शकुंत माथुर जी का वास्तविक नाम तो शकुंतला माथुर है परंतु इनकी पुत्री बीना बंसल के अनुसार उन्हे शकुंत नाम ही प्रिय था। बीना जी के अनुसार इनका जन्म 24 फरवरी 1920 को दिल्ली में हुआ और इनका निधन 12 सितंबर 2004 को हुआ था। शकुंत जी ने बाल्यावस्था से ही लेखन प्रारम्भ कर दिया था और तमाम पत्र पत्रिकाओं में इनकी रचनाएं प्रकाशित होती थीं। इन्होंने अपने उत्कृष्ट योगदान से हिंदी साहित्य की अपूर्व सेवा की है। तत्कालीन परिस्थिति में जब स्त्री शिक्षा, स्वतंत्रता और लेखन कठिन ही नहीं, दुष्कर कार्य था तब शकुंत जी ने अपने लेखन और जीवन में साहसिक कार्य करते हुए बिना किसी स्त्री विमर्श के स्त्री जागरूकता के लिए प्रयास किया।
शकुंत माथुर दूसरा तार सप्तक की एकमात्र कवयित्री रही हैं। इन्हें नई कविता की पहली कवयित्री भी कहा जाता है। इनके प्रमुख काव्य संग्रह चांदनी चुनर (1960), अभी और कुछ (1966), लहर नहीं टूटेगी (1990) हैं। ‘चांदनी चुनर’ साहित्य भवन प्रा0 लिमिटेड से और ‘लहर नहीं टूटेगी’ नेशनल पब्लिशिंग हाउस से प्रकाशित हुई।
किसी वाद अथवा विमर्श के दायरे में हम जब भी रचनाकार को बांधते हैं तो उसके साथ अन्याय करते हैं। शकुंत माथुर के साथ भी ऐसा ही हुआ। उन्हें प्रयोगवाद और नई कविता की सीमाओं के आधार पर सदैव आंकने का प्रयास किया गया है। परंतु उनके समग्र रचना कर्म को हम देखें, तो यह कह सकते हैं कि उनमें प्रयोगवाद तथा नई कविता की प्रवृत्तियां समाहित है परंतु वह इससे आगे की रचना भी करती हैं। शकुंत जी का मानना है कि कविता वास्तविक जीवन के साधारण उत्तम सत्य पर आधारित है, इसलिए निष्पक्ष है।
चांदनी चुनर की भूमिका में उन्होंने प्रयोगवाद और नई कविता पर अपने वक्तव्य को भी लिखा है। अपनी कविताओं के संदर्भ में भी वह कहती है कि “इस सहज सत्य की खोज में लगे स्वाभाविक व्यक्ति के छोटे-छोटे सुख-दुख उसकी सामाजिक पारिवारिक अनुभूतियां मेरी कविता की विषय वस्तु है। “
“घर आंगन चौकी से जो संस्कृति, विवेक, अनुशासन तथा रसज्ञता जन्मती है, वह बेसिक होती है, स्थाई होती है। इसी कारण समाज की जिस पूर्ण – खंड इकाई में मैं रमी हूं उसके सुख दुख की आनंदयी अनुभूतियों को साधारण इंगित करने की चेष्टा मैंने की है बरगद या सितंबर में आई थी नामक कविताएं इसका उदाहरण है। मेरी कविताएं एक पैटर्न की नहीं है। उपमान घरेलू जीवन से उठाए हैं। भाषा और मुहावरे एकदम गृहस्थी की बोलचाल वाले हैं।” ( चांदनी चुनर : वक्तव्य, पृ0 07- 08)
शकुन्त माथुर की रचनाओं में सामान्य घर गृहस्थी से उठाए हुए आनंद के कुछ टुकड़े हमें दिखाई देंगे। इनकी कविताएं घर की देहरी से संसार को देखने की प्रवृत्ति की ओर इंगित है। शकुंत माथुर की कविताएं आदर्श यथार्थ इत्यादि सांचो में फिट नहीं बैठती हैं। इन सब से दूर इनकी कविताएं मन की सहज अनुभूतियां है। यह ऐसी अनुभूतियां हैं जो किसी घटना, किसी तथ्य या जीवन की सामान्य से घटित होने वाली दैनिक क्रिया से भी उपज जाती है। इसके लिए काव्य सिद्धांतों की आवश्यकता अगर महसूस की जाएगी तो कविता का मूल रस ही समाप्त हो जाएगा। शकुंत माथुर की रचनाओं को परखने के लिए काव्य कसौटी के मानदंडों को आरोपित करके देखने में निराशा हाथ लगेगी। वस्तुतः कुछ रचनाकार ऐसे होते हैं जिनके लिए मानदंड की कसौटी बदलनी आवश्यक होती हैं, शकुंत जी ऐसी ही रचनाकार हैं।
शकुंत माथुर की पूर्णमासी रात भर जैसी कविताएं नगरीय भाव बोध की कविताएं हैं। नगरी भाव बोध में संवेदनहीनता, रिश्तों में आई तटस्थता और अपने भीतर एक रिक्तता की जो अनुभूति है वह शकुंत जी की रचनाओं में देखने को मिलती हैं। रिश्तों में आया एक ठंडापन और संवेदना की चोटिल छवि इस कविता में देखते ही बनती है –
मेरे ही तीन बच्चे
रक्त के टुकड़े
निचोड़ रहे
कपड़ों सा मुझे
प्रतिपल दिन गिरता है
सांस छोड़ गहरी
(मध्यवर्ग कविता : कविताएं संकलन से साभार)
इस जैसी और ऐसी अनेकानेक कविताओं में शकुंत जी सत्य के लिए कभी-कभी सपाट अभिव्यक्ति भी देती हैं। जैसे –
घृणा की गहरी खाई
बर्बरता के पर्वत
रक्त की नदियां
अणु का ह्रास
शकुंत जी की रचनाओं में किसान, मजदूर और निम्न वर्ग अपने संपूर्ण अभावों, विषमताओं, आशा, निराशा, आकांक्षाओं, अपेक्षाओं के यथार्थपरक रूप में उपस्थित हुआ है। इसके साथ ही मध्यवर्गीय जीवन, उसकी पीड़ा, घुटन, सुख, दुख, कड़वाहट इत्यादि को उनके काव्य में बखूबी देखा जा सकता है। शोषण की गहरी जड़ें समाज में व्याप्त है इसकी ओर इनकी रचनाएं इंगित करती है। शकुंत जी की कुछ कविताएं पढ कर के ऐसा लगता है कि प्रेमचंद के कथा साहित्य की काव्यात्मक अभिव्यक्ति हैं। एक उदाहरण के द्वारा मैं अपनी बात को पुष्ट करना चाहती हूं –
कभी एक ग्रामीण धरे कंधे पर लाठी
सुख-दुख की मोटी सी गठरी
लिए पीठ पर
भारी जूते फटे हुए
जिनमें से झांक रही गांव की आत्मा
(दूसरा सप्तक से साभार)
शकुंत जी किसानों एवं मजदूरों का चित्रण करते समय उनका एक अलग ही सौंदर्यशास्त्र गढ़ती हैं। केदारनाथ अग्रवाल श्रम में सौंदर्य देखने के कारण अपनी रचनाओं में चर्चित हुए परंतु उसी श्रम को अपनी कविताओं में पिरोने पर भी शकुंत माथुर उपेक्षा का शिकार हुई। वस्तुत श्रम में सौंदर्य देखने का बोध अपने आप में बड़ा अद्भुत व निराला है शकुंत जी इस सौंदर्य को बड़ी बारीकी से देखती हैं और कहती हैं कि –
आज बाहर
गर्म सूरज
फेंकता गर्मी चिलकती धूप खेतों पर
बोते बीज खेतिहर
गर्म लोहूं से सीचे विटप सा
श्रम सौंदर्य को देखते हुए वह इस वर्ग की त्रासदी पर सीधे व सपाट तरीके से बडी सहज भाषा में कह उठती हैं –
बहती हुई नदी ने चर्चा की थी
आसमान से पाताल तक की
लगातार कहती गई थी
कम अनाज महंगाई की
भयानक अकाल बाढ़ की
स्त्री के संदर्भ में शकुंत जी एक साधारण स्त्री की भांति सोचती हैं। स्त्री का व्यक्तित्व, उसकी स्वतंत्रता इनकी कविताओं में अपनी झलक देते हैं, परंतु स्त्री विमर्श के ढोल नगाड़े पीटते हुए शब्दों में नहीं बल्कि यह अभिव्यक्ति एक सरल व सहज स्त्री की है जो अपने अस्तित्व में संपूर्ण है। स्त्री के संदर्भ में प्रगतिशील सोच के कारण इनका काव्य आधुनिकता के ज्यादा निकट है। स्त्री की दुख आकांक्षा और पीड़ा को स्वर देने के बावजूद भी इनकी रचनाओं में कहीं भी हीनता या कुंठा की झलक हमें नहीं मिलती है। वह कहती हैं –
ना पूजे पत्थर
ना पूजे चित्र
ना पूजे भाव
पूजा कर ली अपनी ही
फिर
मिटे उसी क्षण
जीवन भर के सभी शाप
( चांदनी चुनर संग्रह से पृ0 85)
स्त्री की पीड़ा उसकी संवेदना बिना किसी विमर्श के शकुंत जी बड़ी सहजता से ही प्रेषित कर देती हैं। इनकी रचनाओं में स्त्री एक साधारण स्त्री है जो अपने मुक्ति का शोर नहीं करती है बल्कि बड़ी सहजता से इस समाज को अपनी स्थिति बताती है। यह सहजता और सरलता ही शकुंत जी की विशेषता है। वह कहती हैं –
मैं टूट गई हूं
तुम्हारी नजर में
नहीं मैं
बंट गई हूं
मैं अपने स्वरूप को
पूरा नहीं देख पाती हूं
जान लेती हूं टुकड़ों में
मैं कट गई हूं
(तुम्हारी नजर में : अभी और कुछ काव्य संग्रह, पृष्ठ 19)
एक मध्यवर्गीय सामान्य स्त्री जो जीवन को संपूर्णता में जीना चाहती है। अपनी स्वतंत्रता, अपनी मुक्ति, अपने प्रेम में वह समग्र है और इसमें उसे किसी का दखल मंजूर नहीं है। जीवन को भोगना और जीवन के प्रति गहरी आस्था शकुंत की रचनाओं में देखने को मिलती है –
जी लेने दो मुझे
वह पूरा अर्थ
जो मेरे लिए सच्चा है
रख लेने दो मुझे
वही मेरे पास
जो नितांत मेरा अपना है
(जी लेने दो : लहर नहीं टूटेगी काव्य संग्रह, पृष्ठ 1)
इनकी रचनाओं में हमें मन की विभिन्न पर्तों का आकलन और विश्लेषण प्रचुरता में देखने को मिलता है। इनकी कविताओं में एलिस, फ्रॉयड आदि का प्रभाव दिखता है। कांच, खोखर, अर्थ, तुमसे भी ज्यादा इत्यादि कविताएं इसकी प्रामाणिक साक्ष्य हैं।
एक साधारण मनुष्य का संघर्ष, जिजीविषा, उसकी शक्ति शकुंत जी की कविताओं की केंद्रीयता है। इनकी रचनाओं में अनकहा कुछ भी नहीं है हां सांकेतिकता अवश्य है। शकुंत जी की प्रेम परक रचनाओं में छायावादी रूमानियत नहीं है और ना ही नई कविता के समान तल्ख अभिव्यक्ति है। वास्तव में इनकी प्रेमपरक कविताओं में मन की पर्त ज्यादा उभर कर आई है। प्रेम का सहज रूप हमें इनकी रचनाओं में देखने को मिलता है। वह कहती हैं –
तुम्हें
यदि कुछ मिला हो तो
स्वीकार लेना
जिए हुए साथ साथ
दुख सुख के क्षणों में से
कोई भी क्षण
फूल सा मेरी समाधि पर
गिरा देना
(समाधि कविता : अभी और कुछ काव्य संग्रह पृष्ठ 28)
इन्होंने अपनी कविताओं की शैली में नवीन प्रयोग किए हैं जो तत्कालीन समय में नहीं पाए जाते हैं, जैसे उलट बांसी का प्रयोग, फेंटेसी शिल्प का प्रयोग, ग्राम प्रतीकों का प्रयोग इत्यादि। इनकी एक कविता है विपर्यय की दुनिया जिसमें वह स्पष्ट रूप से लिखती हैं कि यह उलटबांसी का प्रयोग है। शकुंत जी ने अपनी रचनाओं में धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक, वैज्ञानिक इत्यादि अनेक प्रकार के प्रतीकों का उपयोग किया है।
अभी और कुछ संग्रह की कविताओं में जीवन के मधुर पक्ष, सौंदर्य, प्रेम और प्रकृति की रचनाएं हैं। यह रचनाएं माननीय प्रेम, मानवीय संवेदना और जीवन के प्रति आसक्ति का रसास्वादन कराने वाली रचनाएं हैं। प्रेम की यह नवीन भूमि शकुंत जी के काव्य का कोमल पक्ष प्रस्तुत करती हैं –
आओ
भीतर इसके झरना है
बहुत से मंदिर भी
देवता भी
सोचा चलूं
दर्शन कर लूं
अपनी रचनाओं से हिंदी साहित्य को व्यापक फ़लक देने वाली शकुंत माथुर की जन्म शताब्दि पर उन्हे नमन है। गिरिजा कुमार माथुर की जन्म शताब्दी मनाने वाले लोग शकुंत माथुर पर मौन है। स्त्री रचनाकारों की उपेक्षा का इससे बड़ा प्रमाण और क्या होगा।