माँ में गुरु, गुरु में माँ,
मातरम् नम: गुरवे नम:।
कभी-कभी मन के बिछावन में यह विचार बार-बार करवट लेने लगता है कि क्यों कहा गया है गुरु को माँ, और क्यों माँ को पहला गुरु कहा गया। इस विचलित विचार से सोच की चौखट पर अनेक तर्क-वितर्क बिना दस्तक ही चले आते हैं। अंदर ही अंदर द्वंद्व मच जाता है कि क्या यह सच है कि गुरु के सम्मान में झुके तो माँ को सम्मान मिला और माँ की आज्ञा का पालन किया तो गुरु -ज्ञान मिला।
‘गुरु’ शब्द में ‘गु’ का अर्थ है ‘अंधकार’ और ‘रु’ का अर्थ है ‘प्रकाश’ जिसमें ‘अंधकार’ पहले आता है फिर ‘प्रकाश’। इस प्रकार गुरु का शाब्दिक अर्थ हुआ ‘अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला’ अर्थात ‘मार्गदर्शक’। ‘मार्गदर्शक’ का आशय है रास्ता दिखाने वाला। रास्ता:- रास्ता ज्ञान का, आदर्श का, मूल्यों का, व्यवहार का या फिर रास्ता जीवन का, क्योंकि आदर्श, मूल्य, करणीय-अकरणीय, व्यवहार जीवन की विधि हैं। मात्र ‘गुरु बिन ज्ञान न होई’ में उपर्युक्त सभी प्रकार के ज्ञान स्वयं समाहित हो जाते हैं विशेषकर जब हम जीवनमार्ग के ज्ञान की बात करते हैं। प्रश्न कौंध जाता है कि गुरु को माँ के समान क्यों बताया गया। सोच-विचार और समझने की बात है कि जिस तरह हर माँ अपने बच्चे में एक आदर्श मनुष्य के गुण भरना चाहती है, जिसके लिए वह समय-समय पर उन्हें डाँटती-फटकारती है, जिस डाँट-फटकार में बच्चे को सुधारने की भावना ही निहित होती है उसी प्रकार कबीर जी के अनुसार गुरु ‘भीतर हाथ सहार दे, बाहर बाहे चोट’ की रीति द्वारा अपने शिष्यों को दोषमुक्त कर जीवन के उचित मार्ग की ओर निर्देशित करता है।
माँ जीवन देती है, और जीवन का अर्थ गुरु द्वारा प्राप्त ज्ञान से समझ आता है। अपनी संतान को सही मार्ग पर अग्रसर करना माँ के अनवरत कार्यों में प्रथम स्थान पर आता है। जीवन दान के साथ ही अपने वातावरण से सामंजस्य स्थापित करने का पहला ज्ञान माँ ही शिशु को देती है। तब माँ गुरु की भूमिका में और शिशु; शिष्य की। कदाचित यही कारण है कि शिशु और शिष्य शब्द में वर्णात्मक व ध्वन्यात्मक समानता है। ‘शिशु’ वह जिसने अभी जीवन धारण किया है, ‘शिष्य’ वह जिसने जीवन को उत्कर्ष की ओर ले जाने का निश्चय धारण किया है। अपने बालक के सर्वांगीण विकास तथा सर्वोत्तम जीवन के लिए माँ स्वयं गुरु की भूमिका अदा करते हुए उत्कृष्ट गुरु की तलाश कर शिशु-शिष्य को तराश-सँवारकर आदर्श मनुष्य बनाने का कार्य गुरु के हाथ में सौंप देती है जो माँ का ही एक वृहद उत्तरदायित्व है। अत: गुरु को माँ का संज्ञान दिया गया है और माँ को गुरु का।
प्रेरणा के मृदु बीज हैं उस शक्ति से भरकर
अंकुरित हो जाते हैं सख्त पाषाण फोड़कर
दृढ़ इच्छाशक्ति तो काँटों में राह बना लेती है, रेगिस्तान में झरने बहा देती है, गर्मियों में रिमझिम फुहार और समुद्रों पर पुल बना देती है। किंतु यह महत्वाकांक्षा पैदा कैसे होती है? प्रश्न कठिन है, परंतु उत्तर आसान है… प्रेरणा से, अभिप्रेरणा से !!! यद्यपि अनुकूल प्रेरणा का समयोचित मिल जाना सरल नहीं। हमारे ही आस-पास के कितने ही मनुष्यों अथवा प्राणियों से प्रेरणा ली जा सकती है, किंतु जब सच्ची प्रेरणा अंतर्मन की गहराइयों में पैठ जाती है तो हमारे जीवन को संपूर्णतया बदल देती है, जीवन के लक्ष्य को बदल देती है और हमें उन्नति के मार्ग पर अग्रसर करती है।
अधिक दूर जाने की आवश्यकता नहीं, मेरी प्रेरणा है मेरी माँ, श्रीमती शारदा रानी, जो नाम व काम दोनों से ही विद्या की देवी ‘सरस्वती’ का पर्याय हैं। हालाँकि युगों-युगों से माएँ तो सर्वश्रेष्ठ प्रेरणास्रोत सर्वदा मानी जाती रही हैं फिर भी जिन दुष्कर परिस्थितियों से संघर्ष कर मेरी माँ ने अपनी शिक्षा अर्जित की, वे किसी-किसी विशिष्ट सोने के टुकड़े को ही कुंदन बना पाती हैं। मेरी माँ वह दमकता हीरा हैं जिसने अपने व्यक्तित्व के प्रकाश से अपनी संतान को ही नहीं अपितु बहुत से बाल-बालिकाओं को मार्ग-दर्शन कराया। उनके जीवन की कठिन परीक्षा की कथा जब मैंने अपने बचपन में सुनी तो आँखें नम व हृदय विचलित हो गया। तब से उनके प्रति श्रद्धा से नतमस्तक मैं अद्यतन उनके आदर्शों और पदचिह्नों पर चलने का प्रयास कर रही हूँ।
विद्या प्राप्ति के लिए उन्होंने पुस्तकें, विद्यालय शुल्क का अभाव तथा माता-पिता की कमी, संबंधियों की निष्ठुरता किसी को बाधा नहीं बनने दिया, छात्रवृत्ति की कृपा और ईश्वर पर विश्वास कर सदा आगे कदम रखा। उनका विवाह, फिर हम भाई-बहन का जन्म तथा नौकरी; सभी के साथ उन्होंने अपनी शिक्षा की धारा को रुकने नहीं दिया और आज सेवानिवृत्ति के बाद भी वे अपना समय साहित्य और धार्मिक पुस्तकों के अध्ययन में व्यतीत करती हैं। उनकी प्रेरणा का ही प्रभाव है कि आज मैंने उच्च शिक्षा हासिल की तथा ज्ञान की पिपासा अनवरत बनी हुई है।
धन्य! धन्य! वह जननी जिसने जन्म दिया लीं पीड़ा हर।
अमूल्य ऋण पूर्ति हेतु मैं, फिर जन्मूँ उसी कोख भूमि पर॥