कुछ घटनाएं दिल को झकझोर देती हैं, और कुछ अंतरात्मा को। हाल ही में ऐसी एक खबर सामने आई कि “तीन साल की एक बच्ची ने संथारा लिया।”
यह पढ़ते ही जो पहला प्रश्न मन में उठता है वह यह कि संथारा उसने लिया या उसे दिया गया?
क्योंकि तीन वर्ष की आयु में जब बच्चा ठीक से बोलना भी नहीं जानता, अपनी पसंद-नापसंद भी नहीं कह पाता, तब वह यह कैसे तय कर सकता है कि वह अब अन्न-जल त्यागकर मृत्यु वरण कर लेगा?
क्या तीन वर्ष का बच्चा अपना स्कूल स्वयं चुनता है? क्या वह अपना खाना-पीना स्वयं करता है? क्या अपनी मनमर्जी से कहीं भी जा पाता है?
उसे कानून या नियमों की जानकारी तो दूर, इन शब्दों का अर्थ भी पता होता है?
क्या वह इतनी समझ रखता है कि जीवन त्यागने का समय आ गया है?
यदि नहीं, तो फिर उसने संथारा कैसे लिया और यह संथारा कैसे हुआ?
बच्चे की तो छोड़िए, भारतीय समाज में दसवीं में पढ़ने वाला किशोर तक वही करता है जो उसके माता-पिता या बड़े उससे करवाते हैं। ऐसे में यदि एक बच्ची को उपवास की स्थिति में बिना अन्न-जल के इतने दिन रखा गया, उसके वजन में निरंतर गिरावट आती रही और अंततः वह मृत्यु को प्राप्त हो गई। तो यह स्पष्ट रूप से इरादतन हत्या है जिसे किसी भी रूप में धार्मिक रंग देकर महिमामण्डित नहीं किया जा सकता। क्षमा चाहती हूँ पर यह धर्म नहीं, शर्म की बात है।
संथारा, जिसे जैन धर्म में ‘संलेखना’ या ‘समाधि मरण’ भी कहा जाता है, मृत्यु को शांतिपूर्वक स्वीकारने की एक आध्यात्मिक प्रक्रिया मानी जाती है। यह वैराग्य की चरम अवस्था में अत्यंत पवित्र साधना है जहाँ मृत्यु को सम्मान और आत्मशुद्धि के साथ अंगीकृत किया जाता है।
लेकिन जब इस प्रक्रिया को एक तीन साल की बच्ची पर लागू किया जाता है, तो यह साधना नहीं, धार्मिक विकृति बन जाती है। संथारा ज्ञान, विवेक और आत्मचिंतन से उपजा निर्णय होना चाहिए, न कि किसी अबोध शिशु पर जबरन थोपा गया कृत्य।
यह सोचना और भी विचलित करता है कि अहिंसा को सर्वोपरि मानने वाला समाज, एक मासूम बच्ची के जीवन को मूक रूप से समाप्त करने की अनुमति कैसे दे सकता है? जैन धर्म की तो आत्मा ही करुणा और विवेक है। क्या उस विवेक ने उन्हें रोककर पूछा नहीं कि वे यह क्या करने जा रहे हैं?
बच्ची बीमार थी लेकिन क्या उसे आत्म-साक्षात्कार हुआ था? क्या वह वैराग्य की स्थिति में थी? क्या वह अपने जीवन का त्याग करने के लिए स्वयं इच्छुक थी?
यदि इन सभी सवालों का उत्तर ‘नहीं’ है, तो फिर यह गलत नहीं हुआ?
जैन धर्म विश्व के सबसे करुणाशील और अहिंसक धर्मों में गिना जाता है। इसकी बुनियाद ही अहिंसा, अपरिग्रह और आत्मानुशासन पर रखी गई है। जैन दर्शन के अनुसार, किसी भी जीव मात्र को जानबूझकर कष्ट पहुँचाना पाप है, चाहे वह हिंसा विचारों से हो, वाणी से, या कृत्य से। जैन धर्मावलम्बी तो झाड़ू लगाते हुए भी चींटियों को निकलने का रास्ता देते हैं।
धर्म का उद्देश्य ही है, मनुष्य को ज्यादा संवेदनशील, ज्यादा मानवीय और विवेकशील बनाना। यदि धर्म के नाम पर एक मासूम की जान ले ली जाए और समाज इसे ‘आध्यात्मिक उपलब्धि’ कहे तो यह धार्मिक मूल्यों का नहीं, धार्मिक पाखंड, धार्मिक अंधता की पराकाष्ठा है।
अहिंसा सिर्फ शरीर पर चोट करने से नहीं होती। किसी की मौन चीख को न सुनना भी हिंसा है। भूखा मारना भी हिंसा ही है।
आस्था महत्वपूर्ण है, परंतु आस्था का सबसे पहला मूल्य है, करुणा। इसे खोने के बाद आस्थावान नहीं रहा जा सकता।
चौंकाने वाली बात यह है कि इसके बाद बच्ची के माता-पिता को सम्मानित किया गया, जैसे उन्होंने कोई धार्मिक वीरता का कार्य किया हो, कोई धर्मयुद्ध जीता हो। क्या यह हमारे समाज की सामूहिक संवेदना का पतन नहीं है? इस घटना पर समाज का अपरोक्ष समर्थन और भी अधिक भयावह है। ध्यान रहे, ये वही समाज है जो बेटियों को देवी मानकर पूजता है, लेकिन यहाँ एक देवी को जीवित समाधि दे दी गई और विरोध का एक स्वर नहीं उठा!
एक बच्ची इस दुनिया से इसलिए नहीं चली गई कि वह अपने पक्ष में कुछ कह न सकी, चीख न सकी, मदद के लिए किसी को पुकार न सकी। वह इसलिए भी चली गई क्योंकि समाज और आस्था के नाम पर लोग हाथ बाँधे, चुपचाप खड़े रहे और रिकॉर्ड बनने का बेतुका तमाशा देखते रहे।
गिनती कीजिए कि धर्म और आस्था के नाम पर अब कितनी हिंसा और हत्याएं देखना शेष है? यह भी विचारिए कि आखिर हम धर्म के साथ खड़े हैं या अंधविश्वास के? लेकिन यह कभी मत भूलिएगा कि जब हम धर्म के नाम पर मौन रह जाते हैं, तब यह मौन भी बड़ा अपराध बन जाता है।
हर धर्म का मर्म है – जीवन के पक्ष में खड़ा होना, उसकी रक्षा करना। धार्मिक चोगा ओढ़कर अपने पाप को पुण्य कहने का भरम इंसान ने अपनी सुविधा से चुन लिया है।
कुछ घटनाएँ केवल समाचार नहीं होतीं, वे समाज के विवेक की परीक्षा होती हैं। इससे बड़ा और क्या दुर्भाग्य होगा कि एक समाज के रूप में हम ऐसी हर परीक्षा में निरंतर फेल होते जा रहे हैं।