तन्मयता और अभिव्यक्ति में दिविक जी की बाल साहित्य को सर्वदा एक नया भावभूमि पर प्रतिष्ठित कर देते हैं। उनके प्रमुख बाल साहित्य है- काव्य संग्रहः जोकर मुझे बना दो जी(1980), हँसे जानवर हो हो हो(1987), कबूतरों की रेल(1988),छतरी से गपशप(1989), तस्वीर और मुन्ना(1997), अगर पेड़ भी चलते होते(2003), मेघ हंसेंगे ज़ोर-ज़ोर से(2003), खुशी लौटाते हैं त्योहार(2003), अगर खेलता हाथी होली(2004) 101 बाल कविताएँ (2008), खूब ज़ोर से आई बारिश(2009), समझदार हाथी-समझदार चींटी(136 कविताएँ)(2014), बंदर मामा (2015)। कहानी-संग्रहः धूर्त-साधू और किसान(1984), सबसे बड़ा दानी(1992), शेर की पीठ पर(2003),बादलों के दरवाजे(2003), शेर की पीठ पर(2003), ओह पापा(2003), बादलों के दरवाजे (2003), त से तेनालीराम ब से बीरबल(2007),गोपाल भांड के किस्से(2008), बोलती डिबिया(2010), देशभक्त डाकू(2011), लू लू की सनक(2014), अपने भीतर झाँको(2014), बचपन की शरारत(2016) तथा बल्लूहाथी का बालघर(बाल नाटक, 2012)। बड़ों के लिए, उनके प्रमुख काव्य रचनाएँ है- रास्ते के बीच(1977,2003), खुली आँखों में आकाश (1983, 1987,1989), हल्दी चावल और अन्य कविताएँ(1992), छोटा सा हस्तक्षेप(2000), फूल तब भी खिला होता(2004), गेहूँ घर आया है(2009), वह भी आदमी तो होता है(2010), बाँचो लिखी इबारत(2012) तथा माँ गाँव में है(2015) तथा खण्ड-खण्ड अग्नि(काव्य- नाटक,1994)।
दिविक जी की आलोचना साहित्य मानवीय संवेदनाओं का सार्थक कोलाज़ हैं। उनके प्रमुख आलोचना रचनाएँ है- साक्षात त्रिलोचन(1990), नए कवियों के काव्य-शिल्प सिद्धांत(1991), कविता के बीच से(1992), संवाद भी-विवाद भी(2008), समझा-परखा(2015) तथा हिंदी बाल साहित्य-कुछ पड़ाव(2015)। उनकी आलोचना यथार्थ को विवेक से जोड़कर समकालीन मानवीय स्थिति के अहसास को प्रांसगिक और गहरा बनाती है। वे अपने समय का साक्ष्य होने के साथ अपने समय में हिस्सा लेती है, जूझती उलझती है और इस तरह अपने अनुभव को एक सर्जनात्मक सार्थकता तक ले जाती है।
दिविक जी का साहित्यिक व्यक्त्वि एक ईमानदार साहित्यकार का है, जो हमेशा अपने अथक परिश्रम द्वारा हिन्दी साहित्य जगत को एक नई सोच तथा नई दिशा दी है। उनकी साहित्य मौन को स्वर देती हैं, अपने परिवेश से प्रभावित होती हैं। उनकी जीवन दृष्टि यथार्थवादी है। इन्होंने यथार्थ का वर्णन सामाजिकता के आधार पर ही किया। उनका रचना पक्ष जितना सुदृढ़ है उनका संपादन पक्ष भी उतना ही प्रबल है। उनके द्वारा जो संपादित कार्य हुए हैं, वह इस प्रकार हैं- हिंदी कहानी का समकालीन परिवेश(1980), आन्सम्बल (1992), निषेध के बाद(1999), बालकृष्ण भट्ट(2009), प्रताप नारायण मिश्र(2012), दिशा बोध(1978,1980) तथा दूसरा दिविक आदि।
दिविक जी पारदर्शी और संघर्षधर्मी व्यक्तित्व के स्वामी है। मधुरता, सहजता, उदारता, मिलन सारिता, कलाप्रियता आदि उस अनुपम व्यक्तित्व के कुछ चटक रंग है। समाज की उन्नति के ताने-बाने से साहित्य बुनने वाले उनके साहित्य में समाज की अनुकूलताओं और प्रतिकूलताओं का हृदयस्पर्शी चित्रण है। उन्होंने समाज के बाधक तत्वों पर यत्र-तत्र तीखा व्यंग्य कर उन्हें सुधारने और समाज को शिक्षा देने का प्रयास किया। इनकी साहित्य मानवतावादी विचारों के उज्ज्वल भावों की संवाहक हैं, भाव और शिल्प की दृष्टि से अप्रतिम हैं। उन्होंने अनुवाद, कहानी, कविता, लोककथाएँ, लघुकथा, आत्यीय संस्मरण, बाल-साहित्य लगभग सभी विषयों पर अपनी लेखनी चलाई है। इनका भाषा-सौष्ठव बहुत ही उत्तम श्रेणी का है। उन्होंने अपने भोगे हुए जीवन व जीवनानुभावों को पूरी सहजता और ईमानदारी से साहित्य में प्रस्तुत करते है, वह जीवन की समस्याओं और कठिन परिस्थितियों से पलायन नहीं करते, और न ही घबराते है, बल्कि डटकर सामना करते है। हृदय स्पर्श करती इनका साहित्य कथ्य व शिल्प की दृष्टि से अत्यंत सशक्त है। इनके साहित्य में भारतीय संस्कृति की झांकी प्रस्तुत होती है।
साहित्य, सामाजिक सरोकारों का ही प्रतिफल है। ‘सामाजिक’ का अर्थ- समाज से जुड़ा होना है। ‘सरोकार’ का अर्थ- प्रयोजन, वास्ता, पहलु, संदर्भ, आयाम, सम्बन्ध तथा परिणाम आदि से है। प्रत्येक साहित्यकार समाज का एक अंग है। समाज की परिस्थितियों के साथ उसका भावात्मक सरोकार होता है। साहित्यकार समाज के प्रति जितना अधिक संवेदनशील होता है, उसका सामाजिक सरोकार उतना ही गहरा होता है। समाज और साहित्य का मौलिक सम्बन्ध है। साहित्य जब-जब सामाजिक संदर्भों से जुड़ता है, वह जनमानस के लिए प्रेरणादायी बनता है, क्योंकि सामाजिक संदर्भ से किसी वस्तु का आकलन किया जाता है। समाज ही बालक को एक सुसंस्कृत मनुष्य बनाता है। इस दृष्टि से लिखा गया साहित्य ही सफल बाल साहित्य होगा। विश्व के बाल साहित्य के इतिहास पर दृष्टि डालने से यह बात स्पष्ट हो जाती है, कि शिक्षा-क्षेत्र के महान विचारकों ने ही बाल साहित्य को जन्म दिया है, इसे पल्लवित- पुष्पित किया हैं तथा समय-समय पर नई दिशा दी है। बाल साहित्य हमारे समस्त साहित्य का मूल है, हमारी संस्कृति का मुख्य स्रोत भी। बालक समाज का महत्वपूर्ण अंग है। उनके अभाव में समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। बालक में मनुष्य के सभी गुण होते हैं, जो धीरे-धीरे उसकी अवस्था के अनुसार विकसित होते हैं। बाल साहित्य बालक को सच्चा नागरिक बनाने में अच्छी तरह सहायता करता है। बाल साहित्य जहाँ बच्चों की रुचि की संतुष्टि करता है, वही उसमें जीज्ञासा शांत करने की भी क्षमता होती है। आज का बालक कल्पनालोक में विचरण करने के बदले यथार्थ में जीना चाहता है। इसलिए यथार्थ साहित्य पढ़ना बालक ज्यादा पसंद करता है।
दिविक जी की बाल साहित्य में सामाजिक चेतना का प्रमुख स्वर उभरता है। इनमें घर-परिवार, रिश्ते-नाते, शोषण, गरीबी ही नहीं, त्रासद-विसंगतियाँ, छल जैसे कितने ही मुद्दे शामिल दिखाई देते हैं। उनकी साहित्य में समकालीन यथार्थ जीवन का चित्रण दिखाई देती है, और इसीलिए सामाजिक सरोकारों का अनुभव होती है। यही वजह है कि वे आज भी बेहद जनप्रिय हैं। समाज में जो अराजकता, अव्यवस्था विद्यमान है, वह एक न एक दिन जरूर खत्म होगा। उनकी कृतियाँ बाल साहित्य के धरोहर के रूप में मानी जातीं हैं। उन्होंने बाल साहित्य के माध्यम से भारतीय संस्कृति के सांस्कृतिक पक्ष को उभारने के लिए भरसक प्रयास किया है। अतः दिविक जी के बाल साहित्य में निहित मानव मूल्य, समाजोपयोगी और जनोपयोगी है। जैसे फूल तमाम दिशाओं से हवा ग्रहण करता है किंतु खिलता अपनी शर्तों पर है, उसी तरह से दिविक जी भी अपनी शर्तों पर जीने और बाल साहित्य को अपनी दृष्टि देकर उसका विकास करने वाले कवि एवं साहित्यकार हैं। उनका व्यक्तित्व बहुरंगी प्रतिभा सम्पन्न तथा एक संघर्षरत व्यक्ति का व्यक्तित्व है, जो हमेशा साहित्य में प्रगति करते हुए दिखाई दिए।